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पाँच लघु कथाएँ


 (पर्यावरणीय नैतिकता और आपदाओं पर आधारित) 

 

1. अंतिम बीज

एक था गाँव जहाँ कभी हरियाली अपने चरम पर थी। नदियाँ कलकल करती बहती थीं, पेड़ फलों से लदे रहते थे। पर धीरे-धीरे लालच हावी होता गया। मनुष्यों ने अधिक फ़सल, अधिक धन के लिए जंगलों को काटना शुरू किया, नदियों को प्रदूषित किया। विकास की अंधी दौड़ में, पर्यावरणीय नैतिकता को ताक पर रख दिया गया। 

एक दिन, प्रकृति ने अपना रौद्र रूप दिखाया। लगातार सूखा पड़ा, धरती फटने लगी, और जो फ़सलें बची थीं, वे भी ज़हरीली हो गईं। लोग भुखमरी और बीमारी से मरने लगे। हर कोई बस एक ही चीज़ ढूँढ़ रहा था पानी, और शुद्ध भोजन। 

गाँव के एक कोने में, एक वृद्ध महिला, बूढ़ी ‘माई’ थी, ने अपने घर के पिछवाड़े में एक छोटा सा बग़ीचा सँजो रखा था। उसने वर्षों से विभिन्न प्रकार के बीजों को सहेज कर रखा था, यह जानते हुए कि एक दिन उनकी आवश्यकता पड़ सकती है। जब सब कुछ नष्ट हो गया, बूढ़ी माई ने अपने पोते को बुलाया। 

“देखो, बेटा,” उसने कहा, “ये हमारे अंतिम बीज हैं। इन्हें ऐसी जगह बोना जहाँ कोई इन्हें छू न सके, और जब वर्षा हो, तो इन्हें जीवन देना।”

बूढ़ी माई ने उसे समझाया कि कैसे प्रकृति से लेना ही नहीं, उसे देना भी पड़ता है। कैसे हर पेड़, हर नदी का सम्मान करना चाहिए। 

जब पहली बूँद गिरी, तो बच्चे ने माई की बात याद की। उसने सबसे ऊँची पहाड़ी पर जाकर वे बीज बो दिए। अगली सुबह, जब सूरज निकला, तो उस पहाड़ी पर एक छोटा सा हरा अंकुर फूट रहा था। वह गाँव के लिए आशा की एक नई किरण थी। लोगों ने समझा कि प्रकृति का सम्मान ही उनके अस्तित्व का एकमात्र रास्ता है। धीरे-धीरे, उस एक अंकुर से प्रेरणा लेकर, लोगों ने फिर से धरती को हरा-भरा करना शुरू किया, और इस बार, वे प्रकृति के प्रति अधिक सचेत और नैतिक थे। 

2. मौन पहाड़ का बदला

ऊँचे-ऊँचे हिमखंडों से घिरा एक छोटा शहर था। पहाड़ों की गोद में बसे इस शहर में पर्यटन फल-फूल रहा था। लेकिन पर्यटकों और स्थानीय लोगों की बढ़ती संख्या के कारण, पहाड़ पर कचरा और प्रदूषण बढ़ने लगा। होटल और रिसॉर्ट्स के लिए पेड़ों की अंधाधुंध कटाई हुई, जिससे मिट्टी का कटाव बढ़ गया। पर्यावरणीय नियमों को लगातार अनदेखा किया जा रहा था। 

शहर के लोग अक्सर मौन पहाड़ की प्रशंसा करते थे, लेकिन उसके दर्द को कभी नहीं समझते थे। एक दिन, लगातार बारिश हुई, और पहाड़, जो अब कमज़ोर हो चुका था, काँप उठा। एक विशाल भूस्खलन हुआ, जिसने पूरे शहर को अपनी चपेट में ले लिया। मकान ढह गए, सड़कें टूट गईं, और कई जानें चली गईं। 

जो लोग बच गए, उन्होंने देखा कि यह आपदा मानव निर्मित थी। उन्होंने पहाड़ की चेतावनी को नज़रअंदाज़ किया था। मलबे के बीच से, एक बुज़ुर्ग साधु निकले, जिन्होंने हमेशा प्रकृति के संरक्षण की वकालत की थी। उन्होंने कहा, “पहाड़ मौन रहता है, पर उसका धैर्य असीमित नहीं। जब उसका धैर्य टूटता है, तो वह अपने क्रोध का प्रदर्शन करता है।”

यह आपदा उनके लिए एक कड़वा सबक़ थी। शहर के लोगों ने सामूहिक रूप से निर्णय लिया कि वे अब प्रकृति का सम्मान करेंगे। उन्होंने पुनर्निर्माण के साथ-साथ वृक्षारोपण अभियान शुरू किया, कचरा प्रबंधन पर ध्यान दिया और स्थायी पर्यटन को बढ़ावा दिया। उन्होंने जाना कि पहाड़ का बदला वास्तव में उनकी अपनी अनदेखी का परिणाम था। 

3. अंतिम साँस का शहर

एक औद्योगिक शहर था, जहाँ हवा हमेशा धुएँ और रसायनों से भरी रहती थी। फ़ैक्ट्रियाँ चौबीसों घंटे चलती थीं, और उनके चिमनियों से निकलने वाला ज़हर पूरे शहर पर एक काली चादर की तरह छाया रहता था। यहाँ के लोग अक्सर खाँसते रहते थे और फेफड़ों की बीमारियों से पीड़ित थे। पर्यावरणीय मानकों को हमेशा लाभ के लिए दरकिनार किया जाता था। 

एक दिन, एक भयानक रासायनिक रिसाव हुआ। हवा में इतना ज़हर घुल गया कि साँस लेना असंभव हो गया। लोग सड़कों पर गिरते गए, उनकी साँसें थमने लगीं। यह एक ऐसी आपदा थी जिसकी कल्पना भी नहीं की गई थी, लेकