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भारतीय जीवन मूल्य

भारत दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यताओं में से एक है। इस तथ्य के कारण, भारत में नैतिक शास्त्रों का एक विशाल भंडार है, जिसने युगों से हमारी सभ्यता का मार्गदर्शन किया। भारतीय नैतिकता की नींव समाज की पूजा, प्रार्थना और आदर्शों और सिद्धांतों के रूप में आध्यात्मिक और धार्मिक मान्यताओं में देखी जा सकती है। भारत में, नैतिकता और धर्म के बीच अंतरंग संबंध मौजूद है। नैतिक नियम लोगों के सामाजिक और आध्यात्मिक जीवन के तरीक़ों का एक संकेतक है। मानव जीवन का सच्चा सार सांसारिक आनंद और दुखों के बीच जीना है। नैतिकता मुख्य रूप से दुनिया के नैतिक मुद्दों से संबंधित है। सच्चा धर्म नैतिक गुणों पर ज़ोर देता है। नैतिक संहिता के अनुसार लोगों को अपने कर्तव्यों का निर्वहन करना आवश्यक है। नैतिकता दो प्रकार की होती है, व्यक्तिगत और सामाजिक। व्यक्तिगत नैतिकता अच्छे गुणों का सूचक है जो व्यक्तिगत भलाई और ख़ुशी के लिए आवश्यक है। सामाजिक नैतिकता उन मूल्यों का प्रतिनिधित्व करती है जो सामाजिक व्यवस्था और सद्भाव के लिए आवश्यक हैं। यद्यपि हर युग में नैतिकता और आचरण पर विभिन्न मत रहे हैं, लेकिन यह बहुत स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि मानव विज्ञान मानव गतिविधियों और उद्देश्यों के सामान्य सिद्धांतों का अध्ययन और विश्लेषण है। अधिकांश लेखकों और दार्शनिकों ने सर्वसम्मति व्यक्त की है कि नैतिक शास्त्र मूल्यों और मानकों पर अधिक केंद्रित है।

नैतिकता व्यक्तिगत और सामूहिक व्यवहार  के क्षेत्र में नैतिक मुद्दों का अध्ययन है। यह शब्द कभी-कभी कला और विज्ञान, धार्मिक विश्वासों और सांस्कृतिक प्राथमिकताओं में मुद्दों का वर्णन करने के लिए भी अधिक उपयोग किया जाता है। पेशेवर क्षेत्र जो नैतिक मुद्दों से संबंधित हैं और इसमें चिकित्सा, व्यापार, व्यवसाय, क़ानून आदि शामिल हैं। नैतिकता और मूल्य इस बात को महत्व देते हैं कि जीवित रहने या करने के लिए सबसे अच्छा क्या है?  जीवन के मूल सिद्धांतों को भाषा के अधिग्रहण के अलावा और व्यापक रूप से विकसित साहित्य के अलावा किसी और द्वारा नहीं सीखा जा सकता है। स्वयं का आत्मनिरीक्षण और बीते हुए कल की समीक्षा  विशेष रूप से नैतिक दृष्टिकोण में किसी भी आयाम में आगे के विकास के लिए बहुत ज़रूरी  है। सार्वभौमिक संस्कृति का विकास पूरी तरह से भाषा के विकास पर निर्भर करता है। विकास प्रक्रिया के प्रत्येक चरण को भारतीय संस्कृति की उत्पत्ति और जीविका के विशेष संदर्भ में नैतिक मूल्यों द्वारा नियंत्रित किया जाता है। भारतीय जीवन शैली, दर्शन और नैतिक मूल्यों के पोषण के लिए, रामायण, और भागवतम जैसे महाकाव्य और उपनिषदों, आरण्यकों जैसे साहित्य के विभिन्न रूपों में बहुत गंभीरता से व्याख्यायित है।  साहित्य के माध्यम से निरंतर पुनर्जागरण की क्रिया नैतिक मूल्यों के पुनर्स्थापन में सहायक हुई है। समृद्ध साहित्य से समृद्ध संस्कृति ही भारतीय साहित्य और भारतीय संस्कृति में आत्मनिरीक्षण और पूर्वव्यापीकरण का माध्यम है  एवं इसके माध्यम से नैतिकता और मूल्यों पर व्यवस्थित और वैचारिक विश्लेषण प्रभावित है  जो मूल्य संवर्धन पर कालानुक्रमिक प्रभाव छोड़ता है। नैतिकता का तात्पर्य समाज द्वारा निर्धारित कुछ सिद्धांतों और आचार संहिता के दायरे में रहने वाले जीवन से है। नैतिकता सबसे बुनियादी तत्वों में से एक है जो अच्छे और बुरे के बीच की रेखा का सीमांकन करता है। यह हमें यह बताने का समाज का तरीक़ा है कि सभी की भलाई के लिए क्या हासिल करना है। नैतिकता का तत्व वह है जो मानव समाज को जानवरों से अलग करता है।

