नब्बे प्रतिशत बनाम पचास प्रतिशत
आलेख | सामाजिक आलेख डॉ. सुशील कुमार शर्मा1 Aug 2020 (अंक: 161, प्रथम, 2020 में प्रकाशित)
प्रतिशत के पीछे भागते पालक
एक समय था जब हमारे 50 प्रतिशत नंबर आते थे तो हम सातवें आसमान पर होते थे। हमारे माता पिता गर्व से कहते थे मेरा बेटा पास हो गया और आज 95 प्रतिशत के बाबजूद बच्चा रोता है। उसके माँ बाप मुँह छुपा कर शर्मिदगी महसूस करते हैं। आख़िर ऐसा क्या हो गया है जहाँ बच्चे प्रतिशत के पीछे अंधाधुँध दौड़ लगा रहे हैं। कम नंबर आने पर बच्चे जितना अपने रिज़ल्ट से ख़ुद दुखी नहीं होते, उससे कहीं ज़्यादा इस बात को लेकर परेशान रहते हैं कि वे अपने पैरंट्स की उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे क्योंकि माता-पिता का प्रेशर बच्चों को तनाव में डाल देता है। हर बच्चे की अपनी क्षमता व ताक़त होती है। 60 प्रतिशत अंक लाने वाले को प्रोत्साहित करेंगे तो वह 70 या 80 प्रतिशत की ओर बढ़ेगा। 90 प्रतिशत अंक न लाने पर डांटेंगे तो वह हतोत्साहित होगा। उसका ग्रेड 40 प्रतिशत पर आ जाएगा। केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) की कक्षा बारहवीं की परीक्षा में वर्ष 2008 में 400 से भी कम विद्यार्थियों को 95 प्रतिशत से ज़्यादा अंक मिले थे। इसके छह वर्ष बाद यह संख्या 23 गुना बढ़ कर वर्ष 2014 में 9000 तक पहुँच गई। 2018 में यह वृद्धि 38 गुना तक हो गई और 14900 विद्यार्थियों के अंक 95 प्रतिशत के ऊपर आए। यही स्थिति राज्य शिक्षा मंडल की बारहवीं की परीक्षा में भी दिखाई देती है। यह एक तरफ़ जहाँ ख़ुशी की बात है, वहीं दूसरी तरफ आत्मनिरीक्षण करने की भी ज़रूरत है। एक लड़का मधुबनी बिहार का रहने वाला था और कोचिंग करने कोटा आया था…! वह अपने गाँव घर मुहल्ले और स्कूल का टॉपर था... हर साल अपनी कक्षा मे पहला रैंक लाता था! स्कूल और घर में उसे बहुत ही मान सम्मान और विषेश दर्जा दिया जाता था। फिर एसा क्या हो गया कि अपने सारे सपने उसे डूबते-बिखरते नज़र आने लगे और वह अपनी जीवनलीला ही समाप्त कर बैठा। सोचने वाली बात ...!
आख़िर गड़बड़ कहाँ होती है? और किसी को जब गड़बड़ पता चलता है तो बहुत देर हो चुकी होती है। कोटा की इसी भीड़ में मधुबनी का वह टॉपर कहीं गुम हो गया। ज़िंन्दगी से हार कर बहुत दूर चला गया जहाँ से वापस कोई नहीं आता। उसे समझाने वाला, सपोर्ट करने वाला कोई था नहीं उसके आस पास…!
नेशनल सैंपल सर्वे के अनुसार प्रत्येक चार विद्यार्थियों में से एक कोचिंग क्लास में जाता है। कोचिंग क्लास के भी कई-कई रूप दिख रहे हैं– जैसे क्लासरूम कोचिंग, स्टडी सर्कल, होम ट्यूशन, ऑनलाइन शिक्षण आदि। हालाँकि 96 प्रतिशत कोचिंग आमने-सामने की ही होती है। ऑनलाइन कोचिंग व क्लासरूम कोचिंग का बाज़ार हज़ारों करोड़ रु. का है। अब ग्रामीण क्षेत्रों में इंटरनेट के प्रवेश से ऑनलाइन शिक्षा भी बढ़ी है। सुखद पहलू यह है कि सरकारी स्कूल के बच्चे हर क्षेत्र में बाज़ी मार रहे हैं।
1985 के राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा पुनरीक्षा,1988 के दस्तावेज़ को देखें तो यह मानता है कि बच्चों को प्राथमिक स्तर पर भाषा, गणित आदि की समझ विकसित करनी चाहिए। ख़ासकर कक्षा एक से पाँचवीं तक में भाषा, गणित, विज्ञान और समाज विज्ञान की शिक्षा दी जाए। यह दस्तावेज़ मानता है कि प्राथमिक और उच्च कक्षाओं में बच्चों को शिक्षा कला के ज़रिए दी जाए। देश के ऐतिहासिक धरोहरों के बारे में भी बच्चों को जानकारी दी जाए। इस मसले पर दस्तावेज़ में ख़ासतौर से ज़ोर दिया गया था। बच्चों को नैतिक और पर्यावरण शिक्षा अनिवार्य की जाए जो अभी तक नहीं की गई है। साथ ही शिक्षकों पर 100 प्रतिशत परीक्षा परिणाम लाने के दबाब से उन्हें मुक्त किया जाए क्योंकि शिक्षक भी एक इंसान है जिन्न नहीं जो साल भर चुनाव, जन गणना, कोविड ड्यूटी, कई सर्वे करके बच्चों को पढ़ायें और हर बात की ज़िम्मेवारी अपने सर पर लेकर दण्डित हों।
विद्यार्थी का वर्तमान और भविष्य सँवारने में शिक्षक व माँ-बाप दोनों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। लेकिन जब माँ-बाप व शिक्षक बच्चों को कुछ वह करने के लिए दबाव डालते हैं, जिसमें बच्चे की रुचि नहीं होती, तब बच्चे का वर्तमान और भविष्य दोनों धूमिल होने लगते हैं। दबाव का सिलसिला जब लम्बा हो जाता है तब बच्चा निराशा के भँवर में फँस जाता है और परिवार, समाज दोनों को परिणाम भुगतने पड़ते हैं। आपसे निवेदन है अपने बच्चे के रिज़ल्ट की तुलना अपने दोस्तों या रिश्तेदारों के उन बच्चों से बिलकुल न करें जिन्होंने आपके बच्चे से बेहतर प्रदर्शन किया है। हर बच्चा अपने आप में यूनीक होता है और हर बच्चे का टैलंट और दिमाग़ दूसरे बच्चे से अलग होता है। सबसे अहम बात दूसरों के सामने बच्चे के रिज़ल्ट की आलोचना बिलकुल न करें। इससे बच्चे के आत्मसम्मान को ठेस पहुँचती है।
वर्तमान अंकीय प्रकृति वाली प्रणाली को बढ़ावा देने वाली परीक्षा व्यवस्था कहीं न कहीं बच्चों के स्वतंत्र और मौलिक चिंतन के संवर्धन में मददगार साबित होने की बजाय हानिकारक ही साबित हो रही है। सिर्फ़ अंकों के पहाड़ खड़ा करना हमारा मक़्सद न हो, बल्कि अंकों के साथ ही उसी के अनुपात में बच्चों को अपने विषयों की समझ भी विकसित हो। बच्चे हमारे आने वाले कल की नींव है और नींव जितनी मज़बूत होगी उतना ही हमारा आने वाला कल मज़बूत होगा।
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