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गोविन्द गीत— 005 पंचम अध्याय

 अर्जुन उवाच 
 
कर्म योग धारण करें या धारे संन्यास। 
हे माधव बतलाइए किसको राखें पास। 1
 
श्री भगवानुवाच 
 
दोनों कल्याणक सदा जीवन के आधान। 
कर्म योग अति श्रेष्ठ है साधन है आसान। 2
 
संन्यासी वह पुरुष है तजे राग सब द्वेष। 
जीवन में सुख से रहे रहे न कर्म अशेष। 3
 
कर्म, सांख्य के योग में, मूरख करें विभेद
दोनों के फल एक हैं, दोनों ब्रह्म अभेद। 4
 
ज्ञान योग देता सदा, परम ब्रह्म का धाम
कर्म योग का रूप है परम ब्रह्म का नाम। 5
 
कर्म योग पथ पर चलित, मिले कर्म संन्यास। 
कर्म योग को धारकर, मिले ब्रह्म आवास। 6
 
जिसका मन वश में सदा, अंतस जिसका शुद्ध
ब्रह्म रूप वह आत्मा, पावन कर्म प्रबुद्ध। 7
 
सुनकर छूकर सूँघकर, भोजन और विश्राम 
नींद साँस वाणी सहित, प्रभु का लेता नाम। 8
 
नेत्र बंद हों या खुले, दुख हो या अनुराग
कर्म योग में हो सदा, कर्तापन का त्याग। 9
 
जल में रहकर भी रहे, कमल पत्र निर्लेप
कर्म समर्पित ब्रह्म को नहीं पाप का लेप। 10
 
कर्म योग में लीन हो, बुद्धि रहित ममत्व
इंद्रिय तन मन चित्त सब, शुद्ध आत्म का तत्व। 11
 
कर्म योग से ही पुरुष, कर्म फलों से मुक्त 
सुख साधन संपन्न हो, अंत ब्रह्म संयुक्त। 
कर्म फलों की चाह से, जो करते हैं कर्म
भव बंधन में बाँधते, सारे कर्म सकर्म। 12 
 
सांख्य योग का आचरण, और अंतस की जीत
कर्म फलों को त्याग कर, बने ब्रह्म का मीत। 
तन अंतस जीवात्मा, कर कर्मों का त्याग। 
नौ द्वारों के नगर में, सुख आनंद सुभाग। 13 
 
परमेश्वर रचते नहीं, कर्ता कर्म सुयोग। 
प्रकृतिजन्य गुणधर्म ये, जीव विषय के भोग। 14 
ब्रह्म कर्म से विरत हैं करता पन से दूर
कर्म पुरुष स्वभाव है, परिणामों से पूर। 14 
 
ज्ञान ढँका अज्ञान से, मोहित सब संसार। 
पाप पुण्य के कर्म से, दूर ब्रह्म आधार। 15 
 
ब्रह्म ज्ञान से नष्ट जब, तमस भरा अज्ञान। 
सूर्य सदृश्य आलोक हो परमेश्वर आधान। 16 
 
चित्त बुद्धि तद्रूप हो एकीपन का भाव। 
अपुनरावृत्ति प्राप्त हो, परम गति सद्भाव। 17 
 
चांडाल कुंजर अवध, श्वान विप्र समभाव। 
विद्या विनय संयुक्त हो, ज्ञानी ज्ञान प्रभाव। 18 
 
जिनके मन समभाव है, जीते वह संसार। 
परमात्मा निर्दोष सम, रहे जगत आधार। 19
 
प्रिय पाकर हर्षित नहीं अप्रिय से नहीं द्वेष 
थिर बुद्धि संशय रहित, वे नर ब्रह्म विशेष। 20
 
विषय मोह से मुक्त जो, अंतर जिनका शुद्ध। 
आत्मजनित साधक सदा, पाता ब्रह्म विशुद्ध। 21
 
विषय इंद्रियां जब मिले, तब बनते हैं भोग। 
सुख स्वरूप लगते सदा, दुःख करण संयोग। 
बुद्धिमान नर न रमें, इन भोगों के संग। 
दुःख भरे रहते सदा, यह सुख कारक रंग। 22
 
काम क्रोध के वेग को, जो तन सहे समर्थ 
योगी बनकर वह पुरुष, सुख के समझे अर्थ। 23
 
आत्म रमण करता सदा, आत्मज्ञान में व्याप्त। 
सांख्य योग से वह पुरुष, करे ब्रह्म को प्राप्त। 24
 
पाप नष्ट जिसके सभी, संशय ज्ञान निवृत्त। 
परहित में जीता सदा, पारब्रह्म संवृत्त। 25 
 
काम क्रोध से रहित जो, विजित करें मन चित्त। 
वे योगी ज्ञानी पुरुष, रहें ब्रह्म आवृत्त। 26 
 
विषय भोग को छोड़कर, दृष्टि भ्रुकुटी कपाल। 
प्राण अपान को सम रखें जीते मृत्यु कराल। 27 
 
इंद्रियाँ मन बुद्धि विजित मोक्ष परायण रूप 
काम क्रोध भय रहित वह, नर है ब्रह्म स्वरूप। 28 
  
सभी भोग मुझ में निहित, यज्ञ तपों का ईश। 
स्वार्थ रहित संपूर्ण मैं, भूत भवित आधीश। 
हे अर्जुन जो भी पुरुष, ऐसा रखता ज्ञान। 
मुझ में ही रहता सदा, मुझे तत्व से जान। 29 
 
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे 
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मसांख्ययोगो नाम पंचमोऽध्यायः॥

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