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हिंदी साहित्य में प्रेम की अभिव्यंजना

प्रेम की बात छिड़ते ही रूमानी-सा माहौल स्वभावतः बन जाता है। बिन रूमानी हुए प्रेम पर चर्चा प्रायः होती ही नहीं है। इसकी अनुभूति मात्र से देह-प्राण खिल उठते हैं। प्रेम की परिभाषा उतनी ही दुष्कर है, जितनी जगत-नियंता की। तभी तो नारद भक्ति-सूत्र, से लेकर आजतक सभी मीमांसा-विशारद प्रेम को अनिर्वचनीय मानते हैं। किन्हीं दो व्यक्तियों के बीच पाये जाने वाले प्रेम के उत्तरोत्तर विकास भावना प्रेमास्पद के रूप गुण, स्वभाव, सान्निध्य के कारण उत्पन्न सुखद अनुभूति होती है जिसमें सदैव हित की भावना निहित रहती है। आधुनिक युग, विज्ञान का युग है, और जब तक कारण-कार्य स्पष्ट न हो, बात तर्क की तुला पर प्रमाणित न होती हो, जन मानस स्वीकार नहीं कर पाता। अत प्रेम विज्ञानवेत्ताओं की शोध का विषय बन चुका है और प्रत्येक क्षेत्र के विद्वानों का पृथक दृष्टिकोण है।

मनोविज्ञान के पंडित प्रेम को आदिम सहजवृत्ति मानते हैं। समाज-शास्त्री इसे सामाजिक सम्बंधों का एक आवेशात्मक अंग मात्र समझते हैं तथा जीवविज्ञानी भौतिक पदार्थ को प्रेम का मूल-तत्त्व मानते हैं जो समय पाकर आगे यौन सम्बध में परिणत हो जाता है। इनके अनुसार प्रेम एक शारीरिक भूख, है जिसकी तृप्ति भौतिक नियमों पर निर्भर है। सगुण व्यक्तित्व या मूर्त-रूप प्रदान किये बग़ैर प्रेमाभिव्यंजना सम्भव नहीं होती। अलौकिक प्रेम या प्रेमाभक्ति में भी वास्तव में हमारी मूल-प्रेम किंवा, काम भावना को ही परिष्कृत रूप प्रदान किया जाता है। आराध्य को समर्पित प्रेम में आसक्ति किंवा इन्द्रियासक्ति विलुप्त हो जाती है और उसके स्थान पर निष्काम प्रेम का पुष्प विकसित हो जाता है। वैदिक साहित्य में ‘काम‘ शब्द का प्रयोग बहुधा ‘कामना‘ के अर्थ में किया जाता था इसलिये कामना मुक्त पुरुष को ‘निष्काम‘ कहा गया है। संत कबीर ने कहा है–

"काम काम सब कोई कहै, काम न चीन्है कोय।
जेती मन की कामना, काम कहीजै सोय॥"

हिन्दी की रीतिकालीन कविता में मूलतः प्रेम के दो रूप का वर्णन हुआ है एक लौकिक प्रेम का और दूसरा पारलौकिक प्रेम का, उसमें भी रीतिकालीन कवियों का दिल लौकिक प्रेम में अधिक रमा, और भक्तिकाल के कवियों ने पारलौकिक प्रेम पर अधिक तवज्जह दी है।

घनानंद की गिनती रीतिकाल के रीतिमुक्त कवियों में होती है। घनान्द के प्रेम की पीड़ रीतिकाल के सभी कवियों में सबसे अधिक है। ठाकुर जहाँ प्रेम को मन की परतीत और बोधा तलवार की धार मानते हैं, वहीं घनानंद ने इसको स्नेह का सीधा मार्ग माना है।

घनान्द मानते हैं प्रेम मार्ग में दूसरों के लिए कोई जगह नहीं होती। प्रेम में परेशान ये कवि बादल तक से कालिदास के यक्ष की तरह अपनी प्रेमिका सुजान के आँगन में  बरस जाने के लिए विनती करता है। कहता है तुम जल नहीं तो मेरी आँखों का आँसू लेकर ही सुजान के पास बरस जाओ, कवि की पंक्ति है —

कबहूँ बा बिसासी सुजान के आँगन
मो अंसुवन को  लै बरसो

‘पदमावत’ महाकाव्य में रत्नसेन ‘आत्मा’ और पद्मावती ‘परमात्मा’ का प्रतीक है। इन्हीं दोनों पात्रों के प्रेमाख्यानों के माध्यम से कवि ने आध्यात्मिक प्रेम का संकेत दिया है। कवि तो सम्पूर्ण सृष्टि को ही उसी परम तत्त्व के प्रेम का प्रतिफल मानता हुआ कहता है –

सँवरौं आदि एक करतारू।
जेइँ जिउ दीन्ह कीन्ह संसारू॥

‘पदमावत’ की कथा के मध्य लौकिक प्रेम का वर्णन करते हुए जायसी ने अलौकिक प्रेम-व्यञ्जना की ओर ही संकेत दिया है। हीरामन तोता सूफ़ी पन्थानुसार गुरु है। कवि ने तोते के माध्यम से ही सूफ़ी प्रेम तत्त्व का निरूपण किया है। पद्मावती के नख-शिख का वर्णन करता हुआ हीरामन तोता बीच-बीच में उस परम सत्ता के अलौकिक सौन्दर्य की झलक तथा आध्यात्मिक संकेत भी देता चलता है। जायसी के आध्यात्मिक प्रेम तत्त्व की विशेषता है – विरह की व्यापकता। मूर्च्छित होने पर भी नायक रत्नसेन (जीव) – को ध्यान में पद्मावती रूपी ‘परम ज्योति’ के सामीप्य की आनन्दमयी अनुभूति होती रहती है। वह संसार से विरत होकर प्रेम समुद्र में डूब जाता है –

अठहु हाथ तन सरवर हिया कँवल तेहि माँह।
नैनन्ह जानहु निअरें कर पहुँचत अवगाह॥

'प्रेम वाटिका' में राधा-कृष्ण को प्रेमोद्यान का मालिन-माली मान कर प्रेम के गूढ़ तत्व का सूक्ष्म निरूपण किया गया है। इस कृति में रसखान ने प्रेम का स्पष्ट रूप में चित्रण किया है। प्रेम की परिभाषा, पहचान, प्रेम का प्रभाव, प्रेम प्रति के साधन एवं प्रेम की पराकाष्ठा 'प्रेम वाटिका' में दिखाई पड़ती है। रसखान द्वारा प्रतिपादित प्रेम लौकिक प्रेम से बहुत ऊँचा है। रसखान ने 53 दोहों में प्रेम का जो स्वरूप प्रस्तुत किया है, वह पूर्णतया मौलिक है। रसखान के काव्य में आलंबन श्रीकृष्ण, गोपियाँ एवं राधा हैं। 'प्रेम वाटिका' में यद्यपि प्रेम सम्बन्धी दोहे हैं, किन्तु रसखान ने उसके माली कृष्ण और मालिन राधा ही को चरितार्थ किया है। आलम्बन-निरूपण में रसखान पूर्णत: सफल हुए हैं। वे गोपियों का वर्णन भी उसी तन्मयता के साथ करते हैं, जिस तन्मयता के साथ कृष्ण का।

प्रेम-अयनि श्रीराधिका, प्रेम-बरन नँदनंद।
प्रेमवाटिका के दोऊ, माली मालिन द्वंद्व॥1॥

महादेवी वर्मा की कविताओं में  प्रेम  एक  मूल  भाव  के  रूप  में  प्रकट  हुआ  है  उनका  प्रेम  अशरीरी  है।  यह  करुणा  से  आप्लावित  प्रेम  है  अलौकिक  दिव्य  सता  के  प्रति  उनकी  इस  प्रणयानुभूति  में  दाम्पत्य  प्रेम  की  झलक  भी  मिलत  है  और  लौकिक  स्पर्श  का  आभास  भी।  महादेवी  की  कविता  में  व्यक्त  प्रेम  इसलिए  भी  विशिष्ट  है  क्योंकि  वह  एक  स्त्री  की  लेखनी  से  किया  गया  स्त्री-मनोभावों  का  चित्रण  है।