व्यक्ति की प्रतिष्ठा का आकलन उसके जीवन-मूल्यों से किया जाता है। जीवन-मूल्य सफलता के लिए ज़रूरी हैं। वैदिक काल से होते हुए, गौतम बुद्ध और महात्मा गाँधी तक अनेक महापुरुष जीवन-मूल्यों के कारण इतिहास में अमर हो गए। जीवन मूल्य व्यक्ति को सकारात्मक बनाते हैं। दुनिया की बहुत सी संस्कृतियाँ इसलिए आज लुप्त हो गईं, क्योंकि  उनके मूल तत्वों में कुछ दोष समा गये थे। भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्वों में विविधता तथा विविधता में एकता सबसे महत्वपूर्ण हैं। भारतीय संस्कृति का सबसे प्राचीनतम स्वरूप आज भी विस्तृत क्षेत्र में फैला हुआ हैं। अनेक पंथों और मतों के अनुयायी होने के बावजूद भक्तिकाल में अनेक संतों और भक्तों ने अपनी भक्ति की विभिन्न धाराओं के माध्यम से राष्ट्रीय समन्वय की स्थापना की। ज्ञान और कर्म के दो विभिन्न क्षेत्र क्षेत्र भी जीवन की साधना के ही दो मार्ग लेकिन मंज़िल एक दिखाई देती है।

प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन में उसका मार्गदर्शन करने के लिए कुछ नैतिक दिशानिर्देशों की आवश्यकता होती है। ये नैतिक दिशानिर्देश विभिन्न स्रोतों से प्राप्त होते हैं। भारत में, नैतिकता का एक प्रमुख स्रोत प्राचीन धर्मग्रंथों में पाया जाता है आम तौर पर, वेद और स्मृतियों  को नैतिकता के स्रोत के रूप में माना जाता है। वेदों और स्मृतियों के अलावा, लोगों का आंतरिक विवेक भी नैतिकता का स्रोत बन जाता है। आधुनिक समय में, नैतिकता का स्रोत नेताओं के विचारों में पाया जाता है जैसे- गांधी, अरबिंदो, टैगोर और कई अन्य। भारतीय संस्कृति हमारी मानव जाति के विकास का उच्चतम स्तर कही जा सकती है। इसी की परिधि में सारे विश्वराष्ट्र के विकास के- वसुधैव कुटुम्बकम् के सारे सूत्र आ जाते हैं। हमारी संस्कृति में जन्म के पूर्व से मृत्यु के पश्चात् तक मानवी चेतना को संस्कारित करने का क्रम निर्धारित है । मनुष्य में पशुता के संस्कार उभरने न पायें, यह इसका एक महत्त्वपूर्ण दायित्व है। जीवन के चार ऐसे लक्ष्य हैं जो  वांछित हैं और मानव आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए भी आवश्यक हैं। ये (1) धार्मिकता (धर्म); (2) सांसारिक लाभ (अर्थ); (3) इच्छा की पूर्ति; (कर्म) और (४) मुक्ति (मोक्ष) हैं। जीवन के इन चारों लक्ष्यों  की पूर्ति मनुष्य के लिए महत्वपूर्ण है। इस वर्गीकरण में, नैतिक दृष्टि से धर्म और मोक्ष सबसे महत्वपूर्ण हैं। वे मानव जीवन को सही दिशा और उद्देश्य देते हैं। धन (अर्थ) प्राप्त करना एक वांछनीय उद्देश्य है, बशर्ते यह धर्म का कार्य भी करे, अर्थात समाज का कल्याण करे।

