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वेदों में नारी की भूमिका

भारतीय संस्कृति एवं दर्शन सदैव ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ सिद्धान्त का अुनगामी है। भारत में सर्वदा नारी को अत्यन्त उच्च स्थान पर प्रतिष्ठित किया गया तथा उसे लक्ष्मी, देवी, साम्राज्ञी, महिषी आदि सम्मानसूचक नामों से अभिहित किया जाता था। वेदकाल में नारी को एक रत्न की संज्ञा दी जाती थी। अथर्व वेद में नारी के सम्मान को वर्णित करने वाला एक श्लोक दृष्टव्य है-

अनुव्रतः पितुः पुत्रो माता भवतु सम्मनाः।
जाया परये मतुमतीं वाचं यददु शान्तिवाम्॥1      

भारत में नारीवाद को पश्चिमी परिप्रेक्ष्य में देखा गया है, जबकि ज़रूरत उसे भारतीय परिप्रेक्ष्य में समझने की है। यद्यपि पितृसत्ता हर युग और काल में मौजूद रही है, पर भारत में यह अत्यधिक जटिल ताने-बाने के साथ उपस्थित है, जिसमें जाति, वर्ण, वर्ग और धर्म सभी सम्मिलित हैं। इसे 'ब्राह्मणवादी पितृसत्ता' का नाम दिया गया है। इसका यह अर्थ नहीं कि इसका निशाना कोई एक जाति है। वेद नारी को अत्यंत महत्वपूर्ण, गरिमामय, उच्च स्थान प्रदान करते हैं। वेदों में स्त्रियों की शिक्षा-दीक्षा, शील, गुण, कर्तव्य, अधिकार और सामाजिक भूमिका का जो सुन्दर वर्णन पाया जाता है, वैसा संसार के अन्य किसी धर्मग्रंथ में नहीं है। वेद उन्हें घर की सम्राज्ञी कहते हैं और देश की शासक, पृथ्वी की सम्राज्ञी तक बनने का अधिकार देते हैं।

वेदों में स्त्री यज्ञीय है अर्थात् यज्ञ समान पूजनीय। वेदों में नारी को ज्ञान देने वाली, सुख–समृद्धि लाने वाली, विशेष तेज वाली, देवी, विदुषी, सरस्वती, इन्द्राणी, उषा-जो सबको जगाती है इत्यादि अनेक आदर सूचक नाम दिए गए हैं। 

त्वं स्वाहा त्वं स्वधा त्वं हि वष्‌टकारः स्वरात्मिका।
सुधा त्वं अक्षरे नित्ये तृधा मात्रात्मिका स्थिता ॥७३॥

इस श्लोक के द्वारा ब्रह्मा जी देवी स्तुति आरंभ करते हैं। विद्वानों का मानना है कि वैदिक काल के आरंभ से पहले समाज मातृसत्तात्मक था जिसमें स्त्री श्रेष्ठ और उच्च भूमिका में थी। उस युग में स्त्रियों की शिक्षा-दीक्षा की सुंदर व्यवस्था थी। अध्ययन-अध्यापन, घर-परिवार तथा सभाओं में और संघर्षमय युद्धों आदि सभी जगह स्त्रियों का समान रुप से योगदान रहता था। नारी को सभी क्षेत्रों व दिशाओं में उन्नति एवं प्रगति करने की स्वतंत्रता थी, इसीलिए उस काल में नारी की प्रतिभा तथा ज्ञान अपूर्व और अद्भुत था। उस काल में नारी के अंदर विचारशक्ति व आत्मबल के साथ उसके व्यवहार में शालीनता, विनम्रता थी तथा प्रभावशाली व्यक्तित्व भी था। उस युग में स्त्रियाँ वैदिक और दर्शन आदि की शिक्षा के अतिरिक्त गणित, वैद्यक, संगीत, नृत्य और शिल्प आदि का भी अध्ययन करती थीं। क्षत्रिय स्त्रियाँ धनुर्वेद अर्थात् युद्धविद्या की भी शिक्षा ग्रहण करती थीं तथा युद्ध में भाग भी लेती थीं। ऋग्वेद के दशम मण्डल के 102वें सूक्त में राजा मुद्गल एवं मुद्गालानी की कथा वर्णित है और उसे युद्ध में विजय दिलाती है। इसी प्रकार ‘शशीयसी’[7] का तथा वृत्तासुर की माता ‘दनु’[8] का वर्णन है, जिसने युद्ध में भाग लिया और इंद्र के हाथों वीरगति को प्राप्त हुई। उच्च शिक्षा प्राप्त स्त्रियों में से कुछ आजन्म ब्रह्मचारिणी रहकर आध्यात्मिक उन्नति में लगी रहती थीं, इन्हें ब्रह्मवादिनी कहा जाता था। अन्य स्त्रियाँ गृहस्थ जीवन का संचालन करती थीं, किन्तु गृहस्थाश्रम में प्रवेश लेने से पूर्व वे ब्रह्मचारिणी रहकर अध्ययन कर चुकी होती थीं।12 ब्रह्मवादिनी स्त्रियाँ वेदाध्ययन करतीं, काव्य रचना करतीं तथा त्याग, तपस्या के द्वारा ऋषिभाव प्राप्त करके मंत्रों का साक्षात्कार भी कर लेती थीं। ऋग्वेद के अनेक सूक्त महिलाओं ने साक्षात्कृत किए हैं। उदाहरणार्थ -ऋग्वेद दशम मण्डल के 39, 40 वें सूक्त तपस्विनी ब्रह्मवादिनी घोषा के हैं और ऋग्वेद के 1.27.7 वे मंत्र की ऋषि रोमशा, 1.5.29 वें मंत्र की विश्वारा, 1.10.45 वें मंत्र की दृष्टा इन्द्राणी, 1.10.159 वें मंत्र की ऋषि अपाला थीं। अगस्त्य ऋषि की पत्नी लोपामुद्रा ने पति के साथ ही सूक्त का दर्शन किया था। सूर्या भी एक ऋषिका थीं। वेदों में नारी की स्थिति अत्यंत गौरवास्पद वर्णित हुई हैं।

वेद की नारी देवी हैं, विदुषी हैं, प्रकाश से परिपूर्ण हैं, वीरांगना हैं, वीरों की जननी हैं, आदर्श माता हैं, कर्तव्यनिष्ट धर्मपत्नी हैं, सद्गृहणी हैं, सम्राज्ञी हैं, संतान की प्रथम शिक्षिका हैं, अध्यापिका बनकर कन्याओं को सदाचार और ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा देनेवाली हैं, उपदेशिका बनकर सबको सन्मार्ग बतानेवाली हैं, मर्यादाओं का पालन करनेवाली हैं, जग में सत्य और प्रेम का प्रकाश फैलानेवाली हैं। यदि गुण-कर्मानुसार क्षत्रिया हैं,तो धनुर्विद्या में निष्णात होकर राष्ट्र रक्षा में भाग लेती हैं। यदि वैश्य के गुण कर्म हैं उच्चकोटि कृषि, पशुपालन, व्यापार आदि में योगदान देती हैं और शिल्पविद्या की भी उन्नति करती हैं।

वेदों की नारी पूज्य हैं, स्तुति योग्य हैं, रमणीय हैं, आह्वान-योग्य हैं, सुशील हैं, बहुश्रुत हैं, यशोमयी हैं। अनेक ऋषिकाएँ वेद मंत्रों की द्रष्टा हैं – अपाला, घोषा, सरस्वती, सर्पराज्ञी, सूर्या, सावित्री, अदिति-दाक्षायनी, लोपामुद्रा, विश्ववारा, आत्रेयी आदि। वैदिक कालीन स्त्री की विदुषिता होने का उदाहरण हमें उनके विद्धता भरे शास्त्रार्थ में दिखाई देता है। इसी प्रकार का उदाहरण बुहदारण्यक उपनिषद् में मिलता है। विदेह के राजा जनक के दरबार में याज्ञवल्क्य ऋषि से जहाँ अन्य ऋषिगण शास्त्रार्थ में पराजित हो रहे थे, वहीं सबसे तीक्ष्ण प्रश्न वाचक्रवी गार्गी (ऋषि वचक्रु की पुत्री होने के कारण) के तरफ़ से हुए यद्यपि में गार्गी ने भी याज्ञवल्क्य का लोहा माना। याज्ञवल्क्य को भी कहना पड़ा – “यह तो अतिप्रश्न है। गार्गी! यह उत्तर की सीमा है, अब इसके आगे प्रश्न नहीं हो सकता। अब तू प्रश्न न कर, नहीं तो तेरा मस्तक गिर जायेगा।” प्रस्तुत कथानक गार्गी की विद्वता एवं समाज में स्त्री की स्थिति को दर्शाता है। इस प्रकार का शास्त्रार्थ या दार्शनिक वार्तालाप केवल अविवाहित स्त्रियाँ ही नहीं करती थी बल्कि विवाहित स्त्रियाँ भी करती थी। ऋषि याज्ञवल्क्य की पत्नी मैत्रेयी जो स्वयं विदुषी थी। मैत्रेयी का मानव जीवन की दशा एवं भौतिक जीवन की सीमा पर बेहद सुन्दर एवं गुढ़ प्रकृति को प्रश्नों को लेकर जो दार्शनिक संवाद है वह न केवल प्राचीन भारत अपितु आधुनिक विश्व के संदर्भ में भी महत्वपूर्ण है।