जो  तुम  आ  जाते  एक  बार
कितनी  करुणा, कितने  संदेश
पथ  में  बिछ  जाते  वन  पराग
गाता  प्राणों  का  तार - तार
अनुराग  भरा  उन्माद  राग
आँसू  लेते  वे  पद  पखार

जय शंकर प्रसाद के काव्य में प्रेम निरूपण में त्याग और बलिदान का स्वरूप मौजूद है। उनकी चेतना में वेदांत का आनंदवादी दर्शन मौजूद है तो वहीं दूसरी तरफ़ गीता का निष्काम कर्म योग विद्यमान है। यही कारण है कि इनका प्रेम दर्शन और सौंदर्य भाव दोनों ही अपने समय के संकोच से मुक्त होकर दैवत्य को धारण कर लेते हैं, जिसके कारण प्रेम इहलौकि‍क हो जाता है।

मिल गए प्रियतम हमारे मिल गए
यह अलख जीवन सफल अब हो गया
कौन कहता है जगत है दुखमय
यह सरस संसार सुख का सिंधु है।

भारतीय संस्कृति और मानव मूल्यों के पुरोधा कवि मैथलीशरण गुप्त ने अपने काव्य में नारी के तप, त्याग उनकी तितिक्षा सेवा, प्रेम वियोग का मर्मान्तक एवं हृदयी स्पर्शी चित्रण ही नहीं किया है अपितु नारी की गरिमा एवं परोपकार भावना की सुन्दर अभिव्यक्ति भी की है।

भूले तेरा ध्यान राधिका,
तो लेना तू शोध हरे!
झुक, वह वाम कपोल चूम ले
यह दक्षिण अवतंस हरे!
मेरा लोक आज इस लय में
हो जावे विध्वंस हरे!

सुमित्रानंदन पंत को प्रकृति उपासक-सौन्दर्य पूजक कवि कहा जाता है। सुमित्रानंदन पंत का प्रकृति चित्रण सबमें श्रेष्ठ था। उनका जन्म ही बर्फ़ से आच्छादित पर्वतों की अत्यंत आकर्षक घाटी अल्मोड़ा में हुआ था, जिसका प्राकृतिक सौन्दर्य उनकी आत्मा में आत्मसात हो चुका था। झरना, बर्फ़, पुष्प, लता, भँवरा गुंजन, उषा किरण, शीतल पवन, तारों की चुनरी ओढ़े गगन से उतरती संध्या ये सब तो सहज रूप से काव्य का उपादान बने।

आधुनिक युग के कवियों के काव्य में प्रेम के बारे में शंभुनाथ ने कवि और प्रेम के संबंध को इस प्रकार व्यक्त किया है – "यदि कोई कवि होगा, उसके भीतर प्रेम होगा। प्रेम ही आदमी को कवि बनाता है। कवि की ज़रूरत इसलिए होती है कि जब हवाओं में घृणा भरी हो, वह प्रेम का संगीत बाँटता है। वह सुंदरता से प्रेम करना सिखाता है और बताता है, क्या सुंदर है, क्या नहीं। आधुनिकतावादी समय में प्रेम की भाषा ठीक वैसी नहीं हो सकती थी, जैसी क्लासिकल या रोमांटिक युग में थी। बदली जीवन स्थितियों में प्रेम का अनुभव अलग तरह का होगा, पर उसमें क्लासिक और रोमांटिक संस्कारों की गूँज न हो, यह संभव नहीं है। यदि प्रेम में अनुभव की सच्चाई के साथ एक कलात्मक गहराई मौजूद हो, इन संस्कारों की गूँज होगी ज़रूर। अज्ञेय, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल और शमशेर की कविताओं में प्रेम धड़ल्ले से उपस्थित होने वाली विषयवस्तु है।"

