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साहित्यिक मंच

(साहित्य का मंच सजा है। मुख्य अतिथि महोदय, अध्यक्ष महोदय एवं वरिष्ठ साहित्यकार, राष्ट्रीय संयोजक सुधीर जी मंच पर आसीन हैं।) 
(सरस्वती वंदना के बाद सुधीर जी को उद्बोधन हेतु बुलाया जाता है।) 

सुधीर जी:

(अभिवादन उपरांत) दोस्तो हमारा साहित्यिक मंच वह मंच है जहाँ नए प्रतिभाशाली रचनाकारों को साहित्य सृजन के लिए उत्प्रेरित किया जाता है। उन्हें विश्व्यापी मंच दिया जाता है। 

 (तभी मेरे बाजू मे बैठा श्रोता पूछता है) 

श्रोता 1:

ये कौन सा मंच है? 

मैं:

वक्ता उसी के बारे मे बता रहें हैं ध्यानपूर्वक सुनिए। 

श्रोता 1:

लेकिन ये क्या कह रहें हैं मुझे समझ में नहीं आ रहा। 

मैं:

आपको समझना क्या है? 

श्रोता 1:

वही जो ये कह रहे हैं? 

मैं:

(मैंने लगभग उनको टालते हुए कहा) वो ये बता रहें हैं कि इनका मंच हिंदी साहित्य के विकास के लिए कृत संकल्पित है। 

 श्रोता 1:

इसमें कौन बड़ी बात है वो तो सब साहित्यकार यही कहते हैं। 

सुधीर जी:

(अपने उद्बोधन को आगे बढ़ाते हुए) हमारे इस पवित्र संकल्प में पूरे विश्व के 15 हज़ार रचनाकार तन-मन-धन से साहित्य सेवा मे लगे हुए हैं। 

श्रोता 2:

(जो मेरे दूसरी तरफ़ बैठे थे) इतने साहित्यकार एक साथ एक मंच पर असम्भव! ये भाई साहब लगता है गप्पें मार रहे हैं। 

मैं:

नहीं वो सच कह रहे हैं। इनके मंच से 15 हज़ार रचनाकार जुड़े हैं। 

श्रोता 2:

अपने शहर में तो 4 रचनाकार एक मंच पर नहीं जुटते। मुझे विश्वास नहीं हो रहा। 

मैं:

(मैंने अपना ज्ञान बघार दिया) अपने यहाँ राजनीति ज़्यादा है साहित्य कम।  

सुधीर जी:

हमारा मक़सद है कि रचनाकार अपने विद्वता के अहम का त्याग कर साहित्य का सृजन करे तभी साहित्य का भला होगा। हम सभी मैं को त्याग कर हम को अपनाएँ तभी सच्चे अर्थों मे हम साहित्य की सेवा कर पाएँगे। 

श्रोता 1:

यार ये भाई साहब भाषणबाजी ज़्यादा कर रहे हैं। 

मैं:

नहीं वो अपनी संस्था के उद्देश्यों पर प्रकाश डाल रहे हैं। 

श्रोता 2: 

(महोदय ने अपना ज्ञान बघारा) बिना अहंकार के साहित्य रचना सम्भव नहीं हैं। अहंकार से ही बुद्धि उत्पन्न होती है। बुद्धि ही साहित्य के लिये प्रेरित करती है।  

मैं:

(मैंने हल्का प्रतिकार किया) ऐसा नहीं हैं जितने भी महान साहित्यकार हुए हैं उनमे अहंकार लेशमात्र भी नहीं था।  

श्रोता 1:

नहीं भाई साहब इस दुनिया मेंं ऐसा कोई नहीं है जिसे अपने कृतित्व पर अहंकार न हो। 

मैं:

ये बात तो उचित हैं लेकिन उस अहंकार को हम इस स्तर तक ला सकते हैं जिसमे दूसरे का अहित न हो। 

श्रोता 2:

अपने ही शहर मे देख लो न जिसने तीन कविता लिख लीं और पेपर मे प्रकाशित करवा लीं वो सीधे मुँह बात नहीं करता। 

मैं:

(शंकित होकर) आपका इशारा कहीं मेरी ओर तो नहीं है? 

श्रोता 2:

ही ही ही नहीं भाई साहब, आप तो बहुत विनम्र हैं। 

मैं:

सुधीरजी इसी अहंकार को मिटाने की बात कर रहे हैं। 

श्रोता 1:

इस अहंकार को मिटाने के लिए इनका मंच कितना पैसा लेता है। 

मैं:

बिल्कुल नहीं निशुल्क आप अपनी रचनाएँ भेज सकते हैं। 

सुधीर जी:

(अपने उद्बोधन के अंत मेंं) मैं सभी सुधीजनों से निवेदन करता हूँ। आप इस पुनीत कार्य मे हमारे मंच का सहयोग करें। इसमें आपका एक भी पैसा ख़र्च नहीं होगा। और अंतररष्ट्रीय स्तर पर आपकी रचनाओं को मंच मिलेगा। 

 

(कार्यक्रम के अंत मेंं श्रोता1 एवम 2 स्वस्फूर्त उठ कर सुधीर जी की ओर जाते हैं और उनसे ख़ुद को उनके साहित्यिक मंच का सदस्य बनाने का निवेदन करते हैं) 
पटाक्षेप।

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