अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

मंदबुद्धि

 (लघु कहानी) 
 

आज स्कूल में बहुत ही चहल पहल थी आज इस स्कूल में पढ़ने वाले बाजू के ज़िले के कलेक्टर साहब आ रहे थे सभी उत्सुक थे। जैसे ही कलेक्टर साहब की गाड़ी स्कूल में पहुँची सब लोग स्वागत के लिए उमड़ पड़े। स्वागत उपरांत जैसे ही महेश अपने क्लास रूम में पहुँचे तो बीते वक़्त की एक एक घटना फ़िल्म की तरह उनके मस्तिष्क मैं घूमने लगी। 

“माँ स्कूल में बच्चे मुझे तंग करते हैं, मुझे अपने साथ खिलाते भी नहीं हैं, कहते हैं तू मंद बुद्धि है; तुझे कुछ नहीं आता,”महेश सुबकते हुए बोला। 

“नहीं बेटा तू तो मेरा राजा बेटा है,” रोते हुए कामनी ने महेश को अपने सीने से लगा लिया। 

उसे बहुत बुरा लग रहा था कि बच्चे और सभी लोग उसके बेटे को मंदबुद्धि कह कर पुकारते हैं। पर क्या करे बात भी सही थी। महेश बचपन से ही ऐसा था। बचपन में बहुत इलाज करवाया पर वो ठीक ना हुआ। कई ओझा गुनियों के चक्कर लगाए पर महेश वैसा का वैसा ही रहा। अब तो बस ईश्वर का ही सहारा था। 

“बेटा तुम बहुत अच्छे हो और वो जो तुम्हें मंद बुद्धि कहते हैं वो ही मंद बुद्धि हैं। तुम उनकी बात का बुरा मत माना करो,” कामनी ने महेश को लाड़ करते हुआ कहा। 

अपनी माँ से लाड़ पा कर महेश अत्यंत प्रसन्न हुआ। 

“माँ देख लेना एक दिन मैं कलेक्टर बनूँगा,”महेश ने कामनी से कहा। 

“हाँ बेटा तुम एक दिन ज़रूर कलेक्टर बनोगे,” कामनी ने गहरी साँस लेकर कहा लेकिन वह जानती थी कि महेश शायद ही आगे पढ़ पाए क्योंकि उसे कुछ भी समझ में नहीं आता था। 

एक दिन स्कूल के प्राचार्य ने कामनी और उसके पति को बुलाकर कहा, “आपका बेटा एक ही क्लास में दो साल अनुत्तीर्ण हो गया है। अब मजबूरन हमें उसे विद्यालय से निकालना होगा।”

बेचारे महेश के माता–पिता ने ख़ून का घूँट पीकर यह फ़ैसला स्वीकार किया। 

“माँ अब मैं क्या करूँगा क्या मैं अब आगे नहीं पढ़ सकूँगा?” महेश ने रोते हुए पूछा। 

“नहीं बेटा तुम ज़रूर पढ़ोगे और एक दिन कलेक्टर भी बनोगे,” कामनी की आँखों में बेबसी के आँसू थे। 

अब उनके सामने महेश को आगे शिक्षा दिलाने की समस्या थी। जब सब दरवाज़े बंद होते हैं तो ईश्वर कोई न कोई रास्ता ज़रूर निकाल देता है। कामनी के बाजू में नए किरायदार आये थे। जब उनको महेश के बारे में पता चला तो उन्होंने एक विद्यालय का नाम बताया जहाँ मंद बुद्धि बच्चों को निःशुल्क आवासीय व्यवस्था के तहत शिक्षा दी जाती थी। 

महेश को उस विद्यालय में दाख़िला मिल गया। व्यवस्थित शिक्षा मिलने के कारण महेश में सुधार आने लगा और धीरे-धीरे वह उस विद्यालय के श्रेष्ठ छात्रों में गिना जाने लगा। उसके मन में कलेक्टर बनने की असीम इच्छा थी। उसने विद्यालय के प्राचार्य को अपनी इच्छा से अवगत कराया। प्राचार्य ने दिल्ली में उसके कोचिंग की व्यवस्था कर दी। महेश ने मन लगा कर पढ़ाई की और उसने पहले ही प्रयास में संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा अच्छी रैंक के साथ उत्तीर्ण की। 

आज जब कलेक्टर बनकर वह घर आ रहा था तो सब बड़े विस्मित और प्रसन्न थे। जिस माँ की प्रेरणा एवं मानसिक संबल से महेश कलेक्टर बना, वह आज फूली नहीं समा रही थी। उसका मंदबुद्धि बेटा कलेक्टर जो बन गया था और आज अपने घर आया है। 

महेश बच्चों को सम्बोधित करते हुए कह रहे थे, “प्रिय बच्चो जो व्यक्ति आज आपके सामने खड़ा है वह इस विद्यालय का सबसे मंदबुद्धि छात्र था, किन्तु मैंने हार नहीं मानी और अपनी माँ की प्रेरणा एवं अपनी संकल्प शक्ति से मैंने अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लिया। आप सब में प्रतिभा मौजूद है। आप भी अपनी संकल्पशक्ति से जो आप बनना चाहें बन सकते हैं।”

पूरा समारोह तालियों से गड़गड़ा रहा था। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

काव्य नाटक

कविता

गीत-नवगीत

दोहे

लघुकथा

कविता - हाइकु

नाटक

कविता-मुक्तक

वृत्तांत

हाइबुन

पुस्तक समीक्षा

चिन्तन

कविता - क्षणिका

हास्य-व्यंग्य कविता

गीतिका

सामाजिक आलेख

बाल साहित्य कविता

अनूदित कविता

साहित्यिक आलेख

किशोर साहित्य कविता

कहानी

एकांकी

स्मृति लेख

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

ग़ज़ल

बाल साहित्य लघुकथा

व्यक्ति चित्र

सिनेमा और साहित्य

किशोर साहित्य नाटक

ललित निबन्ध

विडियो

ऑडियो

उपलब्ध नहीं