अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी रेखाचित्र बच्चों के मुख से बड़ों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

तुम—मेरी सबसे अनकही कविता


 
(प्रेम कविता) 
 
तुम
न कोई प्रसिद्धि, न कोई मंच, 
पर फिर भी
मेरे भीतर की सबसे पूर्ण कविता। 
तुम्हारी सादगी
किसी छंद की नहीं, 
एक अनुभूति की तरह
हर दिन मेरे भीतर उतरती रही। 
 
मैंने तुम्हें देखा
बिना किसी सजावट के, 
बिना किसी भूमिका के, 
बस एक मुस्कान में लिपटी
वो स्त्री जो
जैसे जीवन को समझती नहीं, 
बल्कि उसे जीती है। 
 
तुम्हारे चलने की धीमी गति में
मुझे अपना भविष्य दिखा—
जहाँ समय ठहर सकता है
अगर तुम साथ चलो। 
 
तुम कोई कवयित्री नहीं, 
लेकिन तुम्हारे मौन में
शब्दों से ज़्यादा अभिव्यक्तियाँ थीं। 
 
एक झिझकती दृष्टि, 
एक संकोच से झुकी पलकों में
प्रेम की भाषा थी
जिसे बस महसूस किया जा सकता था। 
 
मैं तुम्हें चाहता हूँ
तुम्हारे उसी रूप में
जहाँ तुम अपनी हो, 
दुनिया की नहीं। 
न किसी उपमा की ज़रूरत, 
न किसी विशेषण की—
तुम ही पूरी हो, 
मेरे लिए। 
 
क्या तुम मुझे
उस क्षण का अधिकार दोगी
जब प्रेम को कोई नाम न हो, 
सिर्फ़ एक मौन स्वीकृति हो—
कि “हाँ, मैं भी चाहती हूँ?” 
 
मैं नहीं चाहता
कोई उत्तर, कोई वचन—
सिर्फ़ तुम्हारी उपस्थिति
मेरे जीवन की सबसे सुंदर कविता है, 
जो अब तक लिखी नहीं गई, 
पर जिया जा रहा है—
हर दिन, 
तुम्हारे नाम से पहले और बाद में। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

कविता - हाइकु

कविता-मुक्तक

कविता - क्षणिका

सांस्कृतिक आलेख

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

लघुकथा

स्वास्थ्य

स्मृति लेख

खण्डकाव्य

सामाजिक आलेख

दोहे

ऐतिहासिक

बाल साहित्य कविता

नाटक

साहित्यिक आलेख

रेखाचित्र

चिन्तन

काम की बात

गीत-नवगीत

कहानी

काव्य नाटक

यात्रा वृत्तांत

हाइबुन

पुस्तक समीक्षा

हास्य-व्यंग्य कविता

गीतिका

अनूदित कविता

किशोर साहित्य कविता

एकांकी

ग़ज़ल

बाल साहित्य लघुकथा

व्यक्ति चित्र

सिनेमा और साहित्य

किशोर साहित्य नाटक

ललित निबन्ध

विडियो

ऑडियो

उपलब्ध नहीं