भारत में नैतिकता, सामाजिक तर्क पर आधारित है। बौद्ध और जैन धर्म, दोनों सामाजिक तर्क को एक प्रमुख स्थान देते हैं। जैन धर्म केंद्र में सत्य और विश्वास  की अवधारणा रखता है। जैन धर्म व्यक्ति को स्वीकार करने से पहले विभिन्न विचारों और सिद्धांतों की वैधता और मूल्य का पता लगाने में अपने कारण का उपयोग करने की सलाह देता है। इसी तरह, बौद्ध धर्म भी तर्क को महत्व देता है। धर्म की हिंदू अवधारणा को उसके कर्मकांड और जाति के दायित्वों से निकटता से जोड़ा गया है। जैन धार्मिक दर्शन आत्मा की मूल पवित्रता को प्राप्त करने पर केंद्रित है और इसे सर्वोच्च उद्देश्य कहा जाता है। इसमें सबसे बड़ी बाधा "कर्म" है जिसने आत्मा को प्रदूषित कर दिया है जैसे बादल सूर्य को ढक लेते हैं। हिंदू धर्म भी कुछ सार्वभौमिक नैतिक सिद्धांतों का पालन करता है।  इन सिद्धांतों को सर्वधर्म धर्म या सार्वभौमिक कर्तव्य कहा गया है। इस प्रकार, धर्म, शब्द में, दो निहितार्थ हैं:

1. एक जाति / जातीयता के अनुसार अनुष्ठानों और दायित्वों का प्रदर्शन;
2. नैतिक गुणों और मानदंडों का अभ्यास, जो सभी के लिए समान हो सकता है।

धर्मशास्त्र की रूपरेखा सामाजिक जीवन में एक कोशिका के रूप में व्यक्ति की पहचान करती है। इस तरह के विचारों के कारण, मनु के नियम  उनके समय (युग) और स्थान (देश ) के सापेक्ष माने जाते हैं।

इन सिद्धांतों ने विशेष रूप से वर्ण के नियमों को भी सख़्ती से परिभाषित किया। इसने विभिन्न युगों में किसी व्यक्ति के जीवन के लक्ष्यों और उद्देश्यों को भी निर्धारित किया। मनु ने कुछ मूल्यों को सार्वभौमिक माना है- संतोष (धैर्य), क्षमा (क्षेम), आत्म-नियंत्रण (धामा), चोरी न करना (अस्तेय), स्वच्छता (सौका), ज्ञान (धी), सत्यता (सत्य), और क्रोध से घृणा (अक्रोध ) इन गुणों को समाज के लिए नैतिक आदेश कहा जाता है। गीता हमें फल / परिणामों के बिना किसी लगाव / विचार के कर्म का मार्ग सिखाती है। यह ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने का एक साधन है। इस प्रकार, गीता दोनों- कर्म योग और ज्ञान योग की वकालत करती है। हालाँकि, इसमें कर्म योग को ज्ञान योग से ऊपर बताया गया है। महाकाव्यों और दार्शनिक ग्रंथों में नैतिकता और नैतिक मूल्यों का महत्व उजागर किया गया है, जैसे, उपनिषद, रामायण, दर्शन-शास्त्र और धर्म-शास्त्र। दार्शनिक ग्रंथ में जो नैतिक मुद्दों की तर्कसंगत व्याख्या प्रदान करते हैं; दैनिक जीवन में मनुष्य के सामने आने वाली सार्वभौमिक नैतिक समस्याओं को दार्शनिक संदर्भ में रखा गया है। धर्म-शास्त्रों में, सामाजिक नैतिकता पर ज़ोर दिया गया है। इन ग्रंथों में व्यक्तिगत और सामाजिक संबंधों को मार्गदर्शन के लिए  नैतिक ढाँचा का खाका खींचा गया है। इन ग्रंथों में नैतिक समस्याओं पर परोक्ष रूप से चर्चा की गई  है। भारत की ज्ञान परंपरा में, नैतिकता का मूल उसकी धार्मिक और दार्शनिक सोच में है। अनादिकाल से, विभिन्न धार्मिक आस्थाएँ यहाँ पनपी हैं। भारत की प्रत्येक धार्मिक और हर दार्शनिक प्रणाली में एक प्रमुख नैतिक घटक है। नैतिकता इन सभी प्रणालियों का मूल है। प्रत्येक धार्मिक परंपरा में, सुखी और संतुष्ट जीवन के लिए अच्छा नैतिक आचरण आवश्यक माना जाता है। धार्मिकता के मार्ग पर चले बिना कोई भी व्यक्ति जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य (मोक्ष) को प्राप्त नहीं कर सकता है। इसके लिए व्यक्ति को अच्छे कर्म करने होंगे और ग़लत काम करने से बचना होगा।

भारत की आध्यात्मिकता में ही भारतीय संस्कृति और भारतीय मूल्यों का निवास है यही भारतीयता है, इसीलिये ही भारतीय संस्कृति एकमात्र आध्यात्मिक, अति मानसिक- अतिबौद्धिक संस्कृति है। जिस प्रकार परमात्मा सृष्टि के सभी प्राणियों के कल्याण का विधान करता हुआ सृष्टि, रक्षा और संहार करता है- उसी भाँति भारतीय संस्कृति भी सदा सद्गुणों की सृष्टि, उनका संरक्षण एवं कल्याण विरोधी दुष्ट तत्वों के विनाश की व्यवस्था करती है। वस्तुतः यह मानवीय, विश्वव्यापी एवं सर्वलोक हितकारिणी संस्कृति है। जो इसका अपनी अज्ञानता के कारण विरोध करता है, उसका भी कल्याण करने की ही यह संस्कृति सोचती और मार्ग बताती है।  हम कह सकते हैं कि माता-पिता, गुरु, अतिथि आदि का सम्मान, दुखी व्यक्ति के प्रति करुणा का भाव, अहिंसा, प्रकृति की रक्षा, समन्वयकारी दृष्टि तथा विविधता में एकता आदि भारतीय संस्कृति के मूल तत्व हैं और यही भारतीयता के जीवन मूल्य है। संसार के सभी महापुरुष या सफलतम व्यक्ति अपने ऊँचे आदर्शों और मान्यताओं के कारण ही समाज में गाथा बनकर अपना नाम रोशन करते हैं। समाज सर्वदा ऐसे लोगों का अनुकरण करता है। रीढ़विहीन या लिजलिजे व्यक्ति का समाज में कभी आदर नहीं होता। ऐसे लोग सदैव आलोचना और निंदा के पात्र होते हैं। सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को कुछ मूल्य निर्धारित करने पड़ते हैं। कल्याण और सफलता को पाना है तो हमें मूल्य आधारित जीवन का मार्ग चुनना पडे़गा। इसके अभाव में जीवन की सार्थकता सदा संदिग्ध बनी रहेगी।

वैदिक नैतिक मूल्य और भारत की अन्य नैतिक मूल्य प्रणालियों जैसे कि बौद्धों, जैन एवं अन्य धर्म के नीतिशास्त्र  प्रगतिशील दृष्टिकोण का विश्लेषण और व्याख्या करते हैं । प्रत्येक पुरुष या महिला अपने सामाजिक स्थान के बावजूद जीवन के किसी भी पड़ाव पर,चाहे वो  राजा, रानी, व्यापारी, दरबारी, अछूत और यहाँ  तक कि अंगुलिमाल या एक महान नर्तक आम्रपाली हों सबके लिए नैतिक मूल्य उनके कर्मों के सापेक्ष तय हैं। ये नीतिशास्त्र या नैतिकता पर आधारित  मानवीय मूल्य, सभी मनुष्यों को समान दर्जा देकर, समाज के विभिन्न वर्गों के बीच स्वस्थ विकास और सकारात्मक जीवन में योगदान करते हैं। हम अपने देशकाल के अनुसार समाज और राष्ट्र के लिए उपयोगी बनें, और अपने जीवन मूल्यों को पहचान कर उनके अनुसार अपना जीवन जियें यही हमारी सार्थकता है। इसके लिए हमें मूल्य आधारित जीवन जीने के मार्ग का चयन करना पडे़गा। नि:संदेह मूल्यों का निर्धारण करने में हमारे लिए प्रारंभ में कठनाइयाँ आएँगी  जिनसे हमें जूझना पड़ेगा। जीवन-मूल्य सहज ही निर्धारित नहीं होते, इसके लिए त्याग और सत्य के तत्व ज़रूरी है।

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