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मन का नाप

नवगीत

 

तुमको अपना सब कुछ समझा
पर तुम भी तो
निकले भैया
आस्तीन के साँप
 
विषधर चारों ओर घूमते
रहे फुसकते
और भभकते 
कभी नहीं डर लगता था। 
साथ तुम्हारा पाकर तन मन
भोर उजाले
तुम अपने हो
भ्रम ये पाले जगता था। 
 
साथ तुम्हारा हृदय हमारा
ये मन हर पल
करता रहता
सदा तुम्हारा जाप। 
 
जीवन की आपा धापी में
यह सुकून था
कठिन डगर में
पास हमारे खड़े रहोगे
नहीं उल्हाने दोगे हमको
जो माने थे
जो जाने थे
उन रिश्तों को हृदय कहोगे
 
पर तुम भी वैसे ही निकले
छिद्रान्वेषी
कुटिल हृदय के
मन में कितने पाप
 
थे शिकवे तो हमसे कहते
लड़ते भिड़ते
और तुनकते
अनबोले भी रह सकते थे
जब रिश्ता अपनापन का था
मन के झगड़े
मीठे कड़वे
अनुभव मन में सह सकते थे
 
पता नहीं था इतना खोटा
इतना छोटा
रखे हो अंतस
अपने मन का नाप। 

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