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साहित्य में प्रेम के विविध स्वरूप

प्रेम अहंकार का पूर्ण उन्मूलन है, “हमारे जीवन के केंद्र की व्यवस्था”, “हमारे हित को अपने आप से दूसरे में स्थानांतरित करना।” यह प्रेम की प्रचंड नैतिक शक्ति है, जो स्वार्थ का नाश करती है, और एक नई, नैतिक क्षमता में व्यक्तित्व को पुनर्जीवित करना। प्यार में, भगवान की छवि का पुनर्जन्म होता है, वह आदर्श शुरूआत, जो शाश्वत स्त्रीत्व की छवि से जुड़ी होती है। 

साहित्य में प्रेम का विषय हमेशा प्रासंगिक रहा है। आख़िरकार, प्रेम सबसे शुद्ध और सबसे ख़ूबसूरत एहसास है जिसे प्राचीन काल से गाया जाता रहा है। प्रेम ने हमेशा मानव जाति की कल्पना को उसी तरह उत्तेजित किया है, चाहे वह युवा हो या अधिक परिपक्व प्रेम। प्यार बूढ़ा नहीं होता। लोग हमेशा प्रेम की सच्ची शक्ति से अवगत नहीं होते हैं, क्योंकि यदि वे इसके बारे में जानते हैं, तो वे सबसे बड़े मंदिरों और वेदियों का निर्माण करेंगे और सबसे बड़ा बलिदान करेंगे, और फिर भी ऐसा कुछ भी नहीं किया जाता है, हालाँकि प्रेम इसके योग्य है। और इसलिए, कवियों और लेखकों ने हमेशा मानव जीवन में अपने वास्तविक स्थान, लोगों के बीच संबंधों, उनमें निहित अपने तरीक़ों को खोजने और अपने कार्यों में, एक नियम के रूप में, मानव अस्तित्व की इस घटना पर व्यक्तिगत विचार व्यक्त करने की कोशिश की है। आख़िरकार, इरोस सबसे परोपकारी देवता है, वह लोगों की मदद करता है और शारीरिक और नैतिक दोनों तरह की बीमारियों को ठीक करता है, जिससे उपचार मानव जाति के लिए सबसे बड़ी ख़ुशी होगी। 

वस्तुतः वस्तु का बाह्यरूप जब तक हमारी कल्पना अथवा इन्द्रिय संवेदन का विषय नहीं बन जाती, तब तक सौन्दर्य की अनुभूति सम्भव ही नहीं है। एतदर्थ संवेदना अथवा कल्पना दोनों में से एक का होना अपरिहार्य है प्रेम सौन्दर्य अनुभूति के लिए। सुन्दर स्वरूपक का अवलोकन करने के बाद भी यदि ज्ञानेन्द्रियों में कोई सुगबुगाहट नहीं होती, हृदय में कोई स्पन्दन नहीं होता तो वह व्यर्थ हैं। वास्तव में वस्तु का स्वरूपज हमारी कल्पना में प्रवेश करता है, तो सौन्दर्य-उर्मियाँ तरंगित होने लगती हैं। कल्पना के अभाव में सौन्दर्य की अनुभूति नहीं की जा सकती। महाकवि कालिदास की दृष्टि में प्रेम सौन्दर्य अनन्त चेतना के प्रवाह की तरंग मात्र ही नहीं है। वाणी और अर्थ की भाँति चैतन्य एवं प्रेम सौन्दर्य एक है। चैतन्य के आनन्द सागर में सौन्दर्य की ऊर्मियाँ उठती रहती हैं। महाकवि कालिदास की प्रेम सौन्दर्य भावना समय मिलते ही प्रणय से आलिंगित हो जाती है। 

