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कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - बुझ गया रंग

कुण्डलिया छंद

1.
मुखड़े क्यों ग़मगीन है, बुझा हुआ है रंग। 
जीवन पथ चलते हुए, टूटी हुई उमंग। 
टूटी हुई उमंग, अरे मत हिम्मत हारो।   
सुख-दुख जीवन योग, प्रेम से इनको धारो। 
हँसते रहो सुशील, छोड़ कर सारे लफड़े। 
छोड़ो मन का शोक, रखो मुस्काते मुखड़े। 
2. 
जीवन तो जीना पड़े,  सुख-दुख लेकर साथ 
या तो हँस हँस के जियो, या फिर पकड़ो माथ। 
या फिर पकड़ो माथ, बुझा क्यों रंग तुम्हारा। 
ये जीवन सौग़ात, जीत लो जग ये सारा। 
छोड़ो व्यर्थ विवाद, प्रेम का रोपो मधुवन। 
मिला हो अंतिम बार, जियो कुछ ऐसे जीवन। 

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