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बिरसा मुंडा—आदिवासी गौरव

 

जंगलों की छाती पर
चलती थी हवा की पुरखई आवाज़, 
नदियों के जल में
धरती की स्मृतियाँ बहती थीं। 
इन्हीं स्मृतियों के बीच
उगता है एक नाम
बिरसा। 
 
एक ऐसा युवक
जिसकी आँखों में
सिर्फ़ क्रांति नहीं, 
अपने लोगों की
हज़ारों वर्षों की पीड़ा समाई थी। 
 
वह आया
तो जैसे वृक्षों ने
अपनी बाँहें फैला दीं, 
जैसे पर्वतों ने
अपने मौन में
एक नई लय खोज ली। 
 
बिरसा ने कहा
जंगल हमारे हैं, 
पानी हमारा है, 
धरती हमारी माँ है। 
और यह बात
किसी नारे की तरह नहीं, 
एक शाश्वत सत्य
एक अनकही प्रार्थना
एक जीवन-शपथ बन गई। 
 
उनकी पुकार
तलवार की चमक नहीं थी, 
एक जनजातीय आत्मा की
धूल से उठी हुई
अटूट प्रतिध्वनि थी। 
जिसने शासन के महलों को
पहली बार
जंगल की भाषा में
उत्तर देना सिखाया। 
 
बिरसा मुंडा
सिर्फ़ एक योद्धा नहीं
एक स्वप्न थे। 
वह स्वप्न
जिसमें मनुष्य और प्रकृति के बीच
कभी दीवारें नहीं थीं, 
जहाँ जीवन
दौड़ में नहीं, 
समता में था। 
 
बिरसा मुंडा ने अपनी युवावस्था
जनता के नाम लिख दी, 
अपनी साँसों को
एक पूरी जाति की मुक्ति में
रूपांतरित कर दिया। 
 
आज जब हम
उनकी जयंती मनाते हैं
तो यह सिर्फ़ स्मरण नहीं
एक दायित्व है। 
कि हम
उन जंगलों की रक्षा करें
जो कभी उसके क़दमों की धूल थे, 
उन समुदायों की रक्षा करें
जिनकी उम्मीद में
उसने ख़ुद को जला दिया। 
 
बिरसा की जयंती पर
हम उसकी मशाल को
फिर से थामते हैं
प्रकृति के संग
मानव होने के अर्थ को
एक बार फिर समझने के लिए। 
 
आदिवासी गौरव
आज भी
उसके नाम से
धड़कता है। 

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