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गाँधी सभी यक्ष प्रश्नों के उत्तर


(गाँधी जयंती पर एक कविता) 

 

गाँधी आज भी खड़े हैं
किसी सूनी सड़क के मोड़ पर, 
जहाँ झुग्गियाँ धुएँ से काली हैं, 
और बच्चे किताब की जगह
ईंटें ढो रहे हैं। 
 
वे चुपचाप देखते हैं
कि कितनी तेज़ रफ़्तार है विकास की, 
पर कितनी धीमी है न्याय की चाल। 
वे सुनते हैं
भाषणों के शोर, 
और उसके बीच दबे
किसानों की आहें। 
 
गाँधी फिर से चलते हैं
हमारी गलियों में, 
जहाँ कचरे के ढेर हैं, 
नालियों में बहती गंदगी है
और लोग कहते हैं
स्वच्छ भारत। 
 
गाँधी संसद की दहलीज़ पर खड़े होकर
आज के नेताओं से कहते
राजनीति सेवा है, 
इसे सौदेबाज़ी मत बनाओ। 
पार्टी से पहले देश को रखो। 
सत्ता का लोभ त्याग दो। 
 
वे अदालत के बाहर खड़े होकर कहते
सत्य की रक्षा करने वाले मंदिर
अब विलंब क्यों करते हैं? 
न्याय जितना तेज़ होगा
समाज उतना ही मज़बूत होगा। 
 
गाँधी किसानों के बीच जाते, 
और उनके हाथ पकड़कर कहते
हल का सम्मान करो, 
भूमि से ही राष्ट्र का भविष्य पनपता है। 
लाभ लालच से नहीं, 
परिश्रम से खोजो। 
 
गाँधी
सिर्फ़ तस्वीरों का कैनवस नहीं थे, 
न ही सिर्फ़ सिक्कों पर छपी परछाईं। 
वे थे
किसी बुनकर की हथकरघा धुन, 
किसी आश्रम का शांत चरखा, 
किसी सत्याग्रही का अडिग क़दम। 
 
आज
जब नफ़रत की आग
हर ओर धधकती है, 
वे पूछते हैं
क्या सत्य का पथ इतना कठिन हो गया
कि कोई उस पर चलना नहीं चाहता? 
 
गाँधी आज भी प्रासंगिक हैं, 
क्योंकि उनके विचार
हमारे हर संघर्ष का उत्तर रखते हैं। 
भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी, 
असमानता, प्रदूषण, 
सबके सामने वे खड़े होकर कहते
आत्मावलोकन करो, 
सत्य का मार्ग चुनो, 
स्वच्छ रहो, सादगी अपनाओ, 
दूसरों की सेवा करो। 
यही स्थायी उपाय है। 
 
गाँधी
भीड़ में खो नहीं सकते, 
क्योंकि उनका अकेलापन ही
उनकी पहचान है। 
वे आज भी
हर भूखे के निवाले में हैं, 
हर दबे स्वर के साहस में हैं, 
हर उस मुस्कान में हैं
जो विपरीत परिस्थितियों के बीच भी
जगमगाती है। 
 
गाँधी जयंती
केवल तिथि नहीं है, 
यह दर्पण है
जिसमें हमें देखना है
कि हमने कितना अपनाया
और कितना भुलाया। 
 
यदि हम सचमुच
उनके होने को समझना चाहें, 
तो झाँकना होगा
अपने ही भीतर
जहाँ एक अहिंसा अब भी सोई है, 
जहाँ एक सत्य अब भी प्यासा है। 
 
गाँधी वहीं मिलेंगे, 
जहाँ किसी की मदद बिना दिखावे के की जाएगी, 
जहाँ किसी को धर्म नहीं, 
मानव मानकर अपनाया जाएगा। 
 
गाँधी जयंती पर
प्रण यही हो
कि उन्हें पत्थर की मूर्तियों से निकालकर
जीवन की धड़कनों में बसाएँ। 
क्योंकि गाँधी कोई बीता हुआ नाम नहीं, 
वे प्रश्न हैं
और उत्तर भी। 
 
गाँधी जयंती पर
यह सिर्फ़ श्रद्धांजलि नहीं, 
बल्कि आत्मसंवाद है। 
क्योंकि गाँधी अब भी पूछते हैं
क्या तुम मुझे
फिर से जीवित करोगे
अपने आचरण में? 

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