वेदकाल की धार्मिक दृष्टि प्रेममय जीवन में विराट् की अनुभूति के स्वरूप उत्पन्न करती है। यह अनुभूति परम आनन्द देने वाली होती है, अतएव यह प्रेम सौन्दर्य की अनूभूति होती है। प्रेम सौन्दर्य की इस अनुभूति से हमारा अनुभव रूपान्तरित होता है और प्रत्येक वस्तु में दिव्यता और आध्यात्मिकता का आविर्भाव होता है भारतीय प्रेम सौन्दर्य चेतना में यह आध्यात्मिक दृष्टि से वैदिककाल की देन है। हर युग के कवि और साहित्यकार ने किसी-न-किसी रूप में प्रेम का दामन अवश्य ही थामा है। वैदिक साहित्य प्रकृति-चित्रण एवं प्रेम संबंधी ऋचाओं और सूक्तों से भरा पड़ा है। परवर्ती लौकिक संस्कृत काल का साहित्य भी इसका अपवाद नहीं। कालिदास का ‘मेघदूत’ प्रकृति-चित्रण और प्रेम से संबंधित एक अजोड़ काव्य कहा जा सकता है। बाणभट्ट की ‘कादंबरी’ से विशाल, विराट और उदात्त प्रकृति-चित्रण को भला कौन भुला सकता है? संस्कृत में ऐसा एक भी कवि एवं साहित्यकार नहीं हुआ, जिसका मन-मस्तिष्क प्रेम के रूपचित्रों के चित्रण में न रमा हो। पालि और प्राकृतों के काल में भी मुक्त रूप से प्रेम साहित्य का अंगभूत रहा। हाँ, जब हम हिंदी साहित्य के प्रारंभिक युग आदिकाल में आते हैं, तब प्रकृति के उन्मुक्त चित्रण कुछ विलुप्त से होते हुए दिखाई देने लगते हैं। हम पाते हैं कि कविगण मात्र आलंबन या उद्दीपन के रूप में ही प्रकृति का आश्रय लेते हैं, मुक्त चित्रण में उनकी रुचि बहुत कम दिख पड़ती है। वैदिक कवियों की प्रेम सौन्दर्य भावना का उद्घाटन मुख्यतः उषस्-सूक्तों में हुआ है। मानवीय प्रेम सौन्दर्य का चित्रण प्रायः वेदों में उपलब्ध नहीं है। प्रो. मैकडॉनल का कथन है कि ‘मेघदूत की रचना सबसे मनोरम कल्पना और संसार के किसी भी साहित्य में मेघ से अधिक आकर्षक चरित्र देखने को नहीं मिलता है। मेघ के स्वरूप की छटा पौरोहित्य की अटकलों से धूमिल नहीं हो सकी है और न ही उससे सम्बद्ध कल्पना यक्षीय संकेतों के द्वारा आच्छन्न हो पाया है। कवि बोस के अनुसार सौन्दर्य वह है, जिसमें चारित्र्य या वैशिष्ट्य मूलक प्रकाश रहता है। वह ऐन्द्रिय अथवा कल्पना रूप में प्रकाशित वस्तु धर्म है। उसे प्रकाशित होने के लिए कोई माध्यम चाहिए। अभिव्यक्त सौन्दर्य में सार्वजनीन अथवा अमूर्त व्यंजनात्मकता सन्निहित होती है। 

महाकवि कालिदास का सौन्दर्य-विधान प्रणय की वेदना से सिक्त एवं विरह की व्यथा से व्यथित रहा है। वस्तुतः वेदना के तार जब झनझनाते हैं तब गीत फुटते हैं:

अधर पर मुस्कुराहट है नयन से नीर बहता है। 
हृदय की हूक हँस पड़ती उसे जग गीत कहता है॥8

महाकवि वाल्मीकि का शोक श्लोक में परिणत हो छलक पड़ा। करुणा एवं वेदना की गहरी ठेस से ऋषि के अन्तःकरण में सोया हुआ कवि जग उठा। और, आदिकवि की वह वेदना उनकी आदि काव्य रामायण का कारण बन गयी और काव्य की दृष्टि से उनका यह काव्य महाकाव्य के रूप में संसार का शिरोमणि बनाहुआ है:

मा निषाद् प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वती समाः। 
यत्क्रौंच मिथुनादेकमधीः काममोहितम्॥9