आइए, वेदों में नारी के स्वरूप की झलक इन मंत्रों में देखें -

यजुर्वेद १७.४५
स्त्रियों की भी सेना हो। स्त्रियों को युद्ध में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करें।

यजुर्वेद १०.२६
शासकों की स्त्रियाँ अन्यों को राजनीति की शिक्षा दें। जैसे राजा, लोगों का न्याय करते हैं वैसे ही रानी भी न्याय करने वाली हों।

अथर्ववेद १४.१.६
माता-पिता अपनी कन्या को पति के घर जाते समय बुद्धिमत्ता और विद्याबल का उपहार दें। वे उसे ज्ञान का दहेज़ दें। जब कन्याएँ बाहरी उपकरणों को छोड़ कर, भीतरी विद्या बल से चैतन्य स्वभाव और पदार्थों को दिव्य दृष्टि से देखने वाली और आकाश और भूमि से सुवर्ण आदि प्राप्त करने – कराने वाली हो तब सुयोग्य पति से विवाह करे।

अथर्ववेद १४.१.२०
हे पत्नी ! हमें ज्ञान का उपदेश कर। वधू अपनी विद्वत्ता और शुभ गुणों से पति के घर में सब को प्रसन्न कर दे।

ऋग्वेद १०.८५.७
माता-पिता अपनी कन्या को पति के घर जाते समय बुद्धिमत्ता और विद्याबल उपहार में दें। माता-पिता को चाहिए कि वे अपनी कन्या को दहेज़ भी दें तो वह ज्ञान का दहेज़ हो।

ऋग्वेद ३.३१.१
पुत्रों की ही भाँति पुत्री भी अपने पिता की संपत्ति में समान रूप से उत्तराधिकारी है।

वैदिक कालीन प्रगतीशीलता के लिए बहुत हद तक वहाँ की उन्नतिशील शिक्षा व्यवस्था उत्तरदायी थी। प्राचीन शिक्षा का उद्देश्य-शिष्य का सर्वांगीण विकास, उसकी ज्ञान ज्योति को प्रबुद्ध करना, उसे प्रखर से प्रखर बनाना और उसके जीवन को सर्वथा सौभाग्यशाली बनाना था।

विद्या के साथ ही व्युत्पत्ति (सुमति, विवेक) का भी समन्वय हो, अतः कहा गया है कि सरस्वती के साथ धी (विवेक) हो। यहीं विवेक, तर्क ही आधुनिक सभ्यता का आधार बिन्दु है जो हमें वैदिक सभ्यता में परिलक्षित होता है। वेदों में कहा भी गया है- सा विद्या या विमुक्तये अर्थात् शिक्षा व्यक्ति को उदार बनाती है। संभवतः यहीं कारण था कि वैदिक काल में बाल विवाह, पर्दा प्रथा एवं सती प्रथा जैसी बुराइयाँ प्रचलित नहीं थीं। वे उत्सवों तथा यज्ञों में भाग लेती थीं। उन्हें पर्याप्त स्वतंत्रता प्राप्त थी। शिक्षा के महत्व को देखते हुए ही वेदों में स्त्री शिक्षा की पर्याप्त व्यवस्था दृष्टिगोचर होती है। वेदों में शिक्षा को आश्रम-व्यवस्था एवं सोलह संस्कारों के साथ जोड़ा गया है। औपचारिक शिक्षा उपनयन संस्कार के साथ प्रारंभ होती है और इसी के साथ ब्रह्मचर्य आश्रम भी प्रारंभ होता था। शिक्षा उपनयन संस्कार के साथ आरंभ होकर समावर्तन संस्कार के साथ समाप्त होती थी। उपनयन संस्कार (जनेऊ धारण) शिक्षारम्भ का प्रतीक था। इस संस्कार के बाद शिष्य और शिष्याएँ वेद और शास्त्रों का अध्ययन करते थे।

