गोविन्द गीत— 004 चतुर्थ अध्याय
काव्य साहित्य | दोहे डॉ. सुशील कुमार शर्मा15 Mar 2022 (अंक: 201, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
श्री भगवानुवान
भुवन भास्कर को दिया, मैंने ये गुरु ज्ञान।
इस अविनाशी योग का, मनु ने किया बखान। 1
राजऋषियों को मिला, यह परम्परा जोग।
लुप्त बीच में हो गया, यह अविनाशी योग। 2
मेरा तू प्रिय भक्त है, अतिशय प्रिय तू मित्र।
इस अविनाशी योग का, उत्तम गुप्त चरित्र। 3
अर्जुन उवाच
कल्प आदि से सूर्य हैं, आप हैं अति नवीन।
कैसे फिर ये आपने, ज्ञान दिया प्राचीन। 4
श्री भगवानुवाच
नहीं ज्ञान तुझको सखे, मुझको सारा ज्ञान।
जन्म अनेकों हो चुके, तेरे मेरे जान। 5
मैं अविनाशी रूप हूँ, और अजन्मा तत्व।
माया योग स्वरूप धर, मुझ में गुण प्राकत्व। 6
जब जब धर्म हानि बढ़े, बढ़े अधर्म अघोर।
तब तब मैं ख़ुद को रचूँ, धर्म ध्वजा की डोर। 7
पाप कर्म का नाश कर, कर साधू उद्धार।
धर्म ध्वजा को थामने, प्रकटूँ बारम्बार। 8
जन्म कर्म मेरे सभी, होते हैं अति दिव्य।
मुझे जानकर तत्व से, स्वर्ग मनुज गंतव्य। 9
नित्य प्रेम मुझ में रखें, राग क्रोध भय त्याग।
मेरे आश्रित नर सदा, ज्ञान रूप बड़ भाग। 10
जो मुझको जैसे भजें, पाते वही स्वरूप।
सभी मनुज चलते सदा, मेरे ही अनुरूप। 11
देवों का पूजन करें, रखें कर्म फल आस।
मृत्युलोक में सब मनुज, रखें सिद्धि विश्वास। 12
चार वर्ण, गुण रूप का, मैं ही सूत्राधार।
कर्म अकर्म हितार्थ मैं, मैं सबका आधार। 13
स्पृहा से अति दूर मैं, नहीं कर्म आबँध।
तत्व विहित मुझको भजें, कटें कर्म के बँध। 14
कर्म सदा हों जानकर, परम्परा अनुसार।
पूर्वज भी करते रहें, कर्म ज्ञान आधार। 15
कर्म और अकर्म का, निर्णय कठिन कराल।
कर्म तत्व तू जान ले, हे अर्जुन भूपाल। 16
कर्म गति अति गहन है, कर्म के रूप अनेक।
कर्म विकर्म अकर्म को, निश्चित करे विवेक। 17
कर्तापन को छोड़ कर, मनुज करे यदि कर्म।
बुद्धिमान वह पुरुष है, समझे कर्म अकर्म। 18
बिना काम संकल्प के, बनते कर्म अकर्म।
ज्ञान यज्ञ में भस्म हो, उस पंडित के कर्म। 19
फल आसक्ति त्याग करे, परमात्मा में तृप्त।
कर्मों को करते हुए, रहे न उनमें लिप्त। 20
अन्तः इन्द्रिय और तन, अरु जीते जो राग।
कर्म बन्ध छूटें सदा, ईश चरण अनुराग। 21
आशा वह रखता नहीं, रहे परम संतुष्ट।
जो भी उसके पास है, रहे उसी से तुष्ट।
हर्ष शोक ईर्ष्या सदा, रखता है वह दूर।
सिद्धि असिद्धि अतीत हों, कर्मयोग भरपूर। 22
चित्त निरंतर ज्ञान में, यज्ञ कर्म संयुक्त।
अहम मोह से दूर जो, कर्मबँध से मुक्त। 23
ब्रह्म रूप अर्पण श्रुवा, यज्ञ हवन सब द्रव्य।
परमेश्वर के रूप हैं, फल कारण कर्तव्य। 24
ईश रूप अग्नि ज्वलित, आत्म यज्ञ का धर्म।
अनुष्ठान योगी करें, यज्ञ विहित सब कर्म। 25
हवन इन्द्रियों का करें, संयम अग्नि विधान।
इन्द्रिय रूप अग्नि करे, विषयों का संधान। 26
प्राण क्रियाएँ प्रकाशित, आत्मा संयम योग।
मन इन्द्रियाँ बुद्धि हवित, हव्य विषय सब भोग। 27
तप रूपी कुछ यज्ञ हैं, कुछ हैं द्रव्य सुयज्ञ।
यत्नशील अध्ययन सुव्रत, विज्ञ ज्ञान का यज्ञ। 28
प्राण समान अपान सब, दिव्य वायु के योग।
योगी इनको साधते, त्यागें सारे भोग। 29
यम नियम संयम सभी, यज्ञों के आयाम।
पाप नाश कर दिव्य सब, करता प्राणायाम। 30
यज्ञ भाग के भोग से, मिलते तीनों लोक।
पारब्रह्म भी प्राप्त हों, सुखदायक परलोक। 31
वेदवाणी ही सत्य है, सब यज्ञों का सार।
तन मन धन से यज्ञ हों, कटें कर्म आधार। 32
कर्म समाहित ज्ञान में, कर्मयोग ही नेष्ठ।
द्रव्य यज्ञ मध्यम सदा, ज्ञान यज्ञ ही श्रेष्ठ। 33
ज्ञान तत्व दर्शी सदा, देते ज्ञान विवेक।
परम तत्व के ज्ञान से, हरते सब अविवेक। 34
हे अर्जुन ये ज्ञान तप, हारता है सब मोह।
सभी भूत तुझमें मिलें, तू मुझमें सम्मोह। 35
अधम पाप भी तू करे, फिर भी तू निष्पाप।
ज्ञान रूप की नाव से, तर जाते सब पाप। 36
ज्वलित अग्नि से भस्म सब, ईंधन धूलि समान।
कर्तापन अरु कर्म सब, भस्म करे ये ज्ञान। 37
अंतस पाप निवास को, करता ज्ञान पवित्र।
शुद्ध करे अन्तःकरण, पावन आत्म चरित्र। 38
श्रद्धावान लभते सदा, पाते ज्ञान विवेक।
परम ब्रह्म दर्शन मिलें, मिटते सब अविवेक। 39
जिनके मन श्रद्धारहित, वे अविवेकी भृष्ट।
संशय स्वारथ से भरे, पाते सारे कष्ट। 40
कर्म योग विधि से सभी, करे कर्म आसन्न।
परम तत्व अर्पित सभी, कर्मयोग संपन्न। 41
कर्मयोग को धार कर, करो युद्ध संधान।
पृथापुत्र अर्जुन तजो संशय का संज्ञान। 42
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे दिव्यज्ञानयोगो नाम चतुर्थोऽध्यायः॥
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