अनंत विजय लिखते हैं कि “भारतीय साहित्य की विकास यात्रा के कई युगों में प्रेम की अभिव्यक्ति को लेकर रचनाकारों में एक ख़ास क़िस्म का संकोच दिखाई देता है, वो बिंबों में उसको अभिव्यक्त करते हैं। टी एस इलियट ने लिखा था—केवल अतीत ही वर्तमान को प्रभावित नहीं करता है, वर्तमान भी अतीत को प्रभावित करता है। इस तर्क के आधार पर अगर हम हिंदी साहित्य के विकास को प्रेम की कसौटी पर कसते हैं तो लगता है कि इलियट आंशिक रूप से सही थे। कालिदास की रचनाओं में जिस तरह से प्रेम की अभिव्यक्ति हुई है, उसमें जितना खुलापन है, उसके बरअक्स अगर हम आज की रचनाओं में उपज रहे प्रेम की तुलना करते हैं तो इनका विकास रूप प्रेम के पूर्व रूपों के मूल्यांकन से प्रभावित नज़र आता है। अगर हम कविता में देखें तो रीतिकाल के कवि पद्माकर कहते हैं—धारी है इजार गुलबदन बहारवारी/प्यारी छवि झूलन इजारबंद छोर की/सेत कुरती सौं जालदार जुरती है अंग/रती हूँ ना लागै उरवसी गही ज़ोर की॥ अब अगर हम इससे आगे बढ़ते हैं तो यही ‘उरवसी’ जब रामधारी सिंह दिनकर के आख़िरी प्रबंध काव्य में उर्वशी के रूप में प्रकट होती है और अपने प्रेमी पुरुरवा से प्रेम संवाद करती है तो वहाँ हमें एक दूसरा ही भाव दिखाई देता है। उर्वशी और पुरुरवा प्रेमी-प्रेमिका हैं, एक मनुष्य तो दूसरी अप्सरा। स्थितियाँ लगभग वही हैं लेकिन काल के हिसाब से देखिए कथन कैसे बदल जाता है—या प्रवाल-से, अधर दीप्त, जिनका चुम्बन लेते ही/धुल जाती है श्रान्ति, प्राण के पाटल खिल पड़ते हैं /और उमड़ आसुरी शक्ति फिर तन में छा जाती है। तो जवाब में उर्वशी कहती है—उसे समझना रक्त, एक कम्पन जिसमें उठता है /किसी दूब की फुनगी से औचक छू जाने पर भी। अब इन दोनों रचनाओं में प्रेम की अभिव्यक्ति है, लेकिन इज़हार का अंदाज़ अलग है। जहाँ पद्माकर जालदार कुरती को अंग से जोड़ते हैं वहीं दिनकर दूब की फुनगी से कंपन उठाते हुए प्राण के पाटल खिलने की बात करते हैं। अगर हम धर्मवीर भारती के उपन्यास-गुनाहों का देवता और मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास-कसप को देखें तो वहाँ प्रेम का एक अलग ही रूप दिखाई देता है।” 

शृंगार वर्णन की विशिष्टताओं पर ग़ौर किया जाए तो निश्चित ही घनानंद ‘प्रेम की पीर’ के कवि के रूप में दिखाई पड़ते हैं। घनानंद मूलतः वियोग के कवि हैं। उन्होंने अपने साहित्य में बिहारी आदि की तरह संयोग व मिलन के चित्र नहीं खींचे हैं बल्कि प्रेम की पीड़ा को व्यक्त किया है। शुक्ल लिखते हैं कि “ये वियोग शृंगार के प्रधान मुक्तक कवि हैं।” इसी प्रकार, यह भी कहा जा सकता है कि इनका साहित्य स्वानुभूति का साहित्य है न कि सहानुभूति का। अपनी प्रेमिका सुजान के विरह में कविताएँ रचने वाले घनानंद के बारे में दिनकर जी लिखते हैं, “दूसरों के लिये किराए पर आँसू बहाने वालों के बीच यह एक ऐसा कवि है जो सचमुच अपनी पीड़ा में रो रहा है।” ‘प्रेम की पीर’ का कवि कहलाने के पक्ष में एक तर्क यह भी है कि इनका प्रेम वर्णन वैधानिकता, अति-भावुकता व अपने साथी के प्रति एकनिष्ठता से युक्त है:

