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चुप क्यों हो

मैं चुप हूँ क्योंकि मेरे बोलने का
कोई सार्थक अर्थ नहीं है।
एक अहसास मेरे अंदर चीख़ता है।
और चुप हो जाता है।
पलक मूँदे प्राण खींच कर
जीवन के अनकहे अर्ध सत्य  
मेरे मौन में समा जाते हैं।
ज़िन्दगी की इस धूप में
शत-सहस्त्र अहसास
चीख़ते हैं भेड़ियों से
और मैं चुपचाप
अनिमेष, स्तब्ध
अपने अंतस अँधियारे को
समेटते हुए रचता रहता हूँ मौन।
  
बोलना बहुत सरल है।
मौन को साधना बहुत कठिन।
बोलने में तारे हैं, हवाएँ हैं।
मौसम हैं चाँदनी है, धूप है सूरज है।
पेड़ की छाया है काया है और यह माया है।
तुम हो ये संसार है।
बोलना च्युत होना है।
मौन ब्रह्मचर्य है।
 
जीवन के कुरुक्षेत्र में
हर शख़्स अपने शब्दबाण लिए
भीष्म, अर्जुन, कर्ण, द्रोण, 
दुर्योधन, धर्मराज के चरित्र समेटे
ढूँढ़ रहा है शांति के कृष्ण को।
अबोधों की ये भीड़
अंतस के सन्नाटे को
खोखले खनकते शब्दों से चिल्ला रही है।
पर मैं चुप हूँ क्योंकि मैं नहीं जानता
अर्थहीन शब्दों में कैसे बोला जाता है।
 
मौन के निहित और सम्भाव्य अर्थों में
हमेशा रहती है सृजन की सम्भावना।
अगर आपके बोलने में मौन है
तो आप अर्थ का पूरा ऐश्वर्य
कर सकते हैं सम्प्रेषित।
कविता शब्दों में नहीं होती
कविता शब्दों के बीच नीरवता में होती है।
 
मैंने हमेशा मौन ही लिखा है।
संघर्ष के शोर में
मैंने सदा मौन ही बोला है।
इसलिए मैं चुप हूँ
 
हवा के ख़ौफ़ से ख़ामोश हैं टूटी खिड़कियाँ।
गुमशुदा दरवाज़ों पर ताले नहीं होते।

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