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वट सावित्री व्रत: आस्था, आधुनिकता और लैंगिक समानता की कसौटी

 

भारतीय संस्कृति, पर्वों और परंपराओं का एक बहुरंगी ताना-बाना है। इनमें से कई परंपराएँ सदियों से चली आ रही हैं, जो आस्था, प्रेम और पारिवारिक मूल्यों का प्रतीक मानी जाती हैं। इन्हीं में से एक है वट सावित्री व्रत, जो ज्येष्ठ मास की अमावस्या या पूर्णिमा को मनाया जाता है। यह व्रत भारतीय पत्नियों द्वारा अपने पति की लंबी आयु, अच्छे स्वास्थ्य और सौभाग्य के लिए रखा जाता है। सावित्री और सत्यवान की पौराणिक कथा पर आधारित यह व्रत, आज भी लाखों सुहागिनों के लिए एक विशेष महत्त्व रखता है। 

हालाँकि, इक्कीसवीं सदी के बदलते सामाजिक परिदृश्य में, जब लैंगिक समानता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की बातें ज़ोर-शोर से हो रही हैं, तब इस व्रत की प्रासंगिकता और इसके मूल उद्देश्य पर कई प्रश्न उठने लगे हैं। क्या यह व्रत आज भी उतना ही प्रासंगिक है? क्या इसका एकतरफ़ा स्वरूप आधुनिक संबंधों में फ़िट बैठता है? और सबसे महत्त्वपूर्ण, “क्या पुरुष इस लायक़ है?” यह प्रश्न न केवल व्रत के मूल दर्शन को चुनौती देता है, बल्कि पति-पत्नी के संबंधों, उनकी ज़िम्मेदारियों और आपसी सम्मान को भी विचार के दायरे में लाता है। 

वट सावित्री व्रत: एक अवलोकन

वट सावित्री व्रत का आधार पौराणिक कथा है, जिसमें राजकुमारी सावित्री अपने पति सत्यवान के अल्पायु होने के बावजूद उनसे विवाह करती हैं। जब यमराज सत्यवान के प्राण हरने आते हैं, तो सावित्री अपने दृढ़ निश्चय, बुद्धि और पतिव्रत धर्म के बल पर यमराज से सत्यवान के प्राण वापस ले लेती हैं। इस कथा में सावित्री का अटूट प्रेम, अदम्य साहस, बुद्धिमत्ता और अपने पति के प्रति समर्पण सर्वोच्चता को प्राप्त करता है। वट वृक्ष (बरगद का पेड़) को इस व्रत में विशेष महत्त्व दिया जाता है, क्योंकि माना जाता है कि यमराज ने वट वृक्ष के नीचे ही सत्यवान के प्राणों को लौटाया था। वट वृक्ष अपनी लंबी आयु और घनापन के लिए भी जाना जाता है, जो पति की दीर्घायु का प्रतीक माना जाता है। 

व्रत के दौरान, महिलाएँ सूर्योदय से पूर्व उठकर स्नान करती हैं, नए वस्त्र पहनती हैं और सोलह शृंगार करती हैं। वे वट वृक्ष के पास जाकर उसकी परिक्रमा करती हैं, उसे कच्चा सूत लपेटती हैं, जल, फल, फूल, मिठाई और अक्षत चढ़ाती हैं। सावित्री-सत्यवान की कथा सुनी या सुनाई जाती है। दिन भर निर्जला या फलाहारी व्रत रखकर पति की लंबी आयु और सुखमय जीवन की कामना की जाती है। 

वर्तमान में वट सावित्री व्रत की प्रासंगिकता

आज के गतिशील और जागरूक समाज में वट सावित्री व्रत की प्रासंगिकता को कई कोणों से देखा जा सकता है:

सांस्कृतिक और पारंपरिक जुड़ाव:

यह व्रत भारतीय संस्कृति की गहरी जड़ों से जुड़ा हुआ है। यह पीढ़ियों से चली आ रही एक परंपरा है जो परिवार में मूल्यों और संस्कारों को बनाए रखने में मदद करती है। शहरीकरण और पश्चिमीकरण के दौर में, ये पर्व हमें अपनी विरासत से जोड़े रखते हैं। महिलाएँ इसे एक अवसर के रूप में देखती हैं, जहाँ वे अपने परिवार की महिलाओं के साथ समय बिताती हैं और सामूहिक रूप से अनुष्ठान करती हैं। 

प्रेम और समर्पण का प्रतीकात्मक प्रकटीकरण:

