पुरुष सत्तात्मक समाज में स्त्री विमर्श
आलेख | साहित्यिक आलेख डॉ. सुशील कुमार शर्मा15 Mar 2021 (अंक: 177, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
(विश्व महिला दिवस पर विशेष आलेख)
हिंदी में विमर्श शब्द अँग्रेज़ी के ‘डिस्कोर्स’ का पर्याय है और ‘डिस्कोर्स’ लेटिन शब्द ‘Discursus (डिस्कर्सस) का, जिसका अर्थ है बहस, संवाद, वार्तालाप और विचारों का आदान-प्रदान।
किसी भी सभ्य समाज अथवा संस्कृति की अवस्था का सही आकलन उस समाज में स्त्रियों की स्थिति का आकलन कर के ज्ञात किया जा सकता है। विशेष रूप ये पुरुष सत्तात्मक समाज में स्त्रियों की स्थिति सदैव एक-सी नहीं रही। वैदिक युग में स्त्रियों को उच्च शिक्षा पाने का अधिकार था, वे याज्ञिक अनुष्ठानों में पुरुषों की भाँति सम्मिलित होती थीं। किन्तु स्मृति काल में स्त्रियों की स्थिति वैदिक युग की भाँति नहीं थी। पुत्री के रूप में तथा पत्नी के रूप में स्त्री समाज का अभिन्न भाग रही लेकिन विधवा स्त्री के प्रति समाज का दृष्टिकोण कालानुसार परिवर्तित होता गया।
जब महिलाओं ने अपनी सामाजिक भूमिका को लेकर सोचना-विचारना आरंभ किया, वहीं से स्त्री आंदोलन, स्त्री विमर्श और स्त्री अस्मिता जैसे संदर्भों पर बहस शुरू हुई।
नारीवाद की सर्वमान्य कोई परिभाषा देना मुश्किल काम है, यह सवाल है राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संस्थाओं के सोचने के तरीक़े और उन विचारों की अभिव्यक्ति का।
स्त्री-विमर्श रूढ़ हो चुकी मान्यताओं, परंपराओं के प्रति असंतोष व उससे मुक्ति का स्वर है। पितृसत्तात्मक समाज के दोहरे नैतिक मापदंडों, मूल्यों व अंतर्विरोधों को समझने व पहचाने की गहरी अंतर्दृष्टि है। विश्व चिंतन में यह एक नई बहस को जन्म देता है, पितृक प्रतिमानों व सोचने की दृष्टि पर सवालिया निशान लगाता है, आख़िर क्यों स्त्रियाँ अपने मुद्दों, अवस्थाओं, समस्याओं के बारे में नहीं सोच सकतीं? क्यों उनकी चेतना इतने लम्बे अरसे से अनुकूलित, अनुशासित व नियंत्रित की जाती रही है, क्यों वे साँचों में ढली निर्जीव मूर्तियाँ हैं?
जब भी स्त्री विमर्श की बात होती है तो उसके केंद्र में आज भी मध्यवर्गीय स्त्री का ज़िक्र होता है। इसकी एक बड़ी वजह साहित्यकारों और विमर्शकारों का ख़ुद मध्यवर्गीय पृष्ठभूमि से जुड़ा हुआ होना है।
भारतीय समाज में स्त्री की स्थिति अंतर्विरोधों से भरी हुई है। परंपरा से नारी को शक्ति का रूप माना गया है, पर आम बोलचाल में उसे अबला कहा जाता है। मध्यकालीन भक्त कवियों के यहाँ भी स्त्री को लेकर अंतर्विरोधी उक्तियाँ विद्यमान हैं। आज भी हमारे समाज और साहित्य में स्त्री के प्रति कमोबेश यही अंतर्विरोधी रवैया मौजूद है।
भारत के बहुस्तरीय सामाजिक ढाँचे में स्त्री का संघर्ष सिर्फ देह की स्वतंत्रता या लिंग की लड़ाई तक सीमित नहीं है| यहाँ स्त्री को कई मोर्चे पर एक साथ लड़ना है और यौनिक स्वतंत्रता इस लड़ाई का अनिवार्य हिस्सा है।
भावना मासीवाल का मानना है कि जैविक संरचना के आधार पर लैंगिक भेद को सही मानने और ग़लत मानने का भी मूल वर्गीय आधार से ही नाभिनाल सम्बद्ध है।
जेंडर सामाजिक-सांस्कृतिक रूप में स्त्री-पुरुष को दी गई परिभाषा है, जिसके माध्यम से समाज उन्हें स्त्री और पुरुष दोनों की सामाजिक भूमिका में विभाजित करता है। यह समाज की सच्चाई को मापने का एक विश्लेषणात्मक औज़ार है। मैत्रयी कृष्णराज लिखती हैं समाज में जितनी भी आर्थिक और राजनैतिक समस्याएँ हैं उनका संबंध जेंडर से है। जेंडर लिंग आधारित श्रम का विभाजन है जिसे पितृसत्ता ने सामाजिक अनुशासनों के द्वारा तय किया गया।
जिस तरह भाषा में शब्दों के वर्गीकरण के लिए उनके सामाजिक व्यवहार को आधार बनाया गया और उन्हें स्त्रीलिंग, पुल्लिंग व न्यूट्रल रूप में विभाजित किया गया उसी प्रकार सामाजिक संरचना में ‘सेक्स’ को सामाजिक प्रकिया के तहत स्त्री और पुरुष की निर्धारित भूमिकाओं में ढाला गया। स्त्री और पुरुष दोनों ही जैविक संरचना हैं यह सत्य है इन्हें बदला नहीं जा सकता। लेकिन इनकी पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक भूमिका का निर्धारण जब किया जाता है तो इनके अपने स्वतंत्र अस्तित्व पर प्रश्न अंकित हो जाता है, जिसका जवाब जेंडर देता है। ‘जेंडर अस्मिता के पहचान का सबसे मूक घटक है जो हमें स्त्री व पुरुष की निर्धारित सीमा को परिभाषित करने और दुनिया को देखने के नज़रिए की नाटकीय भूमिका को बताता है’। जैविक संरचना के आधार पर लैंगिक भेद को सही मानने और ग़लत मानने का भी मूल वर्गीय आधार से ही नाभिनाल सम्बद्ध है। यह केवल लिंगों के बीच के अंतर को नहीं बताता वरन् सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक स्तर पर सत्ता से इसके संबंध को भी परिभाषित करता है।
स्त्री मुक्ति का अर्थ पुरुष हो जाना नहीं है। स्त्री की अपनी प्राकृतिक विशेषताएँ हैं, उनके साथ ही समाज द्वारा बनाये गये स्त्रीत्व के बंधनों से मुक्ति के साथ, मनुष्यत्व की दिशा में क़दम बढाना, सही अर्थों में स्वतंत्रता है। स्त्री को अपनी धारणाओं को बदलते हुए, जो भी घटित हुआ, उसे नियति मानने की मानसिकता से उबरने की आवश्यकता है, लेकिन साथ ही पुरुष वर्ग को ही दोषी मानकर कठघरे में खड़े करने वाली मनोवृत्ति बदलनी होगी।
आधुनिक साहित्य में स्त्री विमर्श सर्वाधिक चर्चित विषय रहा है। सीमोन द बोउवार की ‘द सेकण्ड सेक्स’ का हिन्दी अनुवाद कर प्रभा खेतान ने स्त्री विमर्श की नींव तैयार की और इससे पहले सीमन्तनी उपदेश ने इसका आधार बनाया और इन्हीं से प्रेरित होकर आधुनिक लेखिकाएँ स्त्री के प्रति समाज की मानसिकता व रूढ़ियों पर आधारित पारिवारिक बंधनों से मुक्ति की आकांक्षा में प्रयत्नशील नज़र आती हैं।
हिंदी साहित्य में भी स्त्री विमर्श कई धाराओं में विकसित हुआ और उसका मूल कारण लेखिकाओं का अपना अनुभव जगत और अपनी अलग-अलग सामाजिक स्थिति है। जिस ‘मर्दवाद’ के ख़िलाफ़ स्त्री विमर्श खड़ा हुआ है उसकी प्रतिक्रिया में ‘स्त्रीवाद’ का वह रूप भी आता है जहाँ वह मर्दवादी अवधारणा पर ही खड़ा दिखाई देता है लेकिन ऐसी प्रतिक्रिया पश्चिम के स्त्री विमर्श का भी हिस्सा रही है।
मध्यवर्गीय स्त्री का पूरा संघर्ष दैहिक स्वतंत्रता से लेकर आर्थिक स्वतंत्रता तक सिमटा हुआ है। पुरुष के लिए नारीत्व अनुमान है और नारी के लिए अनुभव, अतः अपने जीवन का जैसा सजीव चित्र वह हमें दे सकेंगी, वैसा पुरुष बहुत साधना के उपरान्त भी शायद ही दे सके। फिर भी नारी विमर्श पुरुष संवेदनाओं पर आधारित है।
मेरे अनुसार स्त्री स्वतंत्रता की बात सही परिप्रेक्ष्य में की जानी चाहिए। निरपेक्ष स्वतंत्रता जैसी कोई चीज़ नहीं हो सकती। स्वतंत्रता का मूल अभिप्राय है ‘निर्णय की स्वतंत्रता’ और स्त्री स्वतंत्रता का रूप क्या होगा, यह स्वयं स्त्रियों को ही तय करना है, यह निर्णय कुछ ‘विशिष्ट’ महिलाओं द्वारा नहीं लिया जा सकता। हिंदी साहित्य में भी कुछ स्त्री लेखकों को स्त्री-विमर्श का नेतृत्व करने वाला समझना ऐसी ही भूल है। किसी भी लेखक की मुखरता नहीं बल्कि उसका लेखन उसकी साहित्यिक ज़िम्मेदारी का सबूत होता है। साहित्य किसी भी सैद्धांतिकी से प्रभावित हो सकता है और नया सिद्धांत भी गढ़ सकता है लेकिन साथ ही उसका एक बड़ा सामाजिक सरोकार होता है और यहीं से स्त्री-पुरुष के बदले मनुष्यता की ज़मीन तैयार होती है।
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