“अति सूधो सनेह को मारग है
जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं“

घनानंद के यहाँ विरह की पीड़ा इतनी तीव्र है कि यह प्रतीक रूप में उनके साहित्य में सर्वत्र दिखाई देती है। सुजान के प्रति जो लौकिक प्रेम था, बाद में वही कृष्ण-राधा के प्रति अलौकिक स्तर पर व्यक्त होने लगा। पीड़ा इतनी गहरी है कि राधा-कृष्ण भक्ति के प्रसंग में भी सुजान के विरह को व्यक्त करते रहे:

“ऐसी रूप अगाधे राधे, राधे, राधे, राधे, राधे
तेरी मिलिवे को ब्रजमोहन, बहुत जतन हैं साधे।” 

‘पदमावत’ की कथा के मध्य लौकिक प्रेम का वर्णन करते हुए जायसी ने अलौकिक प्रेम-व्यञ्जना की ओर ही संकेत दिया है। हीरामन तोता सूफ़ी पन्थानुसार गुरु है। कवि ने तोते के माध्यम से ही सूफ़ी प्रेम तत्त्व का निरूपण किया है। पद्मावती के नख-शिख का वर्णन करता हुआ हीरामन तोता बीच-बीच में उस परम सत्ता के अलौकिक सौन्दर्य की झलक तथा आध्यात्मिक संकेत भी देता चलता है। जायसी के आध्यात्मिक प्रेम तत्त्व की विशेषता है—विरह की व्यापकता। मूर्च्छित होने पर भी नायक रत्नसेन (जीव)—को ध्यान में पद्मावती रूपी ‘परम ज्योति’ के सामीप्य की आनन्दमयी अनुभूति होती रहती है। वह संसार से विरत होकर प्रेम समुद्र में डूब जाता है:

अठहु हाथ तन सरवर हिया कँवल तेहि माँह। 
नैनन्ह जानहु निअरें कर पहुँचत अवगाह॥

प्रसाद ने हिंदी काव्य में छायावाद की स्थापना की जिसके द्वारा खड़ी बोली के काव्य में कमनीय माधुर्य की रससिद्ध धारा प्रवाहित हुई और वह काव्य की सिद्ध भाषा बन गई। वे छायावाद के प्रतिष्ठापक ही नहीं अपितु छायावादी पद्धति पर सरस संगीतमय गीतों के लिखनेवाले श्रेष्ठ कवि भी बने। प्रसाद जी प्रेम और आनन्द के कवि माने जाते हैं। उनकी रचनाओं में प्रेम परक मनोभावों का सूक्ष्म निरूपण हुआ है। उनके शब्दों में प्रेम के वियोग-संयोग दोनों ही पक्ष अपनी पूरी छवि के साथ विद्यमान मिलते हैं। ‘आँसू’ उनका प्रसिद्ध वियोग काव्य है। उसके एक-एक छन्द में विरह की स्वाभाविक पीड़ा पूर्ण चित्रित है:

जो घनीभूत पीड़ा थी, मस्तक में स्मृति-सी छायी। 
दुर्दिन में आँसू बनकर, वह आज बरसने आयी। 

एक सर्वेक्षण के मुताबिक़ ‘उसने कहा था’ न सिर्फ़ प्रेम-कथाओं बल्कि हिंदी की दस बेमिसाल कहानियों में शामिल है। आलोचक नामवर सिंह का कहना था कि ‘उसने कहा था’ का समुचित मूल्यांकन होना अभी बाक़ी है। उनके मुताबिक़ अभी इसे और समझे और पढ़े जाने की ज़रूरत है। 

किसी कहानी को अमर बनाने वाला सबसे बड़ा गुण होता है कि वह आपको बार-बार पढ़ने के लिए उकसाए और बार-बार मन में अटकी सी रह जाए। हर बार के पाठ में उसके नए अर्थ और संदर्भ खुलें, हर बार यह लगे कि कुछ कहने समझने को बचा रह गया। ‘उसने कहा था’ इस कसौटी पर खरी उतरती है। 

महादेवी वर्मा की कविताओं में प्रेम एक मूल भाव के रूप में प्रकट हुआ है उनका प्रेम अशरीरी है। यह करुणा से आप्लावित प्रेम है अलौकिक दिव्य सत्ता के प्रति उनकी इस प्रणयानुभूति में दाम्पत्य प्रेम की झलक भी मिलती है और लौकिक स्पर्श का आभास भी। महादेवी की कविता में व्यक्त प्रेम इसलिए भी विशिष्ट है क्योंकि वह एक स्त्री की लेखनी से किया गया स्त्री-मनोभावों का चित्रण है। 

जो तुम आ जाते एक बार
कितनी करुणा, कितने संदेश
पथ में बिछ जाते वन पराग
गाता प्राणों का तार-तार
अनुराग भरा उन्माद राग
आँसू लेते वे पद पखार

कबीरदास की मान्यता है कि मानवता के विकास में प्रेम का ही अहम् यागेदान है जिस हृदय में प्रेम का संचरण नहीं हातेा उस घट या हृदय को श्मशान के समान समझना चाहिए:

“जा घट प्रेम न संचरै सो घट जान मसान। 
जैसे खाल लाहेार की साँस लेत बिनु प्रान॥” 

जो व्यक्ति इस संसार में आकर प्रेम-रस का पान नहीं करते, उनका इस संसार में आना उसी व्यथ है। जिस प्रकार किसी अतिथि का सूने घर में आना:

“कबीर प्रेम न चक्खिया, चक्खि न लिया साव। 
सूने घर का पाहुना, ज्यूँ आया त्यूँ जाव॥” 

गोस्वामी तुलसीदास ने प्रेम के अभाव में, मनुष्य के सुख, सम्पदा और ज्ञान को तुच्छ मानते हुए कहा है:

“जो सुखु करमु जरि जाऊ, जहै न राम पद पंकज भाऊ। 
जागु कुजोगु ग्यानु अग्यानू, जहै निहे राम पेम परधानू॥” 

प्रेम स्वयं में व्यापक, विराट् व शक्तिशाली अनुभूति हैं। इसके जागृत होते ही आत्मा की तत्काल अनुभूति हो जाती है। प्रेम की अनुभूति जाग्रत होने से पहले सब कुछ निर्जीव, आनन्दरहित व जड़ है। किन्तु इसके जागतृ हाते ही सभी कुछ प्रफुल्लित, दिव्य, चैतन्य और आलाकेमय हो जाता है। 

समकालीन महिला-लेखन में स्त्री जीवन से जुड़े अनेक मुद्दों के साथ ही प्रेम पर भी गहराई से विचार हुआ है। कृष्णा सोबती समकालीन महिला लेखन के सर्वाधिक लोकप्रिय हस्ताक्षरों में से एक हैं जिनके लेखन का दायरा लगभग छह दशकों तक पसरा हुआ है तथा सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक और साहित्यिक परिवर्तनों के एक लम्बे दौर की वे सहभागी रही हैं। आधुनिक युग में औद्योगीकीकरण, भूमण्डलीकरण और नारी-मुक्ति आंदोलनों ने नारी की सामाजिक स्थिति में अनेक सुधार किये हैं। स्त्रियों का एक बड़ा तबक़ा आज शिक्षित और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर है तथा इसी कारण जीवन के सभी पहलुओं जैसे आर्थिक स्वातन्त्र्य, अस्तित्वबोध, प्रेम या विवाह से सम्बंधित निर्णय, सभी को आलोचनात्मक दृष्टि से देखती हैं। आज की स्त्री सभी मुद्दों पर पुरुष से बराबरी का अधिकार चाहती है। प्रेम अब कोई शाश्वत भावना नहीं रही और इसे अपनी सुविधानुसार तोड़ा या मरोड़ा जा सकता है। आधुनिक युग में प्रेम सिर्फ़ उदात्त भावना तक सिमटा हुआ नहीं है बल्कि शारीरिक और मानसिक संतुष्टि का भी उपादान बन चुका है। 

संदर्भ:

1. प्रेम और साहित्य के विभिन्न आलेख

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