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गीत सृष्टि शाश्वत है 

मानव सभ्यता में गीत की प्राचीन परंपरा है। गीत अथवा संगीत का मानव जीवन में विशेष महत्त्व है। एक नादान शिशु भी संगीत की स्वर लहरी से प्रभावित होकर रोना भूल जाता है। मानव ने जब सर्वप्रथम बोलना प्रारम्भ किया होगा तो वह गद्य-कथन ही था, तदुपरांत गद्य में गाथा। अपने कथन को विशिष्ट, स्वर पर आनन्ददायी, अपनी व्यक्तिगत प्रभावी वक्तृता व शैली बनाने एवं स्मरण हेतु उसे सुर, लय, प्रवाह, व गति देने के प्रयास में पद्य का, गीत का जन्म हुआ। 

महाकवि निराला ने गीतिका की भूमिका में कहा है– “गीत-सृष्टि शाश्वत है। समस्त शब्दों का मूल कारण ध्वनिमय ओंकार है। इसी नि:शब्द–संगीत से स्वर-सप्तकों की भी सृष्टि हुई। समस्त विश्व, स्वर का पूंजीभूत रूप है।” महादेवी वर्मा के अनुसार–“सुख-दुख की भावावेगमयी अवस्था-विशेष का गिने-चुने शब्दों में स्वर-संधान से उपयुक्त चित्रण कर देना ही गीति है।” 

प्राचीन समय के सम्पूर्ण भारतीय साहित्य ही गीतों के रूप में रचे गए हैं इसलिए भारत में गीतिकाव्य का कोई अलग अस्तित्व नहीं रहा। इस आधार पर गीतिकाव्य की निम्नलिखित विशेषताएँ हो सकती हैं-1. अंतर्जगत का चित्रण 2. सहज स्फुरित उद्गार 3. कोमलकान्त पदावली 4. संगीत से पूर्ण अभिव्यक्ति 5. संक्षेप में अभिव्यक्ति

भारतीय साहित्य में गीतिकाव्य की परंपरा अत्यंत प्राचीन है। मानव ने अपनी भावनाओं और अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने के लिए वाणी की गेयता को अधिक महत्त्व दिया है। यही कारण है कि विश्व के प्राचीनतम साहित्य का रूप गेय ही रहा है, जिसकी आरम्भिक पंक्तियाँ वाल्मीकि के कंठ से निकली थीं:

मा निषाद, प्रतिष्ठां त्वमगमः शास्वती समा:। 
यतक्रौंच-मिथुनादेकमवधी: काममोहितम॥

साम तो स्वयं गीत का ही वेद है यथा . . . ऋषि कहता है:

“ओऽम् अग्न आ याहि वीतये ग्रृणानो हव्य दातये। 
नि होता सत्सि बर्हिषि॥” साम 1 

हे तेजस्वी अग्नि (ईश्वर) आप ही हमारे होता हो, समस्त कामना पूर्तिकारक स्त्रोता हो, हमारे हृदय रूपी अग्निकुंड (यज्ञ) हेतु आप ही गीत हो आप ही श्रोता हो। 

गीतिकाव्य की परंपरा अत्यंत प्राचीन है। संस्कृत साहित्य में गीति काव्य प्रमुखता के साथ रचा गया। वेदों में गीतिकाव्य का रूप उपलब्ध होता है। सुप्रसिद्ध संस्कृत गीतिकाव्यकार जयदेव का ‘गीत गोविंद’ एक उल्लेखनीय रचना है। ‘गीत गोविंद’ से ही प्रभावित हिंदी कवि विद्यापति की ‘पदावली’ मानी जाती है। वस्तुतः विद्यापति ही हिंदी साहित्य के आदि गीतिकार माने जाते हैं। 

भक्तिकाल में कबीर, मीरा, सूर आदि हिंदी कवियों ने सुंदर और मार्मिक गीतों की रचना की है। वैष्णवों के लीला के पद, विनय के पद तथा निर्गुणवादियों के शब्द विशिष्ट राग-रागनी में रचे गए थे। 

आधुनिक हिंदी साहित्य में छायावादी काव्य ने इस विधा को लालित्य, माधुर्य एवं कल्पना का पुट प्रदान किया। महादेवी वर्मा आधुनिक काल की सर्वश्रेष्ठ गीतिकार मानी जाती हैं। 

संक्षेप में गीतिकाव्य की परिभाषा इस प्रकार से दी जा सकती है– “कवि के हृदय की मार्मिक अनुभूतियों का संगीतात्मक चित्रण ही गीति है।” संवेदना और शिल्प में लेखक डॉ. रामस्नेही लाल शर्मा यायावर गीत का ज़िक्र करते हुए कहते हैं कि गीत किसी कथात्मकता का मोहताज नहीं होता। वह भाव केंद्रित होता है, उसकी गेयता संगीतमय भी होती है और संगीत रहित भी। वह प्रसंग निरपेक्ष स्वतः पूर्ण, भाव प्रवण, टेक आधारित, वैयक्तिक, युगीन यथार्थ से प्रभावित तथा अनेक उपरूपों में बुना हुआ होता है। 