ओम निश्चल ने अपने लेख ‘प्रेम के संसार में अज्ञेय’ में लिखा है – "जहाँ तक प्रेम कविताओं का संबंध है, एक दृष्टि से देखें तो, नदियों, समुद्रों, पहाड़ों और शब्दों के बीच आवाजाही करते हुए अज्ञेय का प्रेम भी इसी एकांतिकता की उपज है। उनके प्रेम में आत्म का वैभव है, देने का दर्प है, अहम् का ज्ञापन है। उनके प्रेम में जितना अहम् है, उतनी ही उच्छलता उनकी कविता में तरंगित है। यह उनकी सीमा भले हो, पर वे प्रेम में भी अहम् को न खोने और विसर्जित करने वाले इंसान हैं। जैसे प्रेम में डुबकी लगाकर भी उनका आत्म भीगने से रह जाता हो। उनका ‘मैं’ उन्हें डूबने से उबार लेता हो, तभी तो वे कहते हैं, जियो उस प्यार में जो मैंने तुम्हें दिया है। प्यार में देने का अहम्। अज्ञेय इस अहम् को विसर्जित न कर सकें, गोकि उनके यहाँ एक से एक अपूर्व प्रेम कविताएँ हैं।" (ओम निश्चल, ‘प्रेम के संसार में अज्ञेय’, गद्य कोश)

“क्या कहीं प्यार से इतर
ठौर है कोई
जो इतना दर्द सँभालेगा?
पर मैं कहता हूँ
अरे आज पा गया प्यार मैं वैसा
दर्द नहीं अब मुझको सालेगा।”  (अरी ओ करुणा प्रभामय)

हिंदी गद्य साहित्य में भी प्रेम का उद्दात स्वरूप चित्रित है।

“उसने कहा था” प्रेम, शौर्य और बलिदान की अद्भुत प्रेम-कथा है। प्रथम विश्व युद्ध के समय में लिखी गयी यह प्रेम कथा कई मायनों में अप्रतिम है। प्रथम-दृष्टि-प्रेम तथा साहचर्यजन्य प्रेम दोनों का ही इस प्रेमोदय में सहकार है। इस कहानी के प्रसिद्ध होने का एक कारण यह भी है कि हर स्त्री कहीं-न-कहीं मन में ऐसा ही प्रेमी चाहती है। और हर पुरुष की कल्पना में अपने प्रेम के दिनों का ऐसा ही रूप होता है। लेखक ने नायकों के तमाम गुणों को मिलाकर, उन्हें ठूँस-भरकर लहना सिंह को रचा है। उसके चरित्र के हर पक्ष कर्तव्य, प्रेम और देशप्रेम के तीन बिंदुओं के बीच बड़ी सहज भाषा में रच जाते हैं।

धर्मवीर भारती के उपन्यास गुनाहों के देवता में प्रेम अलग-अलग परिस्थितयों के द्योतक हैं और उन स्थितियों का मानसिक विश्लेषण भी करते हैं। एक मध्यम वर्ग की दुविधाओं को भारती जी ने अपनी क़लम के माध्यम से बहुत ही ख़ूबसूरती से काग़ज़ पर उकेरा है। घटनाओं का चुनाव बहुत ही सावधानी से किया गया है। ऐसी विचारोत्तेजक और कालजयी रचना दशकों में एक बार ही आती है।

"ग़लत मत समझो चन्दर! मैं जानती हूँ कि मैं तुम्हारे लिए राखी के सूत से भी ज़्यादा पवित्र रही हूँ लेकिन मैं जैसी हूँ, मुझे वैसी ही क्यों नहीं रहने देते! मैं किसी से शादी नहीं करूँगी। मैं पापा के पास रहूँगी। शादी को मेरा मन नहीं कहता, मैं क्यों करूँ? तुम ग़ुस्सा मत हो, दुखी मत हो, तुम आज्ञा दोगे तो मैं कुछ भी कर सकती हूँ, लेकिन हत्या करने से पहले यह तो देख लो कि मेरे हृदय में क्या है?"

