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पोला पिठौरा 

 

बरसात की धुली हुई 
मिट्टी की ख़ुश्बू में
जब गाँव की चौपाल 
जगमगाने लगती है, 
तभी याद आता है पोला का त्योहार
धरती, बैल और श्रम के सम्मान का पर्व। 
 
खेतों के साथी, 
हल की डोरी पकड़कर 
जीवन रचने वाले बैल, 
आज उनके माथे पर तिलक है, 
गले में फूलों की माला है, 
सींगों पर रंग-बिरंगे 
झंडे फहर रहे हैं। 
गाँव का हर घर
उन्हें देवता मानकर 
पूजन कर रहा है। 
 
बच्चों की टोली सड़कों पर उतरती है
हाथों में लकड़ी के घोड़े, 
उनकी पीठ पर 
बिछी छोटी-सी गोदड़ी, 
उसमें भरे खुरमा-बतियाँ 
मानो किसी पुराने काफ़िले की यादें
फिर से जीवित हो उठी हों। 
 
वह दृश्य किसी 
मेले-सा हो जाता है, 
जब हँसी और शोर के बीच
बचपन की मासूम आँखें
इतिहास की झलक दिखा देती हैं। 
 
कभी व्यापारी कारवां इसी तरह
घोड़ों और बैलों के संग
अज्ञात दिशाओं में निकल पड़ते थे, 
राह में अँधेरी रातें होती थीं, 
कभी जंगल की नदियाँ, 
कभी पहाड़ों के मोड़, 
और लौटकर लाते थे अनुभवों का धन। 
पोला उसी परंपरा की स्मृति है, 
जिसे गाँव की साँसों ने
आज तक सँभाल रखा है। 
 
पर आज जब समय बदल रहा है, 
लोगों की आस्थाएँ धूमिल हो रही हैं, 
रिश्ते संवेदनहीनता के बोझ तले
धीरे-धीरे चुप हो रहे हैं, 
तो ऐसे त्योहार
हमारी स्मृति को बचाते हैं। 
 
पोला हमें याद दिलाता है
कि मनुष्य अकेला नहीं, 
उसकी हर साँस धरती से बँधी है, 
हर निवाला बैलों की मेहनत से जुड़ा है, 
हर उत्सव आपसी भाईचारे की गवाही है। 
 
जब दुनिया मशीनों के शोर में
गाँव की आवाज़ दबाने लगी है, 
तब यह पर्व
संवेदनाओं की नई रोशनी 
बनकर उभरता है
याद दिलाता है कि परम्पराएँ केवल रस्में नहीं, 
वे जीवन की गहराई और
मानवीयता की जड़ें हैं। 
 
बरसात की अमावस्या पर
जब दीपक टिमटिमाते हैं, 
तो लगता है मानो
धरती स्वयं कह रही हो
“मेरे अन्नदाता, मेरे साथी पशु, 
तुम्हारे बिना मेरा कोई अर्थ नहीं।” 
 
पोला का पर्व सिर्फ़ उत्सव नहीं, 
यह है साझे जीवन का गीत, 
धरती, किसान और पशु
तीनों का अनन्त बँधन, 
जो पीढ़ी दर पीढ़ी
बुंदेलखंड की मिट्टी में महकता रहेगा। 

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