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हर बार लिखूँगा

(जन कवि की क़लम से )
चौपाई छंद  

 

जन जन की जो आवाज़ें हैं,
एक नहीं सौ बार लिखूँगा।
नहीं डरूँगा नहीं बिकूँगा,
मैं ये सब हर बार लिखूँगा।
शब्द शलाका कहती मुझ से,
सरोकार जन जन के लिखना।
खा लेना दो सूखी रोटी,
ज़िंदा हो तो ज़िंदा दिखना।
 
बेगारी की बात लिखूँगा,
मक्कारी की घात लिखूँगा।
रगड़ एड़ियाँ जो ज़िंदा है,
भूख भरी वो रात लिखूँगा।
फटी टाट पट्टी पर बैठे,
लाखों बच्चे भूखे प्यासे।
अँग्रेज़ी में पलते बढ़ते,
उनके प्यारे नए नवासे।
 
पक्ष गर्व से बड़बोला है,
और विपक्ष खड़ा है अंधा।
आम आदमी गूँगा बहरा,
ख़ूब चले वोटों का धंधा।
रेता सोने जैसी बिकती
रोती हैं नदियाँ बेचारी।
काटे जंगल नगर बनाए
गाँवों में पसरी बेगारी।
 
शिक्षा का व्यापार खुला है,
पढ़े लिखे सड़कों पर घूमें।
बिकें डिग्रियाँ रस्ते-रस्ते,
युवा नशे में डगमग झूमें।
भाषा का व्यवहार लिखूँगा,
समता का आधार लिखूँगा।
मेरी क़लम लिखेगी जब भी,
शिक्षा का व्यापार लिखूँगा।
 
है विकास के पथ पर भारत,
पर पहाड़ सी मुश्किल भारी।
जनसंख्या विस्फोट हो रहा,
डेढ़ अरब की संख्या सारी।
अपनों से अपने ही भागें,
कोरोना ने रिश्ते लूटे।
लाशें लावारिस हो चीख़ें
संवेदन के धागे टूटे।  
 
बढ़ा दिखावा है समाज में,
मानव मन अशांत है भारी।
पर्यावरण मिटा कर मानव,
करे चाँद पर यान सवारी।
आज अकेला हुआ आदमी,
सूख रहे हैं रिश्ते नाते।
सत्य आज खूँटी पर लटका,
हँसते हम झूठों को गाते।
 
हँसते मुँह पर काले मन हैं,
बिखरे बिखरे सारे तन हैं।
अहंकार के भवन सुनहरे,
स्वार्थ भरे सारे आसन हैं।
पर्वत जैसी पीर खड़ी है,
दर्द भरे हैं सारे मुखड़े।
कल तक जो सुख के सागर थे,
सुना रहे हैं अपने दुखड़े।
 
कल तक जो अपने लगते थे,
दूर खड़े वो मुस्काते हैं।
रिश्तों की बंजर ज़मीन से,
कुछ काँटे पग छिद जाते हैं।
सीमा पर है ख़तरा भारी ,
पाकी चीनी घात लगाएँ।
अफ़ग़ानी मिट्टी से हमको
तालिबानी भी धमकाएँ।
 
कितने कब तक ज़ुल्म करोगे,
फाँसी दे दो चाहे मारो।
गोली सीने में तुम भर दो,
सरे मौत के घाट उतारो।
लिखने से पहले जो सोचे ,
रिरयाता मैं कवि नहीं हूँ।
फूँक मारने पर बुझ जाए ,
मैं काग़ज़ का रवि नहीं हूँ।
 
हँसी चुटकुले शृंगारों पर ,
मेरी क़लम नहीं चलती है।
देश प्रेम जन जन की बातें ,
शब्द शलाका मन जलती है।
सच्चाई में रोज़ लिखूँगा ,
धमकाओ मत नहीं डरूँगा
मैं शब्दों का साधक सीधा ,
तिल तिल कर मैं नहीं मरूँगा।

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