मन्नू भंडारी की रचना ’यही सच है’ प्रेम को अनुभूत करने की कहानी है। जो पुरुष व स्त्री के संबंधों में प्रेम ग्रहण अनैतिक व अनैतिक सच झूठ, शुभ अशुभ, आज की जो परंपरागत धारणाएँ रही हैं। उससे अलग हटकर या कहानी लिखी गई है। इस कहानी में कर्तव्य और भावना का द्वंद्व है। साथ ही इस कहानी में मनोविश्लेषण की प्रधानता है। यही सच कहानी में मानवीय संवेदनाओं के  महत्व के साथ-साथ प्रेम में नारी मन के सास्वत द्वंद्व पर प्रकाश डाला गया है।

फणीश्वरनाथ रेणु की यह रचना 'तीसरी कसम' हिंदी के सुधि पाठकों के बीच बहुत ही लोकप्रिय है। इस कहानी में रेणु ने हिरामन और उसके आंचलिक समाज को एकदम जीवंत कर दिया है। रेणु कहानियाँ लिखते नहीं, बुनते हैं, जैसे कबीर चादर बुनते थे और उसी तर्ज़ पर अपनी कविता भी। कबीर ने चादर बुनने की प्रक्रिया अपने एक पद में बतलायी है। ठोंक-ठोंक के बीनी चदरिया। वह चादर ठोंक-ठोंक कर बुनते हैं, ढीले-ढाले ढंग से नहीं। उनकी बुनावट का यह कसाव ही उनकी कला और कविता  का उत्कर्ष  है।

प्रेमचंद का साहित्य प्रेम को सम्पूर्णता प्रदान करता है उनके साहित्य में प्रेम की दृष्टि ग़ौर करने लायक़ है। उन्होंने नारी में प्रेम से ज़्यादा श्रद्धा को तवज्जो दी, श्रद्धा को ही महान् साबित किया और उनकी नज़र में प्रेम, हमेशा दोयम दर्जे का ही रहा। वे लिखते हैं– 'प्रेम सीधी-सादी गऊ नहीं, खूंखार शेर है, जो अपने शिकार पर किसी की दृष्टि भी नहीं पड़ने देता। श्रद्धा तो अपने को मिटा डालती है और अपने मिट जाने को ही अपना भगवान बना लेती है, प्रेम अधिकार करना चाहता है।' वह लिखते हैं कि 'जब पुरुष में नारी के गुण आ जाते हैं तो वो महात्मा बन जाता है और अगर नारी में पुरुष के गुण आ जाये तो वो कुलटा बन जाती है।' गोदान में उद्धृत ये पंक्तियाँ प्रेमचंद का नारी को एवं उसके प्रेम को देखने का संपूर्ण नज़रिया प्रस्तुत करती हैं।

वस्तुतः हिंदी साहित्य में प्रेम सृजनात्मकता के उत्कृष्ट शिखर पर है। प्रेम मनुष्यता की चरम अभिव्यक्ति है और ज़ाहिर है कि शोषक तंत्र के ख़िलाफ़ प्रतिरोध की भी। सदियों से प्रेम का प्रबल चेहरा प्लेटोनिक क़िस्म का रहा है। दुनिया-भर की अमर प्रेम साहित्य जो लोक की स्मृति में दर्ज हैं, अपने प्लेटोनिक स्वभाव के कारण ये साहित्य मानव समाज का प्रतिबिम्ब हैं। ये प्रेम अभिव्यक्ति केवल लोक की स्मृति में नहीं, उसके मौखिक और लिखित साहित्य में भी, आदर के साथ स्थान पाती हैं। इनका प्रतिबिंबन व्यापक रूप से शिष्ट साहित्य एवं शिष्ट कला के विभिन्न रूपों में संभव हुआ है।

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