अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी रेखाचित्र बच्चों के मुख से बड़ों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

बापू और शास्त्री–अमर प्रेरणा

 

दो अक्टूबर का सूरज
हमेशा ख़ास होकर उगता है, 
क्योंकि यही दिन हमें देता है
दो महामानवों की उजली धरोहर
एक ने सिखाया सत्य और अहिंसा, 
दूसरे ने जगाया मंत्र
जय जवान, जय किसान। 
 
बापू कहते हैं
सत्ता का मार्ग सेवा से गुज़रता है, 
स्वार्थ से नहीं। 
नफ़रत से केवल हिंसा जन्म लेती है, 
प्रेम ही शान्ति का आधार है। 
धर्म वह है
जो मनुष्य को मनुष्य से जोड़ दे। 
 
शास्त्री जी की आवाज़ गूँजती है
किसान का पसीना सूख गया
तो अन्न कहाँ से आएगा? 
जवान का हौसला टूटा
तो सीमा कैसे बचेगी? 
देश की ताक़त खेत और मोर्चे से ही
आती है। 
 
बापू की छवि
चरखे के साथ खड़ी है
हमें याद दिलाती है
सादगी ही सबसे बड़ा वैभव है, 
स्वावलंबन ही सबसे बड़ी आज़ादी है। 
 
शास्त्री जी का व्यक्तित्व
सादा कपड़ों में भी विराट था
उन्होंने दिखाया
कि ईमानदारी का क़द
किसी भी कुर्सी से ऊँचा होता है। 
 
आज जब
राजनीति में कटुता है, 
समाज में विभाजन है, 
प्रकृति पर संकट है, 
युवा भ्रमित हैं
तब यही दो स्वर
हमारे मार्गदर्शक बनते हैं। 
 
बापू कहते थे
स्वच्छता को पूजा बनाओ, 
सत्य को जीवन का आधार, 
और स्त्री-पुरुष को
समान अधिकार दो। 
 
शास्त्री जी कहते
आत्मनिर्भर बनो, 
अन्न का एक-एक दाना बचाओ, 
क्योंकि त्याग से ही
सच्चा विकास आता है। 
 
गाँधी और शास्त्री
दो शरीर नहीं, 
दो दीप हैं
जिनकी रोशनी हमें
आज भी दिशा देती है। 
 
दो अक्टूबर
सिर्फ़ कैलेंडर की तिथि नहीं, 
यह आत्मा का पर्व है। 
यह हमें याद दिलाता है
यदि हम ईमानदारी, 
सादगी, 
त्याग और सत्य को जी लें, 
तो बापू और शास्त्री
हमारे भीतर सदैव जीवित रहेंगे। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

कविता - हाइकु

सामाजिक आलेख

सांस्कृतिक आलेख

चिन्तन

लघुकथा

व्यक्ति चित्र

किशोर साहित्य कहानी

कहानी

कविता - क्षणिका

दोहे

सांस्कृतिक कथा

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

ललित निबन्ध

साहित्यिक आलेख

कविता-मुक्तक

गीत-नवगीत

स्वास्थ्य

स्मृति लेख

खण्डकाव्य

ऐतिहासिक

बाल साहित्य कविता

नाटक

रेखाचित्र

काम की बात

काव्य नाटक

यात्रा वृत्तांत

हाइबुन

पुस्तक समीक्षा

हास्य-व्यंग्य कविता

गीतिका

अनूदित कविता

किशोर साहित्य कविता

एकांकी

ग़ज़ल

बाल साहित्य लघुकथा

सिनेमा और साहित्य

किशोर साहित्य नाटक

विडियो

ऑडियो

उपलब्ध नहीं