गीत के विषय-वस्तु एवं रस-प्रधानता आधारित कई भेद होते हैं: शृंगार गीत, वीर रस के गीत, करुणासिक्त गीत, देशप्रेम के गीत, छायावादी, रहस्यवाद के गीत, निर्वेद के गीत, प्रगतिशील गीत, विजय-गीत, युद्ध-गीत आदि। हिन्दी में लोक व पारंपरिक गीत परम्परा की अजस्र धारा निरंतर प्रवाहमान रही और आज भी प्रवाहमान है। परम्परा से हटकर तुकांत व अतुकांत गीतों की एवं कविता की नवीन धाराओं के रूप में अतुकांत गीत की धारा अगीत एवं तुकांत गीत की धारा नवगीत ही आज जीवित हैं। 

गीत का शिल्प

गीत विधा के निम्न तत्व होते हैं— उत्कृष्ट गीत की विशेषता: 

एक उत्कृष्ट गीत में मुखड़ा, टेक, अन्तरा, पूरक पंक्ति, लय और तुकान्त का सही रूप में निर्वहन होना अति आवश्यक होता है। 

गीत के अन्तरों की बनावट समान रहनी चाहिए। 

  1. मुखड़ा—गीत के प्रारम्भ की पंक्ति अथवा पंक्ति समूह मुखड़ा कहलाता है, इसमें सामान्यत: एक से चार तक पंक्तियाँ होती हैं 

  2. टेक—मुखड़े की वह पंक्ति जो अंतरे के अंत में जोड़कर दुहराई जाती है, उसे टेक कहते है। 

  3. अन्तरा—मुखड़े के बाद का वह पंक्ति समूह जिसके बाद टेक दुहराई जाती है और प्राय: मुखड़े को भी गाया जाता है, उस पंक्ति समूह को अन्तरा या बन्ध कहा जाता है। गीत में दो या अधिक अंतरे होते हैं। 

  4. पूरक पंक्ति—अंतरे की अंतिम पंक्ति को पूरक पंक्ति कहते हैं, इसके साथ टेक को मिलाकर गाया जाता है, टेक और पूरक पंक्ति की लय समान होती है। 

  5. लय—शब्दों के प्रवाह की मधुर गति लय कहलाती है। 

  6. तुकांत—मुखड़े की पंक्तियों में और अंतरे की पंक्तियों में तुकान्त का निर्वाह किया जाता है। पूरक पंक्ति का टेक से तुकान्त किया जाता है। गीत विधा में स्वरान्त पर आधारित ध्वन्यात्मक तुकांत को भी मान लिया जाता है। 

  7. स्वर का उतार चढ़ाव—चूँकि गीत विधा में गेयता की प्रमुखता रहती है, अत: गीत में शब्द उच्चारण में स्वरों का उतार-चढ़ाव भी स्वीकृत है। शब्द शुद्ध वर्तनी में ही लिखा जाता है। 

गीत के कुछ उदाहरण:
 
नारी, तुम सदा ठगी जाती! 
कैशोर्य उमंग और तरंगें
एक ज्वाला पर सहस्र पतंगे। 
तन के उभार और गहराई
नर दृष्टि उधर दौड़ी आई॥
 
लक्ष अहेरियों में फँस जाती। 
नारी तुम! सदा ठगी जाती॥ —सुधा शर्मा का गीत (रचनाकार से) 

काजल लिखना
कँगना लिखना
लिखना मन की बातें। 
 
आँसू लिखना
आँखें लिखना
यादों की तुम
पाँखें लिखना। 
उम्मीदों की
थाती लिखना
दर्द विरह की
पाती लिखना। 
 
शब्दों को स्वर देकर लिखना
अनगिन विरही रातें। 
 
उड़ते मेघा
रिमझिम बूँदें। 
बैठे थे हम
आँखें मूँदें। 
आँखें खोलीं
तपता मरुथल। 
कितने कठिन
करुण थे वो पल। 
 
जला जला कर तन मन अंतस
चली गईं बरसातें। 
 
अक्षत दूबा
मंडप पंडित। 
सात वचन क्यों
होते खंडित। 
अंतस काले, 
बाहर सुंदर। 
टूटे सपने, 
किरचें अंदर। 
 
फटते कटते रिश्ते लिखना
लिखना मीठी घातें। — (गीत-सुशील शर्मा)

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