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पुरुष का रोना निषिद्ध है

मैं पुरुष हूँ
इस लिए रोना निषिद्ध है
जग ने मुझे माना
पत्थर दिल
कठोर संवेदनहीन
स्वयं निर्णय लेने वाला
किसी की भी फ़िक्र न करने वाला
पुरुष अहंकार से पूर्ण
स्त्री सम्वेदनाओं को
रौंदने वाला
अपनी मनमर्ज़ी से चलने वाला
क्रूर कुटिल यौन पिपासु
और न जाने कितने
विशेषण चिपके हैं मुझसे
जो मुझे बना देते हैं पिशाच
इतिहास के पन्नों पर हमेशा
अंकित है मेरा क्रूर चेहरा
जो ढाँप देता है मेरा समग्र
अस्तित्व। 
किसी को नहीं दिखता
मेरा समर्पण
न ही वो आँसू जो मेरी
कठोर आँखों के पीछे
समुंदर से मारते हैं हिलोर
दिन भर खटने के बाद
घर पहुँचने पर
वो हर किसी की शिकायतों का ढेर
वो अपेक्षाओं का पहाड़
दबा देता है मेरी सम्वेदनाओं को
फिर निकल जाता हूँ
पत्नी की सब्ज़ी
पिता की दवाई
माँ का चश्मा
बेटी की पुस्तकें
बेटे का एडमिशन
किराने का उधार
 
बेटी की शादी की चिंता
दहेज़ का प्रबंध
बेटे की नौकरी के लिए
गिड़गिड़ाते हुए लगाने है
नेताओं के चक्कर। 
निभानी है सभी रिश्तेदारियाँ
बाँटने हैं मित्रों के दुखदर्द
फिर लौट कर
खा कर लौकी की सब्ज़ी
के साथ दो रोटी
सो जाना है
सुबह फिर सभी की अपेक्षाओं का 
भार ढोना है। 
कल फिर से बनना है
इतिहास का कठोर पत्थर। 
संवेदना शून्य पुरुष। 

सुशील शर्मा

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