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एक था वीरू


(धर्मेंद्र जी के लिए श्रद्धांजलि कविता) 
  
गाँव की पगडंडी से शुरू होकर
बंबई की चकाचौंध तक फैली एक यात्रा
धर्मेंद्र, जी आपका जीवन
मानो किसी भूली हुई नदी की कथा हो
जिसने पत्थरों से लड़ते हुए
धूप और अँधेरों को चीरते हुए
अपनी राह ख़ुद बनाई। 
 
“बंदिनी” के शांत, दृढ़ स्वभाव में
आपकी विनम्रता की पहली
झलक दिखी थी
और “फूल और पत्थर” से
जिस धीरज और दमख़म ने
आपको घर-घर पहुँचाया
वह आज भी भारतीय 
फ़िल्मों के इतिहास में
एक स्थायी शिखर 
बन कर खड़ा है। 
 
“सीता और गीता” में सहज हँसी
घर की चौखट पर गूँजते हुए
एक अपनापन रचती है
और “शोले” में वीरू का मस्तमौला मन
आपकी वही आत्मा है
जो जीवन की कठिनाइयों में भी
हँसी के लिए जगह बचाए रखती थी। 
 
आपकी आँखों में हमेशा
एक गाँव का लड़का 
बसता रहा
एक ऐसा लड़का, 
जो मिट्टी की ख़ुश्बू को
अपनी सबसे बड़ी पूँजी मानता था। 
सादगी, विनम्रता, 
और रिश्तों को दिल से निभाने वाली नर्मी
यही आपका वास्तविक सितारापन था। 
 
आज जब हम कहते हैं
कि तुम ईश्वर के पास चले गए, 
तो लगता है
मानो “शोले” का वह दृश्य
फिर से आँखों में चमक उठा हो
जहाँ जय वीरू को छोड़ कर जाता है
और आज वीरू 
जय को छोड़ कर चला गया। 
 
आपकी यात्रा
सिर्फ़ फ़िल्मों की यात्रा नहीं थी, 
वह संघर्ष से भरी वह सड़क थी
जिस पर चलता आदमी
अपनी मेहनत से सितारा बनता है
और सितारा होकर भी
इंसान बना रहता है। 
 
धर्मेंद्र जी
आज आपकी मुस्कान
हमारी स्मृतियों के आकाश में टिकी है
और तुम्हारी सहजता
फ़िल्मों के हर उस दृश्य में जीवित है
जहाँ प्रेम और मनुष्यता
एक साथ साँस लेते हैं। 
 
ईश्वर आपको आत्मा को शान्ति दे
और हम, 
आपकी उन सभी किरदारों में
हमेशा जीवित पाएँगे
जहाँ आपने हमें
थोड़ा अधिक दयालु
थोड़ा अधिक साहसी
और थोड़ा अधिक 
मनुष्य बनना सिखाया। 
विनम्र श्रद्धांजलि। 

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