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मैं पर्यावरण बोल रहा हूँ . . . 

 

(पर्यावरण दिवस पर एक कविता) 
 
मैं पर्यावरण हूँ। 
न तो पेड़ मात्र, 
न ही जल का प्रवाह, 
न केवल वायु की लय, 
न ही मिट्टी की गंध, 
मैं वह संतुलन हूँ
जो जीवन को साँस देता है। 
 
मैंने तुम्हें जन्मते देखा, 
तुम्हारे पहले क़दम, 
तुम्हारा पहला हल जोतना, 
पहली आग जलाना, 
पहली नदी पार करना, 
और फिर धीरे-धीरे
तुम्हारा स्वार्थ, 
तुम्हारी अधीरता, 
तुम्हारा अभिमान भी देखा। 
 
जब तुमने पहाड़ों को खोदा, 
मैं चुप रहा। 
जब तुमने नदियों को बाँधा, 
मैं मौन रहा। 
जब तुमने आकाश छू लिया, 
मैंने तुम्हें सराहा। 
लेकिन जब तुमने धरती को नोचना शुरू किया, 
तो मेरी साँसें भारी हो गईं। 
 
आज मैं टूट रहा हूँ, 
क्योंकि तुम भूल चुके हो
कि तुम्हारा अस्तित्व
मेरे संतुलन पर टिका है। 
 
अब सुनो
ग्लेशियर पिघल रहे हैं, 
समुद्र उफान पर हैं, 
वर्षा चक्रीय नहीं रही, 
धूप में अब दया नहीं बची, 
साँस में ज़हर भर गया है। 
 
प्रजातियाँ
जिन्हें मैंने लाखों वर्षों में
सहेजकर पाला था, 
वे अब संग्रहालयों में
नाम मात्र हैं। 
हर मिनट
एक पेड़ गिरता है, 
हर सेकेंड
एक पक्षी खो जाता है, 
हर दिन
मानवता की आत्मा
थोड़ी और खोखली हो जाती है। 
 
फिर भी
मैं विरोध नहीं करता, 
मैं पलायन नहीं करता, 
मैं बदला नहीं लेता, 
क्योंकि मैं माँ हूँ। 
लेकिन अब, 
अब मुझे बोलना होगा। 
 
अब नहीं चलेगा
केवल भाषणों का झुनझुना, 
या पर्यावरण दिवस की
एकदिनी सजावट। 
 
तुम्हें बदलना होगा
अपनी आदतें, 
अपनी विकास की परिभाषा, 
अपना लालच। 
 
समाधान कोई जादू नहीं, 
बस कुछ सच्चे क़दम हैं। 
 
हर वृक्ष की जड़ में जीवन समझो। 
हर नदी को माँ कहो, 
और उसकी सेवा करो। 
हर प्लास्टिक के टुकड़े को अपराध मानो। 
हर जानवर को सहजीवी समझो, 
दया का पात्र नहीं। 
 
शहरों को नहीं
वनों को बढ़ाओ। 
ईंट-पत्थर की दीवारों से
ज़्यादा ज़रूरी है
हरियाली की चादर। 
 
अपशिष्ट मत फैलाओ, 
अपनी ज़रूरतें सीमित करो। 
जल बचाओ, 
बिजली कम करो, 
मिट्टी को साँस लेने दो। 
 
यह मत भूलो
पृथ्वी तुम्हारे बिना भी 
जी सकती है, 
पर तुम पृथ्वी के बिना नहीं। 
 
मैं पर्यावरण हूँ, 
अब भी जीवित हूँ, 
पर अब तुम्हारे निर्णयों पर
मेरा कल निर्भर करता है। 
 
क्या तुम सुन रहे हो? 
या अगली आपदा के आने तक
फिर सो जाओगे? 

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