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नाम_जपो_किरत_करो_वंड_छको


(प्रकाश पर्व पर कविता) 

 

आज दीप नहीं जले हैं, 
आज चेतना का सूर्य उदित हुआ है 
वह ज्योति जो भीतर के तम को हर ले, 
और आत्मा में एक ओंकार की निनाद भर दे। 
 
गुरु नानक जी
आपके वचन समय के पार जाकर
मनुष्य के भीतर सोए हुए 
दैवी स्वरूप को जगाते हैं। 
जब मतभेद की दीवारों ने 
इंसान को क़ैद किया, 
तब आपने कहा 
ना कोई हिन्दू, ना मुसलमान, 
और उस वाणी से पृथ्वी ने 
प्रेम का नया अर्थ जाना। 
 
तुम्हारी करुणा धर्म बनी, 
तुम्हारा प्रेम ईश्वर बना, 
और तुम्हारा जीवन 
मानवता की साधना का महामंत्र। 
 
तुमने बताया 
भक्ति घंटों की ध्वनि में नहीं, 
वह तो हर रोटी बाँटने के क्षण में है, 
हर प्यास बुझाने के कर्म में है, 
हर सच्चे श्रम और सेवा में है, 
जहाँ अहं मिटता है, 
वहाँ ही ईश्वर का दरबार सजता है। 
 
रावी के किनारे जो शब्द आपने गाए थे, 
वो आज भी बह रहे हैं 
नदियों, हवाओं और हृदयों में 
“नाम जपो, किरत करो, वंड छको।” 
यह कोई उपदेश नहीं, 
यह तो जीवन का अनुष्ठान है 
जो आत्मा को स्नान कराता है, 
और मनुष्य को मनुष्य बनाता है। 
 
जब अंधकार ने दिशाओं को निगल लिया था, 
तब आपकी ज्योति ने दिशा दी 
आपके चरणों की रेखाओं से
आज भी गुरुद्वारों में प्रकाश झरता है, 
संगतों में प्रेम की ध्वनि गूँजती है, 
और हर शिष्य के भीतर एक दीया जल उठता है। 
 
आज जब स्वार्थ ने करुणा को ढँक लिया है, 
और मनुष्य का नेत्र बाह्य जगत में ही उलझा है, 
तब तुम्हारे शब्द फिर दीप बनकर उतरते हैं 
सब में जोत, जोत है सोई, 
किसे भेद, किसे दूजा कोई? 
 
गुरु नानक जी
आपका प्रकाश कोई उत्सव नहीं, 
वह तो शाश्वत अनुभूति है 
जो मन के अंधकार में उतरकर
प्रेम का ब्रह्म स्थापित करती है। 
 
सच्चा प्रकाश पर्व वही है 
जब भीतर की रात्रि मिटती है, 
और आत्मा का दीप
सबके लिए एक समान जल उठता है 
निष्काम, निरंतर, निर्मल। 

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