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जब प्रेम उपजता है

 
प्रेम जब उपजा है मन में, 
याद उनकी मुस्कुराती। 
स्मृति के पिंजड़े में जड़ी, 
मुग्ध मिट्टी सी बसाती। 
 
तन रंध्रों से बहता अविरल
प्यार में स्रावित है मन झरना। 
सोचकर है मन प्रफुल्लित
साथ है तेरे जीना मरना। 
 
बाँधता स्पन्द तेरा
चिर-अखंड अपनापों से। 
तनहा रातों के तारों के 
प्रतिबिंबित प्रतिमापों से। 
 
सकपकाई सुबह अपनी
प्रेम की लिखती इबारत। 
देह के आँगन सरकती
प्यार की भीगी शरारत। 
 
झाँकता है रूप सूरज
प्रेम की किरणें बिखरती
याद में डूबा हुआ दिन
रात की तन्हाई अखरती। 
 
लिजलिजाते देह रिश्ते
प्रेम से हैं दूर बेहद। 
बियाबानी जंगलों सी
काँटों भरी रिश्तों की सरहद। 
 
आत्मा के अंतिम किनारे
प्रणय के कुहरे घने हैं। 
मौन की अभिव्यंजना में 
हम तुम गहरे सने हैं। 
 
एक सूरज जल उठा है
चाँदनी चर्चित है क्यों? 
रोशनी क्यों बिक रही? 
प्रेम अब वर्जित है क्यों? 
 
प्रेम की सतहों पर क्यों 
ढकी है यह देह तेरी। 
शब्द क्यों बुन रहें हैं 
क़त्ल की साज़िश यूँ मेरी। 
 
विरह का संगी ये मन 
अनस पीड़ा को समेटे। 
कोटि लहरों संग खेले 
यायावरी चादर लपेटे। 
 
प्रेम जब उपजता है मन में
गूँथता सम्पूर्ण सृष्टि। 
आप्त करता है सभी को 
वेदना-सी प्रखर दृष्टि। 
 
प्रेम स्वयं को बरख़ास्त करता है। 
ज़माने के दर्द की शनाख़्त करता है। 

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