गोविन्द गीत— 003 तृतीय अध्याय
काव्य साहित्य | दोहे डॉ. सुशील कुमार शर्मा1 Mar 2022 (अंक: 200, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
दोहमय गीता
काव्यानुवाद: डॉ. सुशील कुमार शर्मा
अर्जुन उवाच
ज्ञान कर्म से श्रेष्ठ यदि, हे माधव गिरिराज।
क्यों मेरे हित मढ़ रहे, महा भयानक काज। 1
मन मेरा मोहित हुआ, सुन केशव के बैन।
निश्चित बात बताइये, जो मन पाए चैन। 2
श्री भगवानुवाच
निष्ठा द्वै में विहित हैं, योगी सब तू जान।
सांख्य योग में ज्ञान है, कर्मयोग में भान। 3
कर्मों को करता हुआ, मनुज रहे निष्कर्म।
कर्म बिना सिद्धि नहीं, यही सांख्य का मर्म। 4
हर पल हर क्षण कर्म ही, मनुज प्रकृति आसन्न।
परवश ही मानुस रहे, कर्ता कर्म प्रपन्न। 5
भीतर विषय बसा लिए, बाहर योगी भेष।
मिथ्याचारी वह पुरुष, हठधर्मी अवशेष। 6
इन्द्रिय को वश में रखे, अनासक्त हों कर्म।
श्रेष्ठ मनुज होता वही, पालित करता धर्म। 7
शास्त्रविहित कर्तव्य कर, कर्म सहित व्यवहार।
कर्म सदा ही श्रेष्ठ हैं, जीवन के आधार। 8
परहित कर्म ही यज्ञ है, यज्ञ कर्म अति श्रेष्ठ।
अन्य कर्म बँधन रहें, कर्म धर्म है नेष्ठ।
आसक्ति को छोड़ तू, हे अर्जुन रणधीर।
यज्ञ निमित्त कर्तव्य कर, मन में रख तू धीर। 9
कल्प आदि ब्रह्मा रचीं, यज्ञ, प्रजा सब संग।
यज्ञ भोग वृद्धि जनित, जीवन जनित उमंग। 10
यज्ञ ऊर्जा रूप है, देव मनुज उपकार।
यज्ञ परम कल्याण कर, देता वृद्धि अपार। 11
मनुज यज्ञ के कर्म से, करता देव प्रसन्न।
यज्ञ भोग पा देवता, वर देते आसन्न।
बिना यज्ञ के मनुज यदि, करता है सुख भोग।
मनुज नहीं वह चोर है, बने नरक का योग। 12
पापमुक्त वह पुरुष हो, ग्रहण करे हविष्यान्न।
पाप सदा देता हमें, बिना यज्ञ का अन्न। 13
अन्न से सब प्राणी बने, वृष्टि अन्न की मूल।
यज्ञ वृष्टि का स्त्रोत है, विहित कर्म अनकूल। 14
कर्म वेद का सार है, वेद ब्रह्म अविनाश।
यज्ञ प्रतिष्ठित ब्रह्म है, व्याप्त सकल आकाश। 15
परम्परा अनुसार जो, मानुष करे न कर्म।
सृष्टि चक्र नहीं पालता, जीता सदा अधर्म। 16
आत्म रमण करता पुरुष, आत्मा से हो तुष्ट।
कर्म बँध से मुक्त हो, रहे आत्म संतुष्ट। 17
रमण आत्मा में करे, कर्म अकर्म समान।
तजे स्वार्थ सम्बन्ध सब, श्रेष्ठ पुरुष पहचान। 18
बिना मोह कर्तव्य कर, हे नर पुंगव पद्म।
आसक्ति बिना कर्म से, मिल जाते हैं ब्रह्म। 19
जनक आदि सब ज्ञान जन, परम सिद्धि के पात्र।
आसक्ति से रहित सभी, कर्म अकर्म सुपात्र। 20
अनुगमनित होते सदा, श्रेष्ठ पुरुष के कर्म।
उचित आचरण ही सदा, महापुरुष का धर्म। 21
तीनों लोकों में नहीं, कुछ भी मुझे अप्राप्त।
फिर भी हरदम मैं रहूँ, सब कर्मों में व्याप्त। 22
हानि बहुत होगी सदा, अगर रहूँ न सचेत।
करें अनुसरण सब मुझे, सब मेरे अभिप्रेत। 23
यदि कर्म मैं न करूँ, सृष्टि बने विनाश।
संकरता बढ़ने लगे, प्रजा भृष्ट हो नाश। 24
अज्ञानी जन जिस तरह, कर्म करे आसक्त।
बिना मोह विद्वान भी, रहें कर्म में सिक्त। 25
बुद्धि कर्म हों ब्रह्ममय, रखे अटल विश्वास।
शास्त्रविहित सब कर्म कर, भ्रम को दे निर्वास। 26
कर्म प्रकृत गुण रूप है, गुडाकेश तू जान।
अहंकार लिपटा रहे, कर्तापन अभिमान। 27
माया के गुण कर्म को, परम तत्व से जान।
आत्म तत्व निर्लेप है, यही सत्य तू मान। 28
प्राकृत गुण मोहित मनुज, रहे कर्म आसक्त।
अज्ञानी जन सर्वदा, रहे मोह से सिक्त। 29
अन्तर्यामी ब्रह्म मैं, परमात्मा मैं शुद्ध।
कर सबकुछ अर्पित मुझे, अर्जुन तू कर युद्ध। 30
दोषदृष्टि से रहित जो, भजता श्रद्धायुक्त।
करता मेरा अनुसरण, रहे कर्म से मुक्त। 31
मुझ में दोष निकाल कर, हो जायें पथभृष्ट।
कर्मबँध आसक्त बन, हो जाते सब नष्ट। 32
प्रकृतिजन्य सारे मनुज, विवश करें सब कर्म।
ज्ञानी कर्म स्वकर्म कर, अज्ञानी हठधर्म। 33
राग द्वेष इन्द्रिय छिपे, करते मन आधान।
परवश इनके मत रहो, # ये सब विघ्न विधान। 34
धर्म सभी उत्तम मगर, श्रेष्ठ सदा निज धर्म।
मृत्युवरण निज धर्म में, अतिकल्याणक मर्म। 35
अर्जुनउवाच
स्वयं चाह कर भी मनुज, क्यों न रहे निष्पाप।
क्यों बलात फिर ये मनुज, करता रहता पाप। 36
श्रीभगवानुवाच
रजगुण काम ही क्रोध है, सब पापों का मूल।
सदा भोग की चाह में, ये बैरी प्रतिकूल। 37
धुआँ अग्नि को ढाँकता, दर्पण ढाँके धूल।
जेर गर्भ को ढाँकता, काम ज्ञान का शूल। 38
अग्नि यथा ये काम है, होता कभी न शांत।
मनुज ज्ञान को ढँक सदा, सब को करे अशांत। 39
इन्द्रिय मन अरु बुद्धि में, रहे काम का वास।
जीव को ये मोहित करे, ढके ज्ञान की रास। 40
इन्द्रिय को वश में रखो, काम है विघ्न विनाश।
हे अर्जुन इस काम को, करो समूल से नाश। 41
तन से अपरा इन्द्रियाँ, मन इन्द्रिय से पार।
मन से अपरा बुद्धि है, आत्म परा संसार। 42
बुद्धि परे यह आत्म है, श्रेष्ठ सूक्ष्म बलवान।
दुर्जय काम को जीत तू, यही आत्म का ज्ञान। 43
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्यायः॥
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