लक्ष्मण शक्ति
नाट्य-साहित्य | काव्य नाटक डॉ. सुशील कुमार शर्मा15 Dec 2024 (अंक: 267, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
(काव्य नाटिका)
काव्यानुवाद: डॉ. सुशील शर्मा
पात्र: राम, लक्ष्मण, भरत, हनुमान, मेघनाद, माल्यवंत, वैद्य सुषेण एवं अन्य
दृश्य – १
(दृश्य-युद्ध प्रारम्भ हो चुका था, दोनों ओर से भयंकर आक्रमण हो रहे थे, वानरों ने रावण की बहुत सी सेना का संहार कर दिया था, रात में रावण ने सभा बुलाई उस सभा में रावण का नाना माल्यवंत जो कि वृद्ध एवं सबसे भरोसेमंद मंत्री था उसने रावण को समझाया।)
माल्यवंत:
रावण मेरी सीख सुनो तुम
नहीं राम से बैर बनाओ।
सब का भला इसी में रावण
तुम सीता जल्दी लौटाओ।
जब से तुम सीता को लाये
अशगुन हर पल लंका होते
बुद्धि खोल कर सोचो रावण
बैर बीज के क्यों तुम बोते।
वेद ने जिसके यश को गाया
नारायण के रूप राम हैं।
हिरण्याक्ष, कश्यपु को मारा
नरहरि केसरी मोक्षधाम हैं।
कालों के भी काल राम हैं
दुष्ट वनों के दावानल हैं।
ज्ञान गुणों के धाम राम हैं
शिव ब्रह्मा से सेवित बल हैं।
अतः जानकी उनको देकर
शरण राम की तुम आ जाओ।
राम भजन कर बैर छोड़ दो
राम कृपा का फल पा जाओ।
रावण:
(क्रोध में)
मार डालता तुझे अभी मैं
यदि नहीं तू बूढ़ा होता।
निकल अभी तू भरी सभा से
व्यर्थ में तू तन को ढोता।
वीरों से इस भरी सभा में
कायर का कोई काम नहीं।
या तो रहे दशानन जीवित
या दुनिया में राम नहीं।
मेघनाद:
प्रातः कौतुक सब देखेंगे
युद्ध भयानक अब होगा
वर्णन मुख से करूँ अभी क्या
सब देखेंगे जब होगा।
रावण:
धन्य-धन्य तुम पुत्र हमारे
राज्य तुम्हीं से अब रक्षित।
कल रण में तुम ही जीतोगे
बाणों से वानर भक्षित।
तुम हो अंश दशानन के
वीरों के तुम नायक हो
रावण के तुम आस केंद्र हो
विजय के तुम परिचायक हो।
दृश्य – २
(प्रातः वानरों ने लंका पर धावा बोला, वानरों ने दुर्गम क़िले को घेर लिया। विकट वानर योद्धा भिड़ते हैं, घायल हो जाते हैं, उनके शरीर जर्जर हो जाते हैं, तब भी वे हिम्मत नहीं हारते। वे पहाड़ उठाकर उसे क़िले पर फेंकते हैं। बहुत सारे राक्षस मारे जाते हैं। मेघनाद ग़ुस्से में आकर दोनों भाइयों को ललकारता है।)
मेघनाद:
कहाँ कौसलाधीश धनुर्धर
कहाँ लक्ष्मण वीर है।
कहाँ द्विविद नल नील धुरंधर
अंगद हनु बलधीर है।
वह सुग्रीव भ्रात का घाती
आज उसे न छोड़ूँगा
कहाँ विभीषण भ्राता द्रोही
उसका कंठ मैं तोड़ूँगा।
मेरे बाणों से न अब रण में
कोई वानर बच पायेगा।
सम्मुख मेरे जो भी होगा
मृत्यु गाल समायेगा।
(मेघनाद बाणों के समूह छोड़ने लगा। मानो बहुत से पंख वाले साँप दौड़े जा रहे हों। जहाँ-तहाँ वानर गिरते दिखाई पड़ने लगे, कोई भी उसके सम्मुख रण में नहीं टिक पा रहा था, वानरों की यह दशा देख हनुमान जी ने ज़ोर से गरज कर कहा।)
हनुमान:
तेरे सम्मुख मैं हूँ रण में
काल तुम्हारा आया है।
अरे सँभल जा रावण सुत तू
सिर पर मृत्यु साया है।
मेघनाद:
कहाँ छुपाये तूने तपसी
उन्हें सामने आने दे
प्राण दान तुझको दे दूँगा
मुझको उनको पाने दे।
हनुमान:
अति मूर्ख तू मेघनाद है
राम चराचर वीर प्रवर हैं।
तू तिनका तलहट भूमि का
राम अटल गिरि मेरु शिखर हैं।
जाकर रावण से कह देना
मृत्यु निकट उसकी आयी है
राम विमुख जो भी हो जाता
हार सदा उसने पायी है।
प्रभु का भक्त पवनसुत हूँ मैं
आकर मुझसे युद्ध करो।
अपने पिता की बद करनी का
प्राण से ऋण तुम आज भरो।
(पवनसुत हनुमान ने क्रोध में एक बड़ा भारी पहाड़ उखाड़ लिया और उसे मेघनाद पर छोड़ा, पहाड़ों को आते देखकर वह आकाश में उड़ गया। मेघनाद के रथ, सारथी और घोड़े सब नष्ट हो गए। हनुमान जी उसे बार-बार ललकारते हैं। पर वह निकट नहीं आता, क्योंकि वह उनके बल का मर्म जानता था।)
(नेपथ्य)
रघुवर के फिर पास गया वह
अस्त्र शस्त्र उन पर छोड़े।
रण में माया को फैलाया
रघुवर ने सब छल तोड़े।
देख राम सामर्थ्य असीमित
मेघनाद लज्जित था भारी।
मायापति पर ही मूर्ख ने
फैलाई निज माया सारी।
साँप का बच्चा लेकर जैसे
गरुड़ को कोई डराता हो।
कोई बालक पहलवान को
निज सामर्थ्य दिखाता हो।
गगन से अंगारों की वर्षा
फूटी पृथ्वी से जल धारा।
प्रेत पिशाच ठहाके मारें
मारो काटो का दे नारा।
देख निशाचर की यह माया
सारे वानर थे अकुलाये।
कौतुक देख निशाचर का यह
रघुवर मन ही मन मुस्काये।
एक बाण से ही रघुवर ने
काटी मेघनाद की माया।
गहन तमस के बीच में जैसे
चमकीला सूरज उग आया।
लखन हाथ में लिए धनुष थे
आँखों में अंगारे थे।
श्री रघुवर की आज्ञा पाकर
राक्षस सब संहारे थे।
हिम पर्वत सा गौर वर्ण था
नेत्र क्रोध से लाल थे।
थीं विशाल अजानु भुजाएँ
रक्तिम गोरे गाल थे।
रण गड्ढों में रक्त भरा था
ऊपर धूल जमी थी ऐसे
रक्तिम अंगारों के ऊपर
राख की परत जमी हो जैसे।
घायल वीर सुशोभित ऐसे,
जैसे फूले हुए पलास।
केहरि जैसे लखन गरजते
सिंह समान मेघ की हास।
छल-बल से राक्षस सुत लड़ता
माया सेना पर छोड़ी।
फिर अनंत ने एक बाण से
उसकी सब माया तोड़ी।
तोड़ दिया उसका रथ जैसे
था वो तिनके का टुकड़ा।
एक बाण से हता सारथी
बाणों से छेदा मुखड़ा।
छिन्न भिन्न तन रावण सुत का
संकट में उसके थे प्राण।
वीरघातिनी शक्ति चढ़ा कर
लखन पे उसने छोड़ा बाण।
लखन हृदय जब शक्ति लगी वह
तन पर मूर्छा छाई थी।
अट्टहास सुन मेघनाद का
सब सेना घबराई थी।
निर्भय होकर रावण सुत जब
पास लखन के था आया।
किये प्रयत्न लाख मिल सबने
लखन को नहीं हिला पाया।
तब हनुमत ने आगे बढ़ कर
लखन शरीर उठाया था।
फिर रघुवर के श्री चरणों में
लखन शरीर लिटाया था।
देख दशा अपने भ्राता की
शोक से रघुवर विह्वल हुए।
लखन को अपनी गोद में लेकर
प्रेम से सारे अंग छुए।
(जामवंत ने कहा कि लंका में एक प्रसिद्ध वैद्य सुषेण रहता है वही लखन के प्राण बचा सकता है। हनुमान जी तुरंत सुषेण को उसके घर समेत उठा लाये। सुषेण ने लखन की जाँच की और हनुमान जी से कहा तुरंत संजीवनी बूटी लेकर आओ जो हिमालय के द्रोण पर्वत पर उगती है। हनुमान जी तुरंत श्री राम जी के चरणों में सिर नवा कर संजीवनी बूटी लेने उड़ गए। जब रावण को यह पता चला तो उसने कालनेमि नामक राक्षस को हनुमान का रास्ता रोकने का आदेश दिया। कालनेमि ने रावण को बहुत समझाया किन्तु रावण क्रोधित हो गया अंत में कालनेमि ने सोचा इस पापी के हाथ से मरने से अच्छा है रामदूत के हाथों मेरी मृत्यु हो।)
(नेपथ्य)
माया से उस कालनेमि ने
सुन्दर आश्रम एक बनाया
मुनि का वेश बनाकर उसने
हनुमत के मन भ्रम फैलाया।
हनुमत ने मुनि वेश देख कर
कालनेमि को शीश नवाया।
राम नाम के भजन सुना कर
कालनेमि ने पास बिठाया।
दृश्य – ३
हनुमान:
हे मुनि मुझको जल पीना है
यदि आज्ञा मुनि की मैं पाऊँ
पहले स्वच्छ स्नान करूँ मैं
राम नाम धुन तब मैं गाऊँ।
कालनेमि:
गुरु दीक्षा मैं तुमको दूँगा
ज्ञान तुम्हारा आज बढ़ाऊँ
जाओ सर में प्यास बुझा लो
राम नाम महिमा समझाऊँ।
(तालाब में प्रवेश करते ही एक मगरी ने अकुलाकर उसी समय हनुमान जी का पैर पकड़ लिया। हनुमान जी ने उसे मार डाला। तब वह दिव्य देह धारण करके हनुमान जी के सामने प्रकट हुई उसने कहा प्रभु ये कोई मुनि नहीं राक्षस है।)
हनुमान:
(तालाब से लौट कर)
मुनिवर आप ज्ञान के सागर
हृदय बात मेरी रख लेना।
गुरु दक्षिणा पहले लेलो
ज्ञान बाद में मुझको देना॥
हनुमत ने फिर पूँछ पसारी
कालनेमि को उठा के पटका
फोड़ा मस्तक तन को तोड़ा
पूँछ से मारा उसको झटका।
राम नाम का कर उच्चारण
कालनेमि ने त्यागे प्राण।
तीव्र गति से हनुमत उड़ गए
ज्यों छूटा हो रघुवर बाण।
द्रोण गिरी पर हनुमत पहुँचे
पर औषधि पहचान न आयी।
लिया उखाड़ द्रोण गिरि जड़ से
हनुमत उड़े अयोध्या पायी।
देख गगन में अति विशाल तन
भरत ने जानी निश्चर माया
उठा धनुष संधाना फिर शर
मूर्छित गिरी हनु की काया।
राम नाम का कर उच्चारण
भूमि गिरे हनुमत बलवीरा
सुनकर राम नाम अति सुन्दर
दौड़े भरत रंग रनधीरा
हनुमान की दशा देख कर
हृदय उठा कर उन्हें लगाया
मूर्छित विकल हनु पीड़ा से
गोद हनु ले उन्हें जगाया।
हृदय दुखी नेत्र में आँसू
भरत हृदय था अति पछताया।
बिना सोच कर बाण चलाया
स्वयं का कर्म नहीं मन भाया।
दृश्य – ४
भरत:
उसी विधि ने यह दुःख दीना
जिसने राम वियोग कराया
विधि विपरीत हुआ है मुझसे
राम भक्त पर बाण चलाया।
तन मन वचन कर्म से मैंने
राम कमल पद प्रेम किया हो
कपट रहित प्रभु के चरणों में
यदि मैंने निज ध्यान दिया हो।
यदि प्रसन्न रघुवर हों मुझ पर
रहित पीर से यह वानर हो।
अटल कृपा यदि प्रभु की मुझ पर
कष्ट रहित तन कपिवर हो।
सुनकर इतने वचन भरत के
हनुमत के सब कष्ट भगे।
कोसलपति श्री रामचंद्र जय
कहकर हनुमत शीघ्र जगे।
राम भक्त यह जान भरत ने
हनुमत को निज हृदय लगाया।
पुलकित तन था नेत्र सजल थे
हृदय भरत सुख था पाया।
भरत:
अनुज समेत राम सिय कैसे
मुझसे सब सन्देश कहो
कुशल क्षेम सब मुझे सुनाओ
प्रेम मगन तुम हृदय गहो।
कैसे हैं प्रभु रघुवर मेरे
कैसी सीता माता है
कैसा मेरा अनुज लखन है
मेरे बिन रह पाता है।
हनुमान:
पीड़ा में हैं अनुज लखन प्रभु
कष्ट में सीता माता हैं
रावण के संग युद्ध चल रहा
कष्ट में रघुवर भ्राता हैं।
भरत:
(सुनकर पूरी कथा युद्ध की
भरत हृदय अति दुःख पाया
क्यों जन्मा तू भरत अभागे
राम काज में काम न आया।
मन में धीरज रखे भरत थे
हृदय दुखी मन कष्ट अपार
थे असहाय हृदय में व्याकुल
हनु से बोले धैर्य को धार।)
देर यदि हनुमत अब होगी
संकट में हों अनुज के प्राण।
पर्वत सहित बाण पर बैठो
शीघ्र उड़ेगा मेरा बाण।
हनुमान:
(हनुमत ने मन ही मन सोचा
कैसे सहे बाण मम भार
राम कृपा को मन में धारे
हनुमत ने प्रकटा आभार।)
चरण वंदना करि भरत की
बोले हनुमत वचन विनीत
कृपा आपकी है प्रभु मुझ पर
जाऊँगा में समय से जीत।
दृश्य – ५
(वहाँ श्री राम लक्ष्मण को मूर्छित देख कर विलाप कर रहे हैं।)
राम:
बीत गई अब अर्ध निशा भी
हनुमत अब तक न आये
लखन हृदय के मेरे टुकड़े
मेरा मन बैठा जाए
तुम कितने भोले हो भैया
मेरा दुःख तुमने पाया
मेरे हित सबको ही त्यागा
रहे सदा बन कर छाया।
कहाँ गया अब प्रेम तुम्हारा
भाई क्यों तुम सोये हो
हृदय विकल अति व्यथित हमारा
कौन जगत में खोये हो
बंधु विछोह समर में होगा
यदि जानता में ऐसा
नहीं पिता का वचन निभाता
हाय कष्ट दिया कैसा
धन स्त्री घर पुत्र स्वजन सब
बार बार मिल जाते हैं
एक बार सहोदर मिलता
माँ के गर्भ समाते हैं।
पंख बिना पक्षी हो जैसे
मणि बिन विषधर का घेरा
सूँड़ बिना दीन गज जैसे
तेरे बिन जीवन मेरा।
स्त्री हानि भले सह लेता
जगत का अपयश सिर धर कर
कौन सा मुँह ले अवध को लौटूँ
प्यारे बंधु को खो कर
तुम माता के प्राण पियारे
मेरे तुम हितकारी हो
सौंपा था माता ने मुझको
मेरे आज्ञाकारी हो।
उठो बंधु मुझको समझाओ
क्या उत्तर उनको दूँगा
यदि नहीं तुम आज उठे तो
अपने प्राण छोड़ दूँगा।
(नेपथ्य)
अश्रु उमड़ कर कमल नयन से
झरझरझर झर झरते हैं
राम चंद्र की जय जय करके
हनुमत भूमि उतरते हैं।
हनुमान को देख राम जी
हृदय से उन्हें लगाते हैं
वैद्य सुषेण की दवा शीघ्र ही
लखन को राम पिलाते हैं।
राम चंद्र की जय जय करते
लखन मूर्छा से जागे।
कहाँ छिपा है मेघनाद तू
रण की ओर लखन भागे।
वानर कपि भालू सब हर्षित
प्रभु ने लखन को हृदय लगाया
वैद्य सुषेण को हनुमान ने
सकुशल लंका में पहुँचाया।
(नेपथ्य में प्रार्थना)
लक्ष्मण वंदना
जय लखन धीर, गौरव गंभीर।
जय राम वीर, अतुलित प्रवीर।
अवधेश वंश, जय शत्रु दंश।
जय हरि सुवंश, जय दिग्दिगंश।
जय राम बंधु, जय कृपा सिंधु।
उर्मिल सुगंधु, सोमिल प्रबंधु।
हे पाप नाश, हे अनाकाश।
हे अमृताश, हे चिदाकाश।
गौरव निकुंज, हे आत्म पुंज।
हे नयन कंज, कोमल सुअंज।
सौमित्र पुत्र, हे राम चित्र।
पावन पवित्र, उत्कट चरित्र।
हे मेघ माल, त्रिभुवन भुआल।
विक्रम कराल, हे भुज विशाल।
जय अवध भाल जय शत्रु काल।
जय रण धमाल, जय लखन लाल।
(पटाक्षेप)
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