भले ही आधुनिक सम्बन्ध समानता और साझेदारी पर आधारित हों, वट सावित्री व्रत पति-पत्नी के बीच के प्रेम, देखभाल और एक-दूसरे के प्रति शुभकामनाओं का एक सुंदर प्रतीकात्मक तरीक़ा हो सकता है। यह एक ऐसा दिन है जब पत्नी अपने जीवन साथी के कल्याण के लिए विशेष रूप से प्रार्थना करती है, जो रिश्ते में भावनात्मक गहराई जोड़ता है। 

मानसिक शान्ति और व्यक्तिगत आस्था:

धार्मिक अनुष्ठान और विश्वास कई व्यक्तियों के लिए मानसिक शान्ति और आंतरिक शक्ति का स्रोत होते हैं। जो महिलाएँ इस व्रत को सच्ची श्रद्धा से करती हैं, उन्हें इससे संतोष और सकारात्मक ऊर्जा मिलती है। यह उनके लिए एक व्यक्तिगत अनुष्ठान हो सकता है जो उन्हें स्वयं को और अपने रिश्ते को मज़बूत करने का अनुभव कराता है। 

सामुदायिक और सामाजिक जुड़ाव:

कई क्षेत्रों में, वट सावित्री व्रत एक सामुदायिक पर्व का रूप ले लेता है। महिलाएँ एक साथ एकत्रित होती हैं, पूजा-पाठ करती हैं, कहानियाँ साझा करती हैं और एक-दूसरे के साथ समय बिताती हैं। यह महिलाओं के बीच सामाजिक मेलजोल और एकजुटता को बढ़ावा देता है। 

सम्बन्धों में प्रतिबद्धता का स्मरण:

यह व्रत अप्रत्यक्ष रूप से सम्बन्धों में त्याग, समर्पण, धैर्य और दीर्घकालिक प्रतिबद्धता के महत्त्व को याद दिलाता है। ये गुण किसी भी सफल और टिकाऊ रिश्ते के लिए अत्यंत आवश्यक होते हैं। 

“क्या पुरुष इस लायक़ है?”—एक संवेदनशील सामाजिक विमर्श

यह प्रश्न वट सावित्री व्रत की सबसे बड़ी आलोचनाओं में से एक है और आधुनिक समाज में लैंगिक समानता की बढ़ती माँग के साथ यह और भी मुखर हुआ है। यह सवाल कई आयामों से देखा जा सकता है:

लैंगिक समानता का प्रश्न:

आधुनिक समाज में, पति-पत्नी के सम्बन्धों को बराबरी और साझेदारी के रूप में देखा जाता है। दोनों जीवन के हर पहलू में बराबर के भागीदार होते हैं, चाहे वह घर का काम हो, बच्चों की परवरिश हो या आर्थिक ज़िम्मेदारी। ऐसे में, यह तर्क दिया जाता है कि क्या केवल एक ही पक्ष (पत्नी) दूसरे पक्ष (पति) की लंबी आयु के लिए व्रत रखे? यदि सम्बन्ध समानता पर आधारित है, तो पति को भी अपनी पत्नी के लिए उसी तरह की प्रतिबद्धता और कल्याण की भावना प्रदर्शित करनी चाहिए। कई पुरुष भी इस बात से सहमत हैं कि यह व्रत एकतरफ़ा नहीं होना चाहिए। 

‘लायक़’ होने की कसौटी:

‘लायक़’ होने का अर्थ केवल जैविक पुरुष होना नहीं है, बल्कि एक ज़िम्मेदार, संवेदनशील और सम्माननीय साथी होना है। क्या एक पुरुष अपनी पत्नी का सम्मान करता है? क्या वह उसकी भावनाओं को समझता है? क्या वह उसके सपनों और आकांक्षाओं में उसका समर्थन करता है? क्या वह घर और परिवार की ज़िम्मेदारियों में बराबरी का साथ देता है? क्या वह शारीरिक, मानसिक या भावनात्मक रूप से अपनी पत्नी को कोई कष्ट नहीं देता? यदि एक पुरुष इन कसौटियों पर खरा उतरता है, तो शायद वह इस समर्पण ‘लायक़’ है। यदि उसका आचरण विपरीत है, तो यह व्रत केवल एक खोखली रस्म बन कर रह जाती है, जहाँ पत्नी एक ऐसे व्यक्ति के लिए व्रत रखती है जो शायद उसके प्रति अपेक्षित सम्मान नहीं रखता। 

परंपरा बनाम प्रगति:

यह प्रश्न परंपरा और प्रगति के बीच के द्वंद्व को दर्शाता है। जहाँ एक ओर परम्पराएँ हमारी पहचान का हिस्सा हैं, वहीं दूसरी ओर समाज लगातार बदल रहा है और हमें अपनी परंपराओं को समकालीन मूल्यों के अनुरूप ढालना चाहिए। यदि व्रत के पीछे की भावना पति-पत्नी के बीच आपसी प्रेम और एक-दूसरे के प्रति शुभकामना है, तो इसे दोनों ओर से प्रकट किया जाना चाहिए। 