वैदिक और वैदिकोत्तर काल में स्त्रियों की जो ऊँची स्थिति थी, वह अधिक समय तक स्थिर न रह सकी। धर्मसूत्रों में बाल विवाह का निर्देश दिया गया, जिससे कि स्त्रियों की शिक्षा में बाधा पहुँची और उनकी शिक्षा मामूली स्तर पर आ गई। चूँकि उन्हें लिखने-पढ़ने के अवसर प्राप्त न थे, इस कारण वेदों का ज्ञान असम्भव हो गया। उनके लिए धार्मिक संस्कार में भाग लेने की मनाही हो गई। उनका प्रमुख कर्तव्य पति की आज्ञा पालन हो गया। विवाह स्त्रियों के लिए अनिवार्य कर दिया गया। विधवा विवाह पर निषेध जारी किया गया। बहुपत्नी-प्रथा का प्रचलन और बढ़ा। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि वैदिक युग की तुलना में उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति में गिरावट आनी प्रारम्भ हुई। स्मृति युग में स्त्रियों की स्थिति में और अन्तर आया। स्मृति युग में महिलाओं का सम्मान केवल माता के रूप में होता था, न कि पत्नी के रूप में। इस युग में विवाह की आयु घटाकर 12 या 13 वर्ष कर दी गई। विवाह की आयु घटने से शिक्षा न के बराबर हो गई। इस युग में स्त्रियों के समस्त अधिकारों में कमी आई। संस्कृति विकास के श्रेष्ठ काल वैदिक काल में महिलाओं की स्थिति सुखद रही। वैचारिक, पारिवारिक, धार्मिक स्वतंत्रता के इस दौर में महिलाओं का सम्मान और प्रतिष्ठा पुरुष से कम समाज में नहीं था। शिक्षा और आत्म विकास के मार्ग महिलाओं के लिए खुले थे। सामाजिक प्रतिबद्धता और वर्जनाएँ कठोर नहीं होने से आत्मतुष्टि और समग्र विकास के मार्ग पुरुषों के समान ही महिलाओं के लिए खुले थे। शिक्षा और ज्ञान के क्षेत्र में बराबर की सहभागिता से महिलाओं का पूर्ण विकास इस युग में हुआ। वे मातृत्व और पत्नित्व के लिए अपना सम्यक चिंतन रखती थी। मान्यताएँ और परम्पराएँ जटिल और कठोर न होने के कारण नारी विकास के मार्ग सुलभ और सहज थे। वैदिकोत्तर काल में सामाजिक व्यवस्था क्रमशः रूढ़िवादी होकर परम्परा निबंद्ध होती गयी। समाज में पुरुषवादी व्यवस्था का ज़ोर बढ़ता गया। फलतः महिलाओं के ऊपर बंधन धीरे-धीरे कठोरतम होते गये। जिसमें उनकी स्वतंत्र अस्तित्व तिरोहित होता गया। नारी व्यक्ति के स्थान पर वस्तु का रूप धारण करती गयी। वह पुरुष के अधिकार बोध का शिकार होते हुए उसकी अनुचरी के रूप में प्रयुक्त होने लगी। अर्थवादी समाज की रचना में नारी का स्थान दोयम होने लगा। पुरुष परमेश्वर और नारी उसकी सेविका के रूप में पुरुषवादी समाज में स्वीकृत होने लगी। जिससे नारी के स्वतंत्र अस्तित्व में भरपूर कुठाराघात हुआ।

सन्दर्भ -

  1. वी. डी. शुक्ल: पूर्व मध्यकालीन संस्कृति और जीवन।
  2. वासुदेवशरण अग्रवाल: भारतीय संस्कृति।
  3. ऋग्वेद।
  4. डाॅ. एस कपूर: भारत में पुनर्जागरण।
  5. कालीशंकर भटनागर: भारतीय संस्कृति का इतिहास।

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