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माँ शैलपुत्री–शारदीय नवरात्र का प्रथम प्राकट्य

 

पर्वत-शिखरों की नीरवता में
जहाँ हिमालय की गोद
अभी भी शीतल श्वास भरती है, 
वहाँ से जन्म लेती हैं
पावन, दिव्य, मातृशक्ति। 
 
वह प्रकट होती हैं
धरती के हर कण में, 
नवीन ऋतु के हर स्पंदन में, 
शैलपुत्री के रूप में
मानवता को स्मरण कराती हुई
कि स्थिरता ही साधना है, 
धैर्य ही जीवन का आधार। 
 
माथे पर अर्धचंद्र, 
हाथों में त्रिशूल और कमल, 
नन्दी बैल पर आरूढ़, 
वह चलती हैं जैसे
प्रकृति स्वयं सवारी बनकर
धरा पर उतर आई हो। 
 
उनके चरण पड़ते ही
माटी से सुगंध उठती है, 
कण-कण में कम्पन जागता है, 
मानव हृदय में नयी शक्ति
सृजन की कामना जगाती है। 
 
भक्त आराधना में डूबते हैं
कुछ दीप सजाते हैं, 
कुछ कलश में जल भरते हैं, 
कहीं स्वस्तिक की रेखाएँ खिंचती हैं, 
कहीं शंख की गूँज
रात्रि के अंधकार को भेदती है। 
 
उनकी उपासना है
स्वयं को प्रकृति के मूल से जोड़ना, 
मूलाधार चक्र को जाग्रत करना, 
शक्ति को भीतर से
उदित होते अनुभव करना। 
 
पहले दिन का भोग
सादा, पावन, 
घी से बने व्यंजन, 
या श्वेत पुष्पों के साथ
गौर वर्ण के पदार्थ; 
यह सब प्रतीक है
पवित्रता और आस्था का। 
 
माँ के समक्ष अर्पित प्रसाद
सिर्फ़ स्वाद नहीं, 
वह एक संकल्प है
भक्ति में लीन होकर
आत्मा को निर्मल बनाने का। 
 
इनकी आराधना से 
मन में स्थिरता, 
जीवन में धैर्य, 
साधना में दृढ़ता, 
और प्राप्त होती है
हर कठिनाई में
साहस से आगे बढ़ने की शक्ति। 
 
शैलपुत्री का आशीष
मानव को याद दिलाता है
कि ऊँचे से ऊँचा पर्वत भी
भक्ति के आगे झुकता है, 
और गहरी से गहरी खाई भी
विश्वास के पुल से पार की जा सकती है। 
 
माँ की वाणी न सुनाई देती है, 
पर उनकी मौन उपस्थिति
हर भक्त के भीतर कहती है
हे साधक, 
अपनी जड़ों को मत भूलो, 
धरती से जुड़े रहो, 
क्योंकि वही शक्ति है
जो तुम्हें आकाश तक उठाएगी। 
 
शारदीय नवरात्र का प्रथम दिन
यही स्मरण कराता है
शक्ति की शुरूआत स्थिरता से है, 
भक्ति की जड़ें धरती में हैं, 
और जीवन का हर शिखर
माँ शैलपुत्री की कृपा से
सुलभ हो सकता है। 

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