प्रवासी हिंदी साहित्य लेखन
आलेख | साहित्यिक आलेख डॉ. सुशील कुमार शर्मा1 Oct 2020 (अंक: 166, प्रथम, 2020 में प्रकाशित)
प्रवासी भारतीय जो संवेदनशील थे, उन्होंने विदेश में अपने प्रवास के दौरान आने वाली समस्याओं को, अपने आस-पास घटित घटनाओं को अपनी क़लम के माध्यम से साहित्य द्वारा उजागर किया। अपने विचारों, अपनी सोच, दृष्टिकोण, चिंतन, व मान्यताओं द्वारा लेखन कार्य प्रारम्भ किया। अपने सामाजिक परिवेश से व परिस्थितियों से प्रभावित हो कर अलग-अलग विषयों में साहित्य की रचना की। यहीं से ‘प्रवासी हिन्दी साहित्य’ का ‘श्री गणेश’ हुआ। प्रवासी हिंदी साहित्य भारतीयों के पलायन व उन्हें दरपेश मुश्किलों के अलावा उनके जीवन संघर्ष की गाथा को प्रस्तुत करता है। आधुनिक प्रवासी हिन्दी कथा-साहित्य पर दृष्टि डालें तो पाते हैं कि भारत के बाहर दुनिया के कई देशों में हिन्दी कथा साहित्य रचा जा रहा है। मॉरीशस, सूरीनाम, फ़ीजी में तो यह था ही अब यह अमेरिका, कैनेडा, न्यूज़ीलैंड, डेनमार्क, अर्जेण्टीना, नॉर्वे, जापान, अबूधाबी में भी खूब फल-फूल रहा है। आज यह मात्र भारत के भीतर ही सीमित न होकर पूरे विश्व में फैला हुआ है। प्रवासी साहित्य को अलग करके देखने की बजाए, उसे हिंदी की मुख्यधारा में स्थान दिया जाए। विदेशों में रहने वाले लेखक जब संस्कृति के टकराव के बारे में लिखते हैं, तो लोगों को उच्च श्रेणी के साहित्य से मुख़ातिब होने का अवसर मिलता है। गाँव से शहर में आकर बसने वाले लोगों में भी प्रवास का दर्द देखा जा सकता है। यही वज़ह है कि साहित्य स्थापित मूल्यों के विरुद्ध मुहिम चलाने का काम कर रहा है।
भारतीय प्रवासियों के अधिकारों की लड़ाई महात्मा गाँधी ने दक्षिण अफ्रीका से आरम्भ की। हिंदी साहित्य में मॉरिशस में रचित हिन्दी साहित्य की एक अलग पहचान है। इसके पुरोधाओं में मॉरिशस के अभिमन्यू अनत का नाम सर्पोपरि आता है। इन्होंने साहित्य की विभिन्न विधाएँ कविता, कथा-साहित्य आदि की रचनाओं से प्रवासी साहित्य को समृद्ध किया है। इनका ’लाल पसीना’ उपन्यास बहुत ही चर्चित उपन्यास है। इसमें भारतवंशी की वेदनाओं का चित्रण बहुत मर्मस्पर्शी है। इसके बाद अमेरिका, इंग्लैंड आदि देशों में प्रवासी भारतीयों की हिंदी रचनाएँ आती हैं। इंग्लैंड में हिंदी साहित्य के विकास में डॉ. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी का नाम सर्वोपरि है। डॉ सिंघवी ने इंग्लैंड में भारतीय उच्चायुक्त रहते हुए भारतरत्न श्री अटल बिहारी वाजपेयी का एकल कवि सम्मेलन कराया। इसके अतिरिक्त इंग्लैंड में प्रवासी साहित्य के विकास में श्रीमती शैल अग्रवाल, पद्मेश गुप्त, तितिक्षा शाह, कृष्ण कुमार, तेजेन्द्र, शर्मा, दिव्या माथुर आदि ने अपनी रचनाओं से अहम भूमिका निभाई है। विदेश में रहने वाले हिंदी साहित्यकार इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि उनकी रचनाओं में अलग-अलग देशों की विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक परिस्थितियाँ हिन्दी की साहित्यिक रचनाशीलता का अंग बनती हैं, विभिन्न देशों के इतिहास और भूगोल का हिन्दी के पाठकों तक विस्तार होता है। विभिन्न शैलियों का आदान-प्रदान होता है और इस प्रकार हिंदी साहित्य का अंतरराष्ट्रीय विकास भी होता है।
वरिष्ठ कथाकार सुषम बेदी का कहना है कि प्रवासी लेखन ने विश्व को एक सूत्र में जोड़ने का काम किया है। फ़िलहाल प्रवासी साहित्य का बड़ा मुद्दा अस्मिता का है। प्रवासी लेखक को राष्ट्रीय बद्धता में बँधने की ज़रूरत नहीं। जबकि भारत के साहित्यकार की रचनाएँ समाज व राष्ट्रीयता से बँधी नज़र आती हैं। जीवन शैली की भिन्नता, सोच का वैभिन्न्य और भाषागत भिन्नता एक क़िस्म का "कल्चरल शॉक" देती रही हैं। सांस्कृतिक मूल्यों की इस टकराहट की अनुगूँज इनके लेखन में स्पष्ट तौर पर सुनाई देती है। अपनी लेखनी से इस लेखिका त्रयी ने न केवल भारतीय साहित्य को समृद्ध किया वरन उसका परिचय एक ऐसे कथालोक से कराया जो इससे पहले हिन्दी साहित्य में अनजाना था।आज के प्रवास में एक द्वन्द्व की स्थिति है। मान्यताएँ टकराती हैं और निजी संघर्ष पैदा होते हैं। इन्हीं टकराहटों और निजी संघर्षों का प्रवासी साहित्य अधिक है। निजी संघर्षों से बाहर आकर प्रवास की स्थितियों में वहाँ के जीवन में झाँकने के उत्सुक प्रयास भी हैं, लेकिन बहुत कम। इन दोनों से ऊपर उठकर, व्यापक सामाजिक, राजनीतिक, मानसिक संघर्षों और उथल-पुथल के साहित्य की अनुपस्थिति खटकती है। बृहत्तर मानवीय मूल्यों, सरोकारों और उन संघर्षों की निर्ममताओं का साहित्य नहीं है, जो हर ऊँचे साहित्य की पहली शर्त बनती है।
प्रमुख प्रवासी लेखक तेजेंद्र शर्मा का कहना है कि विदेशों में बैठकर लिखने वाले लेखकों को प्रवासी न कहा जाए। उन्होंने कहा कि उषा प्रियंवदा ने भारत में रहकर साहित्य की रचना की। बावजूद इसके उन्हें प्रवासी साहित्यकारों की श्रेणी में रखा जाता है। उन्होंने पूरे हिंदी साहित्य को प्रवासी बताया और कहा कि अमेरिका, कैनेडा तथा लंदन में लिखा जा रहा साहित्य मुख्यधारा का साहित्य है। विदेशों में युवा हिंदी नहीं जानते, जबकि भारत में भी नई पीढ़ी हिंदी से विमुख हो रही है। डर है कहीं विदेशों में लिखा जाने वाला साहित्य ख़तम न हो जाए। या फिर साहित्य को बचाए रखने के लिए माइग्रेशन का सिलसिला यूँ ही जारी रहेगा। उन्होंने आलोचकों से आह्वान किया कि वे पुराने हथियारों से उनके साहित्य का आंकलन न करें। प्रवासी जीवन का यथार्थ वापस लौटने के स्वप्न और न लौट पाने की बाध्यता के बीच दोहरेपन की मानसिकता होती है। अतीतानुराग की भावुकता से छुटकारा न पा सकने के कारण अपने वर्तमान को
