अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी रेखाचित्र बच्चों के मुख से बड़ों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

पिता: एक अनकहा संवाद


(विश्व पितृ दिवस पर एक कविता)
  पिता 
कोई शब्द नहीं है,
न ही कोई सम्बन्ध भर।
वह तो एक अनदेखा प्रतिबिम्ब है
जिसे हम तभी पहचानते हैं
जब वह ओझल हो जाता है।
 
वह जन्म नहीं देता,
पर जीवन देता है।
वह कोख नहीं है,
पर कवच है।
स्नेह नहीं बरसाता,
पर छाँव सा ठहरता है
एक बरगद बनकर।
 
पिता होना 
कोई सहज उपलब्धि नहीं,
यह तो एक यात्रा है
जनक से पिता बनने की।
जहाँ कोई तालियाँ नहीं बजतीं,
कोई आरती नहीं सजती,
सिर्फ
प्रत्येक उत्तरदायित्व की परत में
एक मौन त्याग 
चुपचाप भरता जाता है।
 
वह उँगली थाम कर चलाता है
पर धीरे से छोड़ देता है
जब तुम्हें पंख मिलते हैं।
वह पीठ पीछे चलता है
ताकि तुम्हारा आत्मविश्वास
कभी लड़खड़ाए नहीं।
 
पिता वो है
जो आधी रात के आकाश में
जले हुए बल्ब सा
बदलता रहता है स्वयं को 
बिना शोर,
बिना प्रतिरोध।
 
जब तुम्हारे शब्द कम पड़ते हैं,
वह अपनी चुप्पी से
तुम्हारा मन समझ लेता है।
जब तुम टूटते हो,
वह अपने भीतर से
तुम्हारे लिए संबल उगाता है।
 
वह ग़ुस्से में दिखाई देता है,
कठोरता में चुभता है
पर भीतर
हर डाँट में छुपा होता है
एक अकथ प्रेम,
एक अव्यक्त सुरक्षा।
 
और विडंबना यह है 
कि माँ की ममता
तुरंत पहचान ली जाती है,
पर पिता का प्रेम
कभी घुल जाता है ज़िम्मेदारियों में,
कभी खो जाता है
रोज़गार की कड़वाहट में।
 
बहुत कम लोग जानते हैं 
पिता रोते हैं।
हाँ,
कभी अलमारी के पीछे,
कभी छत पर,
कभी तुम्हारे फ़ीस की रसीद के पीछे
सिसकियाँ दर्ज होती हैं
बिना आँसुओं के।
 
वह कभी थकते नहीं,
या थकने का हक़ नहीं माँगते।
वे रिटायर होते हैं दफ़्तरों से,
पर जीवन से नहीं।
 
पिता 
एक ऐसा अहसास है
जो प्रायः अनुपस्थित दिखता है,
पर उसका होना
हर सफलता, हर संघर्ष में
 गूँजता है 
कभी एक पुरानी घड़ी की टिक-टिक में,
कभी एक फोन कॉल 
के “कैसे हो बेटा?” में।
 
हर जनक पिता नहीं होता,
क्योंकि जनना सरल है,
पर निभाना कठिन।
पिता बनना 
अपने सपनों को
दूसरे के भविष्य के लिए गिरवी रख देना है।
 
आज इस पितृ दिवस पर,
मैं झुकता हूँ 
उन सभी चुप्पियों के सामने,
जिन्होंने एक जीवन को
संरक्षित किया।
उन आहों के सामने
जिन्होंने मेरी हँसी की क़ीमत चुकाई।
 
और अपने भीतर के उस अहसास को
पहचानता हूँ
जो सदैव साथ था 
कभी एक सलाह में,
कभी एक इन्कार में,
कभी बस चुपचाप
रात में लौटते उस क़दमों की आहट में।
 
पिता तुम कहीं नहीं थे,
फिर भी हर जगह थे।
आज मैं तुम्हें
अनुभूति से प्रणाम करता हूँ।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी

सामाजिक आलेख

दोहे

गीत-नवगीत

कविता

कविता - हाइकु

कविता-मुक्तक

कविता - क्षणिका

सांस्कृतिक आलेख

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

लघुकथा

स्वास्थ्य

स्मृति लेख

खण्डकाव्य

ऐतिहासिक

बाल साहित्य कविता

नाटक

साहित्यिक आलेख

रेखाचित्र

चिन्तन

काम की बात

काव्य नाटक

यात्रा वृत्तांत

हाइबुन

पुस्तक समीक्षा

हास्य-व्यंग्य कविता

गीतिका

अनूदित कविता

किशोर साहित्य कविता

एकांकी

ग़ज़ल

बाल साहित्य लघुकथा

व्यक्ति चित्र

सिनेमा और साहित्य

किशोर साहित्य नाटक

ललित निबन्ध

विडियो

ऑडियो

उपलब्ध नहीं