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गंगा अवतरण

 

आकाश थरथरा उठा, 
धरती ने कराहकर आँखें मूँद लीं, 
जब स्वर्ग से उतरने लगी
वह प्रचंड धारा
गंगा। 
 
उसका वेग
वज्र के प्रहार जैसा, 
उसकी गर्जना
मानो समस्त लोकों का विलाप। 
देव भयभीत, 
ऋषि मौन, 
और मनुष्य प्रतीक्षा में
क्योंकि आशा भी वही थी, 
और संकट भी वही। 
 
गंगा ने सोचा
मैं उतरूँगी, 
तो यह धरती सह न पाएगी
मेरा भार, 
मेरा वेग। 
 
तब शिव खड़े हुए। 
उनकी जटाएँ
नदी की तरह फैलीं
घनी, गहन, 
जैसे अनंत का आलिंगन। 
उन्होंने मुस्कुराकर कहा
“आओ।” 
 
और गंगा उतर आई
उनकी जटाओं में। 
पहले प्रचंड वेग, 
फिर मौन धारा। 
पहले गर्जन, 
फिर एक मधुर कलरव। 
 
शिव ने अपने भीतर समेट लिया
वह उग्रता, 
वह अविराम प्रवाह
जैसे माता अपने शिशु को
गोद में लेकर
उसके रोदन को गीत में बदल देती है। 
 
धरती ने चैन की साँस ली, 
नदियाँ गुनगुनाईं, 
और जीवन बहने लगा
हर दिशा में। 
 
गंगा अब शिव के मस्तक से झरती थी, 
और लोग उसे देखते हुए
महसूस करते थे
कि कोई है
जो उग्रता को भी
शांत कर सकता है, 
जो विनाश को भी
करुणा में बदल देता है। 
 
शिव की जटाएँ
यह केवल केश नहीं, 
यह संसार की मर्यादा हैं। 
उनमें छिपा है संदेश
कि शक्ति चाहे कितनी भी प्रबल हो, 
जब तक उसे संयम का आलिंगन न मिले, 
वह विनाश है, 
सृजन नहीं। 
 
गंगा
भक्ति की धारा, 
और शिव
संयम का सागर। 
दोनों का संगम
ही जीवन है। 
 
शिव ने कभी नहीं कहा
मैंने पृथ्वी को बचाया। 
उन्होंने बस मुस्कुराकर
ध्यान लगाया। 
जैसे यह कर्त्तव्य नहीं, 
स्वभाव हो। 
 
आज भी, 
जब कोई गंगा में स्नान करता है, 
तो वह केवल जल को नहीं छूता, 
वह उस करुणा को छूता है
जिसने संसार को थामा था। 
 
शिव की जटाओं में बसी गंगा 
संयम का पाठ, 
करुणा का प्रवाह, 
और सृजन का अमर संगीत है। 

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