मानसिकता का परिवर्तन:

पुरुषार्थ का अर्थ केवल आर्थिक रूप से मज़बूत होना नहीं है, बल्कि एक नैतिक और भावनात्मक रूप से मज़बूत व्यक्ति होना भी है। एक ऐसा पुरुष जो अपनी पत्नी को सिर्फ़ एक सम्पत्ति या सेवक न समझे, बल्कि एक समान साथी और मित्र समझे, वही सही मायने में ‘लायक़’ है। पुरुष भी अपने संबंधों को मज़बूत करने के लिए अपनी पत्नियों के स्वास्थ्य और ख़ुशी के लिए प्रार्थना या प्रयास कर सकते हैं, जैसे कि उनके स्वास्थ्य का ध्यान रखना, भावनात्मक समर्थन देना या उनकी ज़िम्मेदारियों में हाथ बँटाना। 

भविष्य की राह: समावेशी दृष्टिकोण

वट सावित्री व्रत को आज के संदर्भ में प्रासंगिक बनाए रखने के लिए इसे एक समावेशी दृष्टिकोण से देखने की आवश्यकता है:

द्विपक्षीय भागीदारी:

यदि यह व्रत पति के लिए पत्नी के समर्पण का प्रतीक है, तो पतियों को भी अपनी पत्नियों के स्वास्थ्य, लंबी आयु और ख़ुशी के लिए सक्रिय रूप से योगदान देना चाहिए। यह केवल व्रत रखने से नहीं, बल्कि पूरे वर्ष उनके प्रति प्रेम, सम्मान और समर्थन प्रदर्शित करने से होगा। कुछ जोड़े अब प्रतीकात्मक रूप से एक-दूसरे के लिए समान प्रतिज्ञाएँ भी लेते हैं। 

समानता का संदेश: 

यह व्रत लैंगिक समानता के सिद्धांतों के विपरीत नहीं होना चाहिए। इसे एक ऐसे पर्व के रूप में देखा जाना चाहिए जहाँ दोनों साथी एक-दूसरे के कल्याण के लिए कामना करते हैं, भले ही पत्नी पारंपरिक रूप से व्रत रखती हो और पति भावनात्मक रूप से उसका समर्थन करता हो। 

नैतिक और मानवीय मूल्यों पर जोर:

व्रत का वास्तविक सार पति-पत्नी के बीच के गहरे बंधन, एक-दूसरे के प्रति सम्मान, विश्वास और अटूट प्रेम में निहित होना चाहिए, न कि केवल एक कर्मकांड में। यह व्रत हमें यह याद दिलाना चाहिए कि एक सफल वैवाहिक जीवन के लिए प्रेम, त्याग और आपसी सम्मान कितना महत्त्वपूर्ण है। 

स्वेच्छा का महत्व: 

किसी भी धार्मिक अनुष्ठान को ज़बरदस्ती या सामाजिक दबाव में नहीं किया जाना चाहिए। यदि एक महिला अपनी इच्छा और श्रद्धा से यह व्रत रखती है, तो उसका सम्मान किया जाना चाहिए। यदि वह नहीं रखती है, तो उस पर कोई दबाव नहीं डालना चाहिए। 

वट सावित्री व्रत, भारतीय संस्कृति का एक सुंदर हिस्सा है जो पति-पत्नी के बीच के गहरे रिश्ते का प्रतीक है। इसकी वर्तमान प्रासंगिकता इस बात पर निर्भर करती है कि हम इसे किस तरह देखते हैं और इसके मूल संदेश को कैसे ग्रहण करते हैं। यदि इसे केवल एक कर्मकांड के रूप में देखा जाता है, जहाँ एकतरफ़ा त्याग की अपेक्षा की जाती है, तो आधुनिक समाज में इसकी प्रासंगिकता कम हो सकती है। 

लेकिन, यदि इसे एक ऐसे पर्व के रूप में देखा जाए जहाँ प्रेम, समर्पण, सम्मान और एक-दूसरे के कल्याण की भावना केंद्र में हो और यह भावना केवल पत्नी की ओर से नहीं, बल्कि पति की ओर से भी हो तो यह व्रत आज भी हमारे संबंधों को मज़बूत करने और सांस्कृतिक विरासत को सहेजने का एक सार्थक माध्यम बन सकता है। ‘क्या पुरुष इस लायक़ है?’ का जवाब केवल पुरुषों के आचरण में नहीं, बल्कि पति और पत्नी दोनों के बीच की आपसी समझ, सम्मान और प्रेम में निहित है, जो किसी भी सफल रिश्ते की सच्ची कसौटी है। 
 

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