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सृष्टि की अंतिम प्रार्थना

 

सुनो, 
प्रकृति के मध्य में चमकती हुई तुम, 
देह पर जड़ी भूमध्य रेखा, 
जैसे सृष्टि का मापदंड 
संतुलन की अंतिम सीमा, 
जहाँ उत्तर और दक्षिण
अपने अपने ताप में एकाकार होते हैं। 
 
तुम्हारे कटिबंध पर
सूर्य हर दिन नया यज्ञ करता है, 
घृत के स्थान पर उष्णता उड़ेलता, 
और तुम्हारे जल तत्त्व में
विरह की भाप बन उठती है। 
 
ग्रीष्म की लहराती साँसों में
तुम पिघलती हो 
मौन नदियों सी, 
जो अपने उद्गम को ढूँढ़ती हैं, 
पर मिलती नहीं। 
 
तुम्हारे पयोधर के शिखर
हिमालय के समान उठे हुए, 
और दृष्टि की धाराएँ
उनके तल तक पहुँचते ही
कंपित कर देती हैं हृदय के तार 
वहाँ से जन्म लेता है संगीत, 
रस की जलधारा, 
जो बहती चली जाती है
अनंत, असीम, अजस्र। 
 
कभी तुम्हारा दक्षिणायन होता है, 
शरीर शीत से भर उठता है, 
प्रकाश ओढ़ लेता है कृष्णवसन, 
और हवाएँ
घर्षण के ताप में दीक्षा लेती हैं। 
 
सृजन और अवसान 
दो छोर नहीं, 
एक ही वृत्त के दो चुम्बन हैं, 
जहाँ हर ऋतु
किसी न किसी भाव का प्रतीक बन जाती है। 
 
अब सुनो 
वर्ष का अर्धवृत्त पूरा हो चुका है। 
पृथ्वी ने अपना आधा प्रणाम दे दिया है, 
अब लौटो, देवी, 
धवल पक्ष की ओर। 
 
अब तुम्हारे ध्रुवों पर
हिम श्वेत हो, 
आँखों में उतर आए मृगनयनी गहराई, 
उदर सुतल का, 
वक्ष त्रिवेणी का, 
भाल उज्ज्वल हिमांशु का 
यह सब एक रचना है, 
तुम्हारे होने की साक्षी। 
 
भास्कर प्रतीक्षा में है, 
हर किरण तुम्हारे अंगों से संधि करने को तत्पर। 
वह जानता है 
प्रकाश को पूर्णता तुम्हारे प्रतिबिंब से ही मिलती है। 
 
तुम, 
स्वर्णिम कटिबंध वाली देवी, 
सृष्टि की मध्यरेखा नहीं, 
उसकी नाड़ी हो 
जहाँ से जीवन का संगीत बहता है, 
जहाँ से ऋतुओं का अर्थ बनता है। 
 
प्रसीद, देवी 
कि तुम्हारे आभामंडल में
अभी भी कोई कवि देखता है
प्रेम का प्रथम संकल्प, 
और सृष्टि की अंतिम प्रार्थना। 

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