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कविता जी की सुबह . . . आह, कविता जी की सुबह! यह कोई भोर में खिलते कमल, या मधुर संगीत से भरी सुबह नहीं होती। यह होती है एक युद्ध भूमि, जहाँ पहली आवाज़ होती है अलार्म की नहीं, बल्कि रसोई से आती कुकर की सीटी की, और सबसे पहला शिकार बनता है कविता जी का ‘थोड़ी देर और’ सोने का मन। 

बाहर की दुनिया ‘सुव्यवस्थित’ रहने की बातें करती है। टीवी पर ‘आदर्श गृहणी’ के विज्ञापन आते हैं, जिनमें एक महिला सुबह-सुबह जिम जाती है, फिर बच्चों को विटामिन युक्त नाश्ता देती है, ख़ुद चमकदार कपड़ों में दफ़्तर जाती है, और शाम को घर आकर बिना माथे पर बल के पाँच कोर्स का डिनर परोस देती है। इन सब में वह ‘सजी-सँवरी’ दिखती है—उसके बाल सही जगह, मेकअप बेदाग़, और साड़ी की सिलवटें मानो किसी फ़ैशन शो से सीधे निकलकर आई हों। 

लेकिन कविता जी के साम्राज्य में ‘सुव्यवस्था’ एक काल्पनिक अवधारणा है, जो शायद किसी हॉलिडे रिसॉर्ट में ही सम्भव हो। उनकी अलमारी में ‘ख़ास अवसरों’ के लिए कपड़े हैं, जो अब सिर्फ़ वार्षिक पारिवारिक मिलन या किसी रिश्तेदार की शादी तक सीमित रह गए हैं, जहाँ उन्हें ‘अच्छा दिखना’ होता है। रोज़मर्रा की ज़िंदगी में, उनके कपड़ों पर कभी सब्ज़ी का दाग़ होगा, कभी मसालों का, और हाँ, सबसे लोकप्रिय ‘चॉकलेट का निशान’ तो जैसे उनके मातृत्व का बैज बन चुका है। 

केशों की तो बात ही छोड़िए! ‘मेसी बन’ आजकल फ़ैशन में है, लेकिन कविता जी का बन ‘फ़ैशन’ नहीं, ‘फ़ास्ट-मोड’ है। वह बन नहीं, बल्कि बालों का एक सुरक्षा कवच है, जिसे उन्होंने कभी पानी की बोतल भरते हुए, कभी आटा गूँथते हुए, तो कभी बच्चों को डाँटते-दुपटते हुए बेतरतीब ढंग से समेटा है। उस बन से झाँकती हुई कुछ लटें, उनकी अनवरत व्यस्तता का प्रमाण पत्र हैं। और क्या किसी ने कभी उनके “सूखे हाथों” पर ग़ौर किया है? उन हाथों पर अक्सर साबुन और पानी का असर दिखता है, मानो वे कह रहे हों, “इन बेचारी हथेलियों को कब फ़ुर्सत मिलेगी कि ख़ुद को सजाएँ!”

जब कोई उनसे पूछता है, “कविता जी, आजकल आप थोड़ी थकी-थकी लग रही हैं,” तो कविता जी एक मंद-मंद मुस्कान देती हैं। वह बता नहीं सकतीं कि पिछली रात गैस पर रखी दाल का पतीला कैसे अचानक उबल पड़ा था और उन्हें आधी नींद से उठकर उसे ‘नियंत्रित’ करना पड़ा था। वह यह भी नहीं कह सकतीं कि सुबह-सुबह उन्होंने अपनी बेटी के प्रोजेक्ट के चार्ट पेपर को ‘स्कूल तक सुरक्षित पहुँचाया’ था, क्योंकि वह बस स्टॉप पर नींद में उबासी ले रही थी। 

कविता जी एक ही समय में ‘शिक्षिका’ भी हैं, जब वह बच्चों को जीवन के पाठ पढ़ाती हैं। ‘पोषण विशेषज्ञ’ भी हैं, जब वह रसोई में खड़ी होकर परिवार के लिए पौष्टिक भोजन बनाती हैं। ‘चिकित्सक’ भी हैं, जब किसी को ज़रा भी खाँसी-ज़ुकाम हो जाए। और सबसे बढ़कर, वह ‘अदृश्य शक्ति’ हैं, जो घर के हर कोने को अपनी अथक ऊर्जा से चलाती हैं। 

उनकी अपनी इच्छाएँ? ओहो! वे तो डायरी के पुराने पन्नों या दराज़ में रखी किसी अधूरी कहानी की तरह हैं। कभी-कभी रात के सन्नाटे में, जब सब सो जाते हैं, तो वह उन ख़्वाबों से चोरी-छिपे मिल आती हैं। एक कप गरमा-गरम चाय के साथ, या शायद अपने फोन पर कोई पसंदीदा भजन सुनकर। बस, उतनी ही फ़ुर्सत है। 

तो, हाँ, कविता जी ‘सजी-सँवरी’ नहीं रह पातीं, उस विज्ञापन वाली आदर्श महिला की तरह। पर क्या वाक़ई यह मायने रखता है? जब उनके बेटे का चेहरा स्कूल से लौटकर ख़ुशी से खिल उठता है, जब पति संतुष्ट होकर खाने की तारीफ़ करते हैं, जब घर में सब कुछ व्यवस्थित और प्यार से भरा लगता है, तब उन्हें पता चलता है कि असली ‘सुव्यवस्था’ यही है। यह बाहरी दिखावा नहीं, बल्कि घर की आत्मा को ‘संजोना’ है। और उस अदृश्य ताज वाली रानी के लिए, यही सबसे बड़ी उपलब्धि है, चाहे उसके हाथ कितने भी सूखे हों और बाल कितने भी बिखरे। 

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