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नीलकंठ

 

(शिव के विषपान प्रसंग पर-सुशील शर्मा) 
 
वह क्षण
जब देव भी भयभीत थे, 
और असुर भी मौन। 
समुद्र मंथन की गर्जना
मानवता के रोमकंप के समान
हर दिशा में फैल रही थी। 
 
दाह था, 
ध्वंस था, 
विष की ज्वाला में जलता था ब्रह्मांड। 
वह हलाहल
जिसका स्पर्श ही मृत्यु था
उसे देखकर
इंद्र पीछे हटे, 
विष्णु ने मौन ओढ़ लिया, 
और ब्रह्मा ने आँखें मूँद लीं। 
 
तब वह उठे
शिव। 
ना उत्सव की मुद्रा में, 
ना चमत्कारी अर्घ्य के साथ, 
बल्कि
एक सरल संन्यासी की भाँति
जिसके नेत्रों में समर्पण था, 
और मुख पर एक निर्विकार तटस्थता। 
 
क्योंकि
उन्हें न सिंहासन चाहिए था, 
न स्तुति, न विजय। 
उन्हें चाहिए थी
सृष्टि की शान्ति। 
उनके लिए
सभी जीव बराबर थे
देव, दानव, जीव, वनस्पति। 
 
उन्होंने उठाया वह विष, 
उस हलाहल को
जो सबकुछ भस्म कर सकता था। 
न वह झिझके, 
न किसी से पूछने रुके। 
बस
अपने भीतर समा लिया
काल का वह विद्रूप स्वरूप। 
 
गला नीला पड़ गया
नीलकंठ कहलाए। 
पर विष गले में ही अटका रहा, 
न उसने हृदय को छुआ, 
न मस्तिष्क को
क्योंकि शिव जानते थे
विष को कहाँ रोकना है। 
 
वे पी गए वह
जिसे कोई छू भी न सका
और फिर भी
उनकी आँखों में
दया की वही उज्ज्वल चमक थी। 
कंठ नीला था, 
पर हृदय वैसा ही निर्मल। 
 
नीलकंठ
एक प्रतीक है, 
उस त्याग का
जो बिना किसी अपेक्षा के किया जाता है। 
वह संकल्प
जो किसी मंच से नहीं बोला जाता, 
बल्कि
मौन में निभाया जाता है। 
 
वे देवों के देव नहीं इसलिए बने
क्योंकि वे पूजे गए, 
बल्कि इसलिए
क्योंकि उन्होंने वह उठाया
जिसे सबने छोड़ा। 
 
शिव
वह चेतना हैं
जो कहती है
कि जब सब डर जाएँ, 
तब कोई होना चाहिए
जो डर को पी जाए, 
और फिर भी मुस्कुराए। 
 
उन्होंने कहा नहीं
कि उन्होंने संसार को बचाया, 
उन्होंने प्रचार नहीं किया
कि वे नायक हैं
उन्होंने बस
अपना काम किया, 
और ध्यान में बैठ गए
जैसे कुछ हुआ ही न हो। 
 
नीलकंठ शिव 
वह मौन महानता हैं। 
जो दिखती नहीं, पर धारण करती है। 
जो जलती है, पर ताप नहीं देती। 
जो पी जाती है, 
ताकि बाक़ी सब जी सकें। 

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