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भीष्म-प्रतिज्ञा


(काव्य नाटिका) 


काव्यानुवाद: सुशील शर्मा


पात्र:भीष्म, गंगा, सत्यवती, शांतनु, निषाद, सारथी आदि


दृश्य-1

 

(राजा प्रतीप ने अपने पुत्र शांतनु को राज्य भार सौंप दिया था एवं स्वयं तप के लिए वन में चले गए, राजा शांतनु गंगा तट पर टहल रहे थे तभी गंगा अति रमणीय स्त्री के रूप में प्रकट होकर राजा शांतनु से प्रणय निवेदन करती है।) 


वैशम्पायन:

 
देख रूप सम्पत्ति गंगा
शांतनु मुग्ध विबोध हुए। 
तन में था रोमांच विकल मन
किसने मन के तार छुए। 

 
सभी अंग निर्दोष दिव्य थे
कान्ति मनोहर तन की थी। 
दिव्य भूषणों से शोभित वह
स्त्री चंचल मन की थी। 

 
शांतनु:


हे देवी तुम कौन बताओ
यक्ष, अप्सरा, मानव हो। 
इस धरती पर विचरण करती
नाग, देव या दानव हो। 

 
करूँ याचना आज तुम्हारी
मेरी पत्नी बन जाओ। 
बन कर रानी हृदय हमारी
महलों का सुख तुम पाओ। 

 

गंगा:

 
महारानी मैं बनूँ आपकी
पत्नी का मैं धर्म धरूँ। 
नहीं टोकना आप कभी भी
चाहें जैसे कर्म करूँ। 

 
रहूँ सदा मैं पास आपके
यदि ऐसा व्यवहार रहे। 
अप्रिय वचन आपने बोले
तो ये गंगा नहीं सहे। 

 
तत्क्षण छोड़ूँ साथ आपका
यदि मुझको रोका जाएगा। 
रिश्ता तत्पल अंतिम होगा
यदि मुझको टोका जाएगा। 

 
शांतनु:

 
तत्क्षण स्वीकृत करता हूँ मैं
मृगनयनी हर बात तुम्हारी। 
अब तो मुझको तुम अपनालो
बन जाओ हृदयांश हमारी।

 

वैशम्पायन:

 
हो प्रसन्न गंगा ने तत्क्षण
राजा को स्वीकार किया। 
बन पत्नी शांतनु राजा की
हाथ में उनके हाथ दिया। 

 
त्रिपथगामनी दिव्यरूपणी
देह मनुज की धारी थी। 
वसुओं के उद्धार हेतु ही
गंगा दिव्य पधारी थी। 

 
सात सुतों की बनी थी माता
सबको गंगा धार बहाए। 
विकल शांतनु मन से थे पर
शर्त विवश कुछ पूछ न पाए। 

 
अष्टम सुत ज्यों ही जन्मा था
शांतनु स्वयं को रोक न पाए। 
पूछ लिया पत्नी गंगा से
क्यों तू इसको धार बहाए। 

 

शांतनु:

 
घोर पापनी तू नारी है
क्यों अपने सुत का वध करती। 
कौन है तू अपना परिचय दे
भाग्य को क्यों पापों से भरती। 

 
गंगा:

 
जन्हु की पुत्री हूँ मैं गंगा
सृष्टि के मैं पाप हरूँ। 
अष्ट वसु वशिष्ठ से शापित
उनका मैं उद्धार करूँ। 

 
इन वसुओं की जननी बनने
मैं मानव तन धरने आई। 
ऋषि वशिष्ठ से थे ये शापित
मैं इनका दुःख हरने आई। 

 
सब वसुओं का अंश है इसमें
बलशाली यह अष्टम पुत्र। 
दिव्य भास्कर जैसा चमके
इसका सुंदर भव्य चरित्र। 

 
देवदत्त यह पुत्र तुम्हारा
अतुलित बल का स्वामी है। 
दिव्य चरित्र शौर्य से पूरित
विद्या बुद्धि प्रगामी है। 

 
टूट गया सम्बन्ध हमारा
अनुबंधों को तोड़ा है। 
वचन कटु कह रोका मुझको
समय को तुमने मोड़ा है

 

वैशम्पायन: 

 
लेकर अपने पुत्र वसु को
गंगा अंतर्ध्यान हुई। 
विस्मय दुःख से भरे शांतनु
शक्ति शून्य संधान हुई। 

 
दृश्य-2

 

(देवव्रत की उम्र अठारह वर्ष की हो चुकी थी, वे सभी अस्त्र-शस्त्र में पारंगत हो चुके थे उन्होंने अपने वनों के द्वारा गंगा की धरा को रोक दिया, उसी समय शांतनु आखेट करते हुए वहाँ पहुँचे और उस बालक की यह क्रिया विधि देख आकर आश्चर्य चकित हो गए।) 


वैशम्पायन:

 
गंगा सुत के तीक्ष्ण शरों ने
जब रोकी गंगा की धारा। 
विस्मित चकित विमोहित नृप थे
अद्भुत दृश्य देख ये सारा। 

 
इंद्र समान तेज बालक का
कर्म अलैकिक वह करता था। 
अस्त्र शस्त्र में वह पारंगत
नहीं किसी से वह डरता था। 

 

शांतनु:


कौन हो युवक वीर बतलाओ
कौन पिता की तुम संतान। 
गंगा की धारा क्यों रोकी
अस्त्र शस्त्र में निपुण सुजान। 

 
 (तभी वहाँ गंगा प्रकट होकर शांतनु से कहती है की यह आपका ही पुत्र है देवव्रत) 

 
गंगा:

 
यही आठवाँ पुत्र आपका
यह अतुलित बलशाली है। 
नाम देवव्रत नरसिंह है यह
योद्धा वैभवशाली है। 

 
वेदों का यह सम्यक ज्ञाता
नीतिशास्त्र का पंडित है। 
है यह अति बलवान धनुर्धर
सभी से महिमा मंडित है। 

 
परशुराम का शिष्य प्रतापी
युद्ध कला में निपुण महान। 
प्रजा की रक्षा करने वाला
इंद्र सदिश है यह बलवान। 

 
महा धनुर्धर वीर पुत्र को
साथ आप ले जाईये। 
अटल राज्य निष्कंटक होगा
निज सुत को अपनाइए। 

 

वैशम्पायन:


महा यशस्वी देवव्रत को
राजा हस्तिनापुर लाये। 
बना दिया युवराज राज्य का
जीवन मंगल धुन गाये। 


धीर वीर गंभीर संयमित
देवव्रत था सबसे न्यारा। 
राजकाज में नीतिनिपुण था
सबका प्यारा राजदुलारा। 


सुख का समय शीघ्र उड़ता है
पंख लगी चिड़िया के जैसे। 
रुकती नहीं समय की धारा
उसको हम पकड़ें तो कैसे। 


दृश्य-3

 
(देवव्रत के आने के चार साल बाद, शांतनु ने हस्तिनापुर की रक्षा का भार देवव्रत को सौंप दिया था एवं निष्कंटक होकर राज्य कार्य सम्पन्न कर रहे थे, एक दिन शांतनु यमुना के किनारे टहल रहे थे तभी उनकी दृष्टि सत्यवती जो निषाद कन्या थी उस पर पड़ी उसको देख कर राजा मोहित हो गए) 

 
एक दिवस शांतनु महाराजा
टहल रहे थे यमुना तीरे। 
मधुर बयार सुगंध सुवासित
तैर रही थी धीरे-धीरे। 

 
तभी दृष्टि में गोचर होती
रूपवती सुंदर सी नारी। 
नाव मध्य में बैठी थी वह
सुंदरता समेट कर सारी। 

 
शांतनु:


किसकी पुत्री हो तुम देवी
कौन हो तुम हे सुंदर कन्या
नाव मध्य तुम क्यों बैठी हो
मुझे बताओ देवी धन्या। 

 
सत्यवती:

 
कल्याणक हे प्रजा के पालक
मैं हूँ इक निषाद की कन्या। 
पितु आज्ञा का पालन करती
नाव चलाती हूँ मैं वन्या। 

 
वैशम्पायन:

 
देख रूप कर उस कन्या का
शांतनु तन मन से मोहित थे। 
तीव्र ललक उसको पाने की
बुद्धि ज्ञान तिरोहित थे। 


उसके वरण की इच्छा लेकर
राजा निषाद घर आये। 
लाख प्रयत्न करे फिर भी वो
कामेच्छा को रोक न पाए। 


शांतनु:

 
हे निषाद आपकी यह कन्या
अति सुंदर लावण्यमयी। 
यदि नहीं तुमको आपत्ति
करूँ वरण सौभाग्यमयी। 

 
निषाद:

 
जन्म से इसके लेकर अबतक
चिंता यही सताती है। 
कौन श्रेष्ठ वर इसका होगा
किसके घर यह जाती है। 

 
एक पिता होने के नाते
मन में इक अभिलाषा है
वचन एक आपसे माँगूँ
मन की बस यह आशा है। 

 
अगर वरण कन्या का चाहें
एक प्रतिज्ञा कीजिये। 
मिले इसे वर श्रेष्ठ आपसा
एक वचन बस दीजिये। 

 
शांतनु:

 
पहले वचन बताओ मुझको
तब मैं निर्णय को धारूँगा। 
यदि कथन अनुचित न होगा
वचन आज तुमसे हारूँगा। 


निषाद:


कहता हूँ मन की अभिलाषा
सुनो हस्तिनापुर अधिराज। 
गर्भ से जो यह पुत्र जनेगी
बने हस्तिनापुर युवराज। 

 
वैशम्पायन:

 
यद्धपि कामेच्छा प्रचंड थी
पर वचन नहीं भर सकते थे। 
ज्येष्ठ पुत्र के अधिकारों का
हनन नहीं कर सकते थे। 


कर्त्तव्यों की राह कठिन थी
मन में कामेच्छा का बंधन। 
हो निराश महाराजा लौटे
मन में निषादकन्या का चिंतन। 


चिंतित हुए देवव्रत भारी
देख पिता की घोर व्यथा। 
कुछ तो कारण इसके पीछे
कौन बताये पिता कथा। 


दृश्य-4

 
 (देवव्रत ने देखा महाराज हरदिन चुपचाप घूमने जातें हैं एवं चिंतातुर होकर लौट आते हैं, देवव्रत ने उनसे दुःख का कारण पूछा पर शांतनु ने बात को टाल दिया
देवव्रत ने वृद्ध मंत्री से महाराज की इस दशा का कारण पूछा तो उन्होंने सारी बात देवव्रत को बताई, देवव्रत ने शांतनु के सारथी को बुला कर उस स्त्री के बारे में पूछा और उसके पास ले जाने को कहा) 

 
देवव्रत:

 
क्यों चिंतातुर देह गेह है
कौन सा दुःख हृदय में धारे
क्यों दुर्बल पीड़ा से मन है
कष्ट में क्यों हैं पिता हमारे। 

 
शांतनु:

 
पुत्र युद्ध का व्यसन तुम्हें है
यद्धपि वीर बहुत हो तुम
यदि वीरगति तुम पाते हो
तो निर्वंश रहेंगे हम। 

 
बस इतनी मन की पीड़ा है
यही हृदय की चिंता भारी। 
एक पुत्र से वंश चले न
कहें शास्त्र यह बात विचारी। 

 
वैशम्पायन:

 
बात छुपा कर राजा बोले
किन्तु देवव्रत समझ गए। 
क्या रहस्य है पिता के दुख का
सूत्र हृदय में उलझ गए। 

 
 (देवव्रत ने सबसे पूछा किन्तु कोई इस रहस्य को समझ नहीं पाया आख़िर में राजा के सारथी से देवव्रत ने सही रहस्य का पता लगाया) 

 
देवव्रत:

 
परम सखा तुम पिता के मेरे
उनके रथ को हाँको तुम
परम सत्य तुम मुझे बताओ
मेरे मन में झाँकों तुम। 

 
मुझे बताओ हे प्रिय सारथी
पिता कौन पर मोहित हैं
कौन नारि के प्रति पिता का
तन मन सब अवरोहित हैं। 

 
सारथी:

 
है निषाद कन्या अति सुंदर
राजा हृदय समाई है। 
दिव्य रूपसी धीवर कन्या
राजा के मन भायी है। 

 
पर निषाद ने शर्त रखी है
गर्भ से जो सुत आएगा। 
बने हस्तिनापुर का राजा
सिंहासन वह पायेगा। 

 
दृश्य-5

 
 (देवव्रत सारथी के साथ निषाद राज के घर जाते हैं, निषाद देवव्रत का ख़ूब आदर सत्कार करते हैं। देवव्रत निषाद से अपने पिता के लिए सत्यवती को माँगते हैं) 


निषाद:

 
मैं तत्पर हूँ देने कन्या
किन्तु वचन हितकारी दो। 
गर्भ से इसके सुत जो जन्मे
सिंहासन अधिकारी हो। 

 
आप धीर हैं आप वीर हैं
प्रजा के रक्षक पालक हैं। 
एकमेव सुत राजा के हैं
अद्भुत शत्रु घालक हैं। 
  
आज पिता को ओर से प्रियवर
वचन मुझे यह दे पायें। 
मेरी सुता को मात बना कर
राजमहल में ले जाएँ। 

 
देवव्रत:

 
हैं पिता सर्वस्व मेरे
हे निषाद तुम आज सुनो। 
मान्य करूँ मैं वचन तुम्हारे
मेरी बातें हृदय गुनो। 

 
सत्य शपथ कहता हूँ प्रियवर
सिंहासन का त्याग करूँ। 
सत्यवती के पुत्र के माथे
राजमुकुट मैं स्वयं धरूँ। 

 
जन्म से लेकर आज अभी तक
न असत्य का भाष किया। 
सत्य शपथ ईश्वर की लेकर
आज राजपद त्याग दिया। 

 
निषाद:

 
आप समर्थ वीर बालक हैं
आप हस्तिनापुर युवराज। 
आप सत्य के महारथी हैं
आप धन्य हैं श्री महाराज। 

 
किंचित भी न आशंकित हूँ
वचन आप जो हारे हैं। 
आप सत्य के सुभट पुरोधा
वचन हृदय जो धारे हैं। 

 
है संकल्प अटल अविचल यह
सत्यवती आभारी है। 
अटल रहें क्या पुत्र तुम्हारे
यह मन संशय भारी है। 

 
देवव्रत:

 
नहीं आज तक कभी किसी ने
शपथ विकट यह ली होगी। 
अपने जनक हितार्थ किसी ने
नहीं प्रतिज्ञा की होगी। 
 
हे नरश्रेष्ठ निषाद सुनो तुम
सुने सभी भूमि प्राणी
सुनो सभी सुर, नर मुनि गण
सुनो अटल मेरी वाणी। 

 
अपने दोनों हाथ उठा कर
आज प्रतिज्ञा करता हूँ। 
अविवाहित मैं सदा रहूँगा
आज वचन मन धरता हूँ। 
  
तन मन से ब्रह्मचर्य रहूँगा
मैथुन सुख का त्याग करूँ। 
सदा रहूँ संतान रहित मैं
अटल प्रतिज्ञा आज धरूँ। 

 
वैशम्पायन:

 
गांगेय की सुनी प्रतिज्ञा
साधु! साधु! देव सब बोले। 
देवव्रती यह अटल प्रतिज्ञा
सुनकर इन्द्रासन भी डोले। 


गांगेय की भीष्म प्रतिज्ञा
सुनकर सब स्तम्भित थे। 
इस भीषण वाणी को सुनकर
ईश्वर स्वयं अचम्भित थे। 


घोर प्रतिज्ञा वाणी सुनकर
सबने लोहा माना था। 
गंगा के इस वरदपुत्र को
भीष्म नाम से जाना था। 


 (पटाक्षेप) 

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