मातृ दिवस और पितृ दिवस: कैलेंडर पर टँगे शब्द
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी डॉ. सुशील कुमार शर्मा1 Jul 2025 (अंक: 280, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
मातृ दिवस और पितृ दिवस-ये दो ऐसे ‘विशेष’ दिन हैं, जिनका आविष्कार शायद उस महान आत्मा ने किया होगा, जिसने इंसानी फ़ितरत को बख़ूबी समझा। यह फ़ितरत, जो पूरे साल माँ-बाप को ‘फ़ॉर ग्रांटेड’ लेने में कोई कसर नहीं छोड़ती, लेकिन साल में एक-एक दिन के लिए अचानक ‘संस्कारी’ और ‘कर्तव्यनिष्ठ’ हो उठती है। क्या ख़ूब तमाशा है! लगता है, हमने अपनी भावनाओं को भी कैलेंडर के पन्नों पर अंकित करवा दिया है, ताकि साल के बाक़ी 363 दिन हमें याद ही न करना पड़े कि हमारे जीवन में इन दो शख़्सियतों का क्या स्थान है।
मातृ दिवस: एक दिन की ‘रानी’ और 364 दिन की ‘नौकरानी‘?
आह, मातृ दिवस! इस दिन सुबह उठते ही सोशल मीडिया की टाइमलाइन पर शुभकामनाओं की ऐसी बाढ़ आती है, मानो माँओं का राष्ट्रीय त्योहार हो। हर बेटा-बेटी अचानक से कवियों और दार्शनिकों में तब्दील हो जाता है। “मेरी प्यारी माँ, आप जैसा कोई नहीं!”, “माँ, आप मेरी दुनिया हो!”, “मॉम, यू आर द बेस्ट!”ऐसे जुमले देखकर लगता है, कहीं हमारी माँएँ इस बात से कनफ़्यूज़ न हो जाएँ कि उन्हें वाक़ई में इतना सम्मान मिल रहा है, या ये बस ‘इंटरनेट-ज्ञान’ है।
इस दिन माँ को सुबह की चाय से लेकर रात के खाने तक ‘वीआईपी ट्रीटमेंट’ मिलता है। बच्चे बड़े प्यार से नाश्ता बनाएँगे (भले ही वो जल जाए या नमक ज़्यादा हो जाए), पिताजी बेचारे भी इस ‘क्रांति’ में अपना योगदान देंगे, क्योंकि उन्हें पता है, अगर उन्होंने माँ को ख़ुश न किया, तो अगले दिन से उनकी अपनी ख़ैर नहीं। गिफ़्ट्स की भरमार लग जाती है—कोई साड़ी, कोई कुकिंग सेट, कोई मोबाइल फोन (ताकि माँ और ज़्यादा रील्स देख सकें)। माँ भी बड़े चाव से स्वीकार करती है, भले ही उस साड़ी को अलमारी में सबसे निचले शेल्फ़ पर जगह मिले, या कुकिंग सेट में दाल-चावल ही पकाने हों।
मगर इस ‘एक दिवसीय उत्सव’ का असली व्यंग्य तो तब शुरू होता है, जब मातृ दिवस का सूरज ढलता है। अगले दिन से माँ फिर वही ‘होम मैनेजर‘, ‘पर्सनल शेफ़्फ़‘, ‘क्लीनर‘, ‘धोबिन’ और ‘24 घंटे का अटेंशन सीकर’ बन जाती हैं। “मम्मी, वो मेरा स्कूल बैग कहाँ है?”, “दाल में नमक क्यों कम है?”, “मेरे कपड़े क्यों नहीं धोए?”, “टीवी बंद करो, पूरा दिन क्या देखती रहती हो?” ये वो जुमले हैं, जो मातृ दिवस के अगले 364 दिन तक माँ के कानों में शहद की बजाय नींबू बनकर टपकते हैं। ऐसा लगता है, जैसे मातृ दिवस कोई ‘सरकारी स्कीम’ हो, जिसका लाभ सिर्फ़ 24 घंटे के लिए मिलता है, और उसके बाद आप फिर अपनी पुरानी ‘औक़ात’ पर लौट आते हैं। वो ‘सुपरमॉम’ का ख़िताब तो बस उस एक दिन के लिए मिला था, बाक़ी दिन तो वो ‘काम वाली बाई’ की भूमिका में ही नज़र आती हैं।
पितृ दिवस: एटीएम का आभार या ‘कुछ नहीं चाहिए’ का दोहराव?
और अब बात करते हैं पितृ दिवस की। ये दिन थोड़ा कम शोरगुल वाला होता है, क्योंकि पिताजी स्वभाव से ही थोड़े ‘शांत’ क़िस्म के होते हैं। यहाँ सोशल मीडिया पर भी तस्वीरें थोड़ी कम और कैप्शन थोड़े ‘गंभीर’ होते हैं, “मेरे हीरो पापा”, “आपसे ही सब सीखा”, “धन्यवाद पापा”। बच्चे इस दिन भी अपनी ‘औपचारिकता’ निभाते हैं। कोई पिताजी को टाई देगा, कोई शर्ट, और कुछ तो सीधे उनसे पूछ लेंगे, “पापा, क्या चाहिए आपको?” और पिताजी का वही चिर-परिचित जवाब आएगा, “अरे बेटा, मुझे कुछ नहीं चाहिए। बस तुम ख़ुश रहो।”
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