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नारी सिर्फ़ देह नहीं है

 

मनुष्य के भीतर उठती
काम-वासना की तीखी लहर
कभी तट से टकराती है
कभी चेतना की गहराई में
अनाम हलचल बनकर उतर जाती है। 
 
यह वही शक्ति है
जिससे सृष्टि की पहली धड़कन जन्मी थी
पर अज्ञान की अँधेरी सुरंग में
यही शक्ति
विकृति का पथ भी बना देती है। 
 
जब मन
मूल तथ्यों से दूर होता है
तो वह गिरता है
उन धुँधले कूड़ों में
जहाँ आधा ज्ञान
पूरी आत्मा को घायल कर देता है। 
इसलिए आवश्यक है
काम को समझना
प्रकृति और पुरुष की उस
प्राचीन एकता को जानना
जहाँ अग्नि और सोम
एक ही देह में
शांतिपूर्वक साथ निवास करते हैं। 
 
नर के भीतर ऊर्जा का ज्वाल
नारी के भीतर शीतल रस
दोनों सोये हुए स्वरों की तरह
एक-दूसरे में अर्थपूर्ण हो जाते हैं। 
दोनों पूर्ण नहीं
परस्पर पूर्णता देने वाले हैं
अतः एक-दूसरे के शत्रु नहीं
एक ही राग के दो स्वर हैं
जो साथ गूँजें
तो जीवन संगीत बन जाता है। 
 
किन्तु इतिहास ने
एक भयानक भूल की
नारी को
देवी से वेश्या के बीच
किसी अँधेरे गर्त में फेंक दिया। 
कला ने
उसकी देह को केंद्र बनाया
उसकी आत्मा को पृष्ठभूमि। 
गीतों ने उसकी देह गायी
चित्रों ने उसके उभार रचे
नृत्य ने उसके भावों को
वासना की आग में झोंक दिया। 
 
धीरे-धीरे
समाज की आँख
नारी को मनुष्य नहीं
भोग की वस्तु की तरह देखने लगी
और नारी भी
अनजाने
उसी सज्जा में ढलती चली गई
जो किसी और ने उसके लिए गढ़ी थी। 
 
कौन समझाए
कि शरीर का आकर्षण
अधिकार नहीं होता
और साज-सज्जा
स्वयं को नीचा दिखाने का माध्यम नहीं
स्वतंत्रता का प्रतीक होना चाहिए। 
 
कौन याद दिलाए
कि नर भी तो
प्रलोभन के लिए
सजता-धजता नहीं
फिर नारी ही क्यों
लिप्सा के सांस्कृतिक जाल में फँसे? 
कब तक? 
किसके लिए? 
किस अधिकार से? 
 
एक दिन अवश्य आएगा
जब नारी
अपनी देह पर चढ़ाए गए
हर कृत्रिम आवरण को उतार फेंकेगी
और कहेगी
मैं देह मात्र नहीं, 
मैं विचार हूँ, 
मैं चेतना हूँ, 
मैं समान हूँ। 
 
उस दिन
कला का चेहरा भी बदलेगा
गीत देह नहीं, अस्तित्व गाएँगे
चित्र वासना नहीं, सौंदर्य का सत्य रचेंगे
और समाज
दो मनुष्यों को
दो बराबर ध्रुवों की तरह देखेगा। 
 
काम की अग्नि
जब जागरूकता की रोशनी में जलती है
तो विनाश नहीं
सृजन करती है। 
नर और नारी
जब अपने भीतर के दो तत्वों को पहचानते हैं
तो जीवन
अपूर्णता से पूर्णता की ओर
शांतिमय यात्रा बन जाता है। 
 
और तभी
मानव होकर
मानव बने रहने की
सच्ची शुरूआत होती है। 

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