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देह की देहरी और प्राण का मौन

 

कितना विचित्र है यह संसार, 
जहाँ देह की आभा पर दीप जलते हैं, 
पर आत्मा की शरण में
कोई दीपक नहीं टिमटिमाता। 
 
आँखें देखती हैं रूप, 
चाहती हैं वक्ष, 
गिनती हैं कटि की रेखाएँ; 
पर कोई नहीं देख पाता
उस नील व्योम को
जो स्त्री के भीतर फैला है। 
 
भावनाएँ 
जो जन्म से ही
सिंदूरी स्वप्न का आँचल ओढ़े थीं, 
अब भी कुँवारी हैं, 
क्योंकि उन्हें वरने वाला
कोई पाणिग्राहक नहीं मिला। 
 
कामनाएँ तो
सदा पुरस्कार पाती रहीं
जैसे पाप ही
इस युग का सत्य हो। 
प्रार्थनाएँ सूनी रह गईं, 
वेदी पर बिखरे फूलों की तरह, 
जिन्हें किसी ने उठाकर
ईश्वर को अर्पित न किया। 
 
प्रेम का अब स्वरूप बदल चुका है
वह चौसर का खेल है। 
जहाँ द्रौपदी की देह
दाँव पर लगाई जाती है, 
और शकुनि की चतुराई
हर बार जीत जाती है। 
पाण्डवों की नैतिकता, 
उनका धर्म और पुण्य
युद्धभूमि में नहीं, 
मनुष्यता के हृदय में हार जाते हैं। 
 
हज़ारों साथी हैं
वासना की पथरीली राह पर; 
पर भावों के पथ पर
एक भी साधक नहीं। 
आत्मा की पुकार
किसी कान तक नहीं पहुँचती, 
देह की देहरी पर
हज़ारों आरती गूँजती हैं। 
 
यह कैसी विडंबना है
जहाँ दशाननों की कामना
चहुँ ओर खड़ी है, 
पर हृदय की सीता
हर युग में अपहरण से भयभीत। 
त्याग की उर्मिला
अब भी प्रतीक्षा करती है
अपने लक्ष्मण की, 
जो शायद कभी लौटे ही नहीं। 
 
स्त्री का मन
अब भी चिर प्रतीक्षारत है
सिंदूर से नहीं, 
सम्मान से सजने को। 
देह के नहीं, 
प्राण के सेवक की बाट देखने को। 
 
पर यह युग
अब भी मौन है, 
मानो आत्मा का कोई मूल्य न हो, 
मानो प्रेम का कोई शास्त्र न हो, 
मानो भावनाओं का
कोई उत्तराधिकारी ही न हो। 

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