अस्वीकार करने और अतीत में जीने की मानसिकता ख़ुद उनके लिए जड़ता, विषमता और अलगाव पैदा करती है। सुधीश पचौरी के अनुसार "प्रवासियों में एक विभक्त भाव होता है एक ही वक्त में दो दुनियाओं को पुकारता है। एक वह जिसमें डॉलर कमाने, विदेश पलट होने, अमीर होने के लिए वह परदेस में नाना कष्ट सहता अपने देश की याद करता रहता है। दूसरा वह जो याद आने वाले ‘देश’ के यथार्थ को भी जानता है जिससे उबकर वह ‘परदेश’ भागा था। परदेस में उसका ‘देश’ प्रेम ज़ोर मारता है और देश में परदेस प्रेम। पूँजीवादी सभ्यता की मारकाट वाली स्पर्धा, हर वक्त की असुरक्षा, अकेलापन उसे डॉलर देती है। कहीं न कहीं सभी प्रवासी अपनी मूल संस्कृति, मूल परम्परा और मानस से स्वभावतः या प्रकृतिजन्य रूप से जुड़े रहते हैं। यह जुड़ा रहना अवसरों, कुअवसरों पर बाहर भी झाँकने लगता है। परम्परायें, रीति-रिवाज़, लोक जीवन में रची-बसी गहरी आकृतियाँ, मौसम-बेमौसम हमारे व्यवहार, हमारी स्मृति और हमारी पहचान को उकेरती रहती हैं। भाषा का इस एहसास से बड़ा सीमित सा रिश्ता रह जाता है। सिर्फ़ उन लोगों में भाषा इस एहसास का अहम् हिस्सा बनती है जो काफ़ी देर से, परिपक्वास्था में अपना परिवेश छोड़ कर यहाँ आ बसे।आधे मन से वह उसमें लगता है लेकिन वह यह भी चाहता है कि डॉलर रहे संग में अपना गाँव भी रहे तो मज़ा है। इस तरह प्रवासी भाव देश-परदेस के बीच विभाज्य भाव है।" प्रवासी भारतीयों की दोहरी मानसिकता के संदर्भ में दुर्गा प्रसाद गुप्त का मत है "यह ऐसा भारतीय मन है जो एक तरफ़ भारत के आध्यात्मिक अतीत पर मुग्ध होता है, उसके लिए आहें भरता है तो दूसरी तरफ भौतिकता में उलझे उसके ग़रीब और पिछड़े वर्तमान पर आँसू बहाता है। उसके प्रति विरक्ति भाव से प्रेम प्रदर्शित करता है। - यह विभाजित मन उन प्रवासी भारतीयों का है जो न तो सही अर्थों में अपनी धर्म और संस्कृति के प्रति तटस्थ रह पाते हैं और न निर्वैक्तिक। फिर भी वे दोनों संस्कृतियों के प्रेमी आलोचक हैं।" श्यामा चरण दुबे के अनुसार "ये वे लोग हैं जो विदेशों में भारतीय और भारत में विदेशी जीवन शैली और मूल्यों के साथ जीते हैं। उनकी जड़ें भारतीय परम्परा में नहीं होती, पर साथ ही उनका पश्चिमीकरण भी बहुत सतही स्तर वाला होता हे। वे पश्चिमी संस्कृति के बाह्य लक्षणों का अनुकरण करते हैं, पर गहराई में जाकर उसकी आत्मा से साक्षात्कार करने से कतराते हैं। साथ ही वे पश्चिमी संस्कृति के सुख-सुविधा और स्वच्छंदता तो चाहते हैं पर उससे होने वाला सांस्कृतिक अवमूल्यन उन्हें चिन्तित करता है। प्रवासी भारतीयों के हिंदी साहित्य में अमेरिका, इंग्लैण्ड, कनाडा अस्ट्रोलिया, नीदरलैंण्ड, नार्वे, डेनमार्क आदि देशों में भारतीय प्रवासियों की पहली पीढ़ी का साहित्य आता है। ये लोग अपने बेहतर जीवन और शिक्षा के लिए इन देशों में गए और अपने हिंदी प्रेम के कारण, हिन्दी को अपनी अभिव्यक्ति की भाषा बनाया। इस प्रकार ये दो भिन्न धाराएँ प्रवासी भारतीय की संवेदना एवं चेतना का व्यापक परिदृश्य प्रस्तुत करता है। प्रवासी साहित्य के माध्यम से ज्ञात होता है कि भारतेतर देशों में भारतीय कैसे जीवन-यापन करते हैं। उनका जीवन-संघर्ष क्या है तथा परदेश में स्वदेश की कोई सत्ता या अनुभूति है या नहीं इसका परिचय मिलता है। प्रवासी साहित्य के माध्यम से दो नस्लों के व्यक्ति एक साथ मिलते हैं। इस मिलन से एक नई नस्ल का जन्म होता है। इस प्रकार के सम्मिलन से भिन्न प्रकार की संस्कृति, भाषा और साहित्य का जन्म होता है। हिंदी का प्रवासी साहित्य, हिंदी साहित्य का अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान करता है। जिस प्रकार हिंदी में छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, अकविता, नई कहानी, दलित साहित्य, स्त्री विमर्श आदि की स्वतंत्र सत्ता है; उसी प्रकार प्रवासी हिंदी साहित्य, भारततेर देशों में हिंदी साहित्य की पहचान है। इधर हिंदी के कुछ एक आलोचक भारतेतर देशों में रचित साहित्य, को साहित्य की श्रेणी में स्वीकार करने के पक्षधर नहीं हैं। इस प्रकार की अवधारणा भारतीय भाषाओं के अन्य साहित्य में नहीं हैं। इन आलोचकों की अवधारणाएँ ही हिंदी साहित्य को पीछे धकेलती हैं। यही कारण है कि भारतीय भाषाओं का मराठी, बांग्ला आदि भाषाओं का साहित्य हिंदी से टक्कर लेने के लिए तत्पर रहता है।
१० जनवरी २००३ को प्रवासी दिवस मनाए जाने के साथ ही दिल्ली में प्रवासी हिंदी उत्सव का श्रीगणेश हुआ। प्रवासी हिंदी उत्सव में ऐसे लोगों को रेखांकित करने और प्रोत्साहित करने के काम की ओर भारत की केंद्रीय और प्रादेशिक सरकारों तथा व्यक्तिगत संस्थाओं ने रुचि ली, जो विदेश में रहते हुए हिंदी में साहित्य रच रहे थे। भारत की प्रमुख पत्रिकाओं जैसे वागर्थ, भाषा और वर्तमान साहित्य ने भी प्रवासी विशेषांक प्रकाशित कर के इन साहित्यकारों को भारतीय साहित्य की प्रमुख धारा से जोड़ने का काम किया। इस तरह इक्कीसवीं सदी के प्रारंभ में आधुनिक साहित्य के अंतर्गत प्रवासी हिंदी साहित्य के नाम से एक नए युग का प्रारंभ हुआ। आज हिन्दी विश्व की सर्वाधिक बोली जानेवाली पाँच भाषाओं में है तो इसका श्रेय उस विशाल प्रवासी समुदाय को भी जाता है, जो भारत से इतर देशों में जाकर बसने के बावजूद हिन्दी को अपनाए हुए हैं। इन देशों में रचा जा रहा साहित्य, उस देश के परिवेश से ही हमारा परिचय नहीं कराता, वरन उनकी भाषा से शब्द भी ग्रहण कर रहा है। फलस्वरूप हिन्दी का भी एक नया स्वरूप विकसित हो रहा है और उस हिन्दी में लिखे गए साहित्य का एक अलग स्वाद है।
(यह आलेख विभिन्न आलेखों के सन्दर्भों पर आधारित है)
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