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माँ-ब्रह्मचारिणी – नवरात्र का द्वितीय स्वरूप

 

नवरात्र की द्वितीया
भोर की शीतल ओस में उतरती है
श्वेत वस्त्र धारण किए,
हाथों में जपमाला और कमंडल लिए,
वह ब्रह्मचारिणी कहलाती हैं।
 
उनका प्राकट्य है तप का,
संयम का,
अविचल साधना का।
सती का वही रूप,
जिसने हिमालय की कंदरा में
सहस्रों वर्ष की कठिन तपस्या की,
केवल शिव को पाने की
अनन्य आकांक्षा में।
 
धरती पर
जब चित्त विचलित होता है,
जब इच्छाएँ मन को भटकाती हैं,
तब स्मरण होती है ब्रह्मचारिणी
वह दीपक की तरह खड़ी होती हैं,
बुझने से इनकार करती हुई।
 
उनके चरणों से
जग में तप की गंगा बहती है,
भक्त को स्मरण दिलाती है
कि शक्ति का दूसरा स्वरूप
त्याग में निहित है,
संयम में छिपा है,
नियमों की शुचिता में पलता है।
 
आराधना में भक्त
माँ को पुष्प अर्पित करते हैं,
श्वेत या गुलाबी,
क्योंकि पवित्रता और प्रेम
दोनों उनके प्रिय हैं।
घी से बनी शक्करयुक्त सामग्री,
या शक्कर मिला हुआ भोग
उनके सम्मुख रखा जाता है।
 
भोग यहाँ
सिर्फ अन्न नहीं,
आत्मसंयम का प्रतीक है
मन की असंयमित वृत्तियों को
साधना की लौ में तपाकर
माँ के चरणों में अर्पित करना ही
सच्चा प्रसाद है।
 
उनकी उपासना से मिलती है
मन की शांति,
धैर्य की वृद्धि,
ज्ञान का आलोक।
भक्त के हृदय में जागता है विश्वास
कि कठिन मार्ग भी सरल हो सकता है
यदि संयम साथ हो।
 
ब्रह्मचारिणी की कृपा से
साधक को प्राप्त होता है
वैराग्य का प्रकाश,
जीवन की उलझनों में
सत्य को पहचानने की दृष्टि।
 
माँ कहती हैं
हे साधक,
तपस्या केवल कंदरा में बैठकर
कठोर उपवास करने का नाम नहीं,
बल्कि इच्छाओं पर नियंत्रण,
वासनाओं पर विजय,
और धैर्यपूर्वक
स्वप्नों को साधना ही तप है।
 
द्वितीय नवरात्र का यह दिवस
यही शिक्षा देता है
कि भक्ति केवल आराधना नहीं,
वह तप भी है,
संयम भी है,
और स्वयं को भीतर से
निर्मल बनाने का मार्ग भी है।
 
जब दीपक की लौ
अविचलित होकर जलती है,
जब जपमाला की मणियाँ
एक-एक करके
स्मरण को गहन करती हैं,
तब माँ ब्रह्मचारिणी
भक्त के भीतर प्रकट होती हैं।

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