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अनुत्तरित प्रश्न

एक जंगल था, 
बहुत प्यारा था
सभी की आँख का तारा था। 
वक़्त की आँधी आई, 
चमचमाती सभ्यता थी। 
इस सभ्यता के हाथ में आरी थी। 
जो काटती गई जंगलों को
बनते गए, आलीशान मकान, 
चौखटें, दरवाज़े, दहेज़ के फर्नीचर। 
 
मिटते गए जंगल सिसकते रहे पेड़
और हम सब देते रहे भाषण
बन कर मुख्य अतिथि वनमहोत्सव में। 
हर आरी बन गई चौकीदार। 
जंगल के जागरूक क़ातिल
बन कर उसके मसीहा 
नोचते रहे गोश्त उसका। 
मनाते रहे जंगल में मंगल। 
औद्योगिक दावानल में जलते
आसपास के जंगल चीखते हैं। 
और हमारे बौने व्यक्तित्व
अनसुनी कर चीख को, 
मनाते हैं पर्यावरण दिवस। 
 
सिसकती नदी के सुलगते सवाल 
मौन कर देते हैं हमारे व्यक्तित्व को। 
पिछले साल कितने पौधे मरे? 
कितने पेड़ कट कर
आलीशान महलों में सज गए? 
हमारी नदी क्यों मर रही है? 
गौरैया क्यों नहीं चहकती मेरे आँगन में? 
इन सब अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर खोज रहा हूँ, 
और लिख रहा हूँ एक श्रद्धांजली कविता
अपने पर्यावरण के मरने पर। 

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