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तंत्रोक्त रात्रि सूक्त

काव्यानुवाद -डॉ. सुशील कुमार शर्मा

 

ॐ विश्‍वेश्‍वरीं जगद्धात्रीं स्थितिसंहारकारिणीम्। निद्रां भगवतीं विष्णोरतुलां तेजसः प्रभुः॥1॥
ब्रह्मोवाच।
(जो इस विश्व की अधीश्वरी, जगत् को धारण करनेवाली, संसार का पालन और संहार करनेवाली तथा तेजःस्वरूप भगवान् विष्णु की अनुपम शक्ति हैं, उन्हीं भगवती निद्रादेवी की भगवान् ब्रह्मा स्तुति करने लगे॥ १॥)
जग धारण जगदीश्वरी,  पालन अरु संहार।
विष्णुरूपणी तेजमय, आप जगत आधार।

त्वं स्वाहा त्वं स्वधा त्वं हि वषट्कारः स्वरात्मिका। सुधा त्वमक्षरे नित्ये त्रिधा मात्रात्मिका स्थिता॥2
ब्रह्माजी ने कहा – देवि! तुम ही स्वाहा, तुम ही स्वधा और तुम ही वषट्कार हो। स्वर भी तुम्हारे ही स्वरूप हैं। तुम ही जीवनदायिनी सुधा हो।
हाथ जोड़ ब्रह्मा खड़े, करते सद्य प्रणम्य।
स्वाहा स्वधा स्वरूप तुम, वषट्कार स्वर सम्य।

अर्धमात्रास्थिता नित्या यानुच्चार्या विशेषतः। त्वमेव सन्ध्या सावित्री त्वं देवि जननी परा॥3॥
नित्य अक्षर प्रणव में अकार, उकार, मकार – इन तीन मात्राओं के अतिरिक्त जो बिन्दुरूपा नित्य अर्धमात्रा है, जिसका विशेषरूप से उच्चारण नहीं किया जा सकता, वह भी तुम ही हो। देवि! तुम ही संध्या,सावित्री तथा परम जननी हो॥
अक्षर प्रणव अकार तुम,सुधा उकार मकार।  
बिंदु रूप जननी परम, सांध्य शारदा सार।

त्वयैतद्धार्यते विश्‍वं त्वयैतत्सृज्यते जगत्। त्वयैतत्पाल्यते देवि त्वमत्स्यन्ते च सर्वदा॥4॥
देवि! तुम ही इस विश्व-ब्रह्माण्ड को धारण करती हो। तुम से ही इस जगत् की सृष्टि होती है। तुम ही से इसका पालन होता है और सदा तुम ही कल्प के अन्त में सबको अपना ग्रास बना लेती हो॥ ४॥
तुम पालक ब्रह्माण्ड हो, जगत सृष्टि की आस।  
सदा कल्प के अंत में, सब तेरे हैं ग्रास।  

विसृष्टौ सृष्टिरूपा त्वं स्थितिरूपा च पालने। तथा संहृतिरूपान्ते जगतोऽस्य जगन्मये॥5॥
जगन्मयी देवि! इस जगत् की उत्पत्ति के समय तुम सृष्टिरूपा हो, पालन काल में स्थितिरूपा हो तथा कल्पान्त के समय संहाररूप धारण करनेवाली हो॥ ५॥
सृष्टिरूप जग जन्म हो, देवी सद्य प्रशांत।  
स्थितिरूप पालक बनो, मृत्युरूप कल्पांत।

महाविद्या महामाया महामेधा महास्मृतिः। महामोहा च भवती महादेवी महासुरी॥6॥
तुम ही महाविद्या, महामाया, महामेधा, महास्मृति, महामोहरूपा, महादेवी और महासुरी हो॥ ६॥
माया मेधा स्मृतिमयी, विद्या मोह स्वरूप।
महासुरी देवी परम, सत-चित नित चिद्रूप।

प्रकृतिस्त्वं च सर्वस्य गुणत्रयविभाविनी। कालरात्रिर्महारात्रिर्मोहरात्रिश्‍च दारुणा॥7॥
तुम ही तीनों गुणों को उत्पन्न करनेवाली सबकी प्रकृति हो। भयंकर कालरात्रि, महारात्रि और मोहरात्रि भी तुम ही हो॥ ७॥
सत तम रज तुमसे बने, तुम हो प्रकृति विभोर।
काल मोह भय रात्रि तुम, महाभयंकर घोर।

त्वं श्रीस्त्वमीश्‍वरी त्वं ह्रीस्त्वं बुद्धिर्बोधलक्षणा। लज्जा पुष्टिस्तथा तुष्टिस्त्वं शान्तिः क्षान्तिरेव च॥8॥
तुम ही श्री, तुम ही ईश्वरी, तुम ही ह्री और तुम ही बोधस्वरूपा बुद्धि हो। लज्जा, पुष्टि, तुष्टि, शान्ति और क्षमा भी तुम ही हो॥ ८॥
श्री तुम ह्रीं तुम बोध तुम, लज्जा शांति तुष्टि।
तुम्ही ईश्वरी शक्ति हो, लज्जा क्षमा सपुष्टि।

खड्गिनी शूलिनी घोरा गदिनी चक्रिणी तथा। शङ्खिनी चापिनी बाणभुशुण्डीपरिघायुधा॥9॥
तुम खड्गधारिणी, शूलधारिणी, घोररूपा तथा गदा, चक्र, शंख और धनुष धारण करनेवाली हो बाण, भुशुण्डी और परिघ – ये भी तुम्हारे अस्त्र हैं॥ ९॥
खड्ग शूल धारण करो, गदा चक्र कर शस्त्र।
शंख भुशुण्डी परिघ शर, धनुष घोर हैं अस्त्र।


सौम्या सौम्यतराशेषसौम्येभ्यस्त्वतिसुन्दरी। परापराणां परमा त्वमेव परमेश्‍वरी॥10॥
तुम सौम्य और सौम्यतर हो – इतना ही नहीं, जितने भी सौम्य एवं सुन्दर पदार्थ हैं, उन सबकी अपेक्षा तुम अत्यधिक सुन्दरी हो। पर और अपर – सबसे परे रहनेवाली परमेश्वरी तुम ही हो॥ १०॥
सबसे सुंदर सौम्यतम, बोधगम्य जग सार।
पर अपरा सबसे परे, तुम हो परम विचार।

यच्च किञ्चित् क्वचिद्वस्तु सदसद्वाखिलात्मिके। तस्य सर्वस्य या शक्तिः सा त्वं किं स्तूयसे तदा॥11॥
सर्वस्वरूपे देवि! कहीं भी सत्-असत् रूप जो कुछ वस्तुएँ हैं और उन सबकी जो शक्ति है, वह तुम ही हो। ऐसी अवस्था में तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है ?॥ ११॥
सत्य -असत आधार तुम, सर्वरूपणी शक्ति।
कैसे अर्चन हम करें, दो माँ निर्मल भक्ति।

यया त्वया जगत्स्रष्टा जगत्पात्यत्ति यो जगत्। सोऽपि निद्रावशं नीतः कस्त्वां स्तोतुमिहेश्‍वरः॥12॥
जो इस जगत् की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं, उन भगवान् को भी जब तुम ने निद्रा के अधीन कर दिया है, तब तुम्हारी स्तुति करने में यहां कौन समर्थ हो सकता है ?॥ १२॥
जगत-नियंता को किया, निद्रा के आधीन।
माता आप समर्थ हैं, हम सब हैं बलहीन।

विष्णुः शरीरग्रहणमहमीशान एव च। कारितास्ते यतोऽतस्त्वां कः स्तोतुं शक्तिमान् भवेत्॥13॥
मुझको, भगवान् शंकर को तथा भगवान् विष्णु को भी तुमने ही शरीर धारण कराया है; अतः तुम्हारी स्तुति करने की शक्ति किसमें है ?॥ १३॥
तुमसे ही उपजे सभी, ब्रह्मा विष्णु महेश।
जप अर्चन अनभिज्ञ हम, आप सत्य सन्देश।

सा त्वमित्थं प्रभावैः स्वैरुदारैर्देवि संस्तुता। मोहयैतौ दुराधर्षावसुरौ मधुकैटभौ॥14॥
देवि! तुम तो अपने इन उदार प्रभावों से ही प्रशंसित हो। ये जो दोनों दुर्धर्ष असुर मधु और कैटभ हैं, इनको मोह में डाल दो।। १४
आप प्रशंसित स्वस्तिमय, आप हैं अति उदार।
मधु-कैटभ हों मोहवश, हो समाप्त अतिचार।

प्रबोधं च जगत्स्वामी नीयतामच्युतो लघु। बोधश्‍च क्रियतामस्य हन्तुमेतौ महासुरौ॥15॥
और जगदीश्वर भगवान् विष्णु को शीघ्र ही जगा दो। साथ ही इनके भीतर इन दोनों महान् असुरों को मार डालने की बुद्धि उत्पन्न कर दो॥ १५॥॥
जगदीश्वर भगवान को, करदो निद्रा मुक्त।
मधु-कैटभ का नाश हो, करो बुद्धि संयुक्त।

जो देवि सब प्राणियों में निद्रारूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है॥
सचराचर में व्याप्त जो, ले निद्रा आकार।
उनके चरणों में नमन, मन कर बारम्बार।

 तन्त्रोक्त रात्रिसूक्त दुर्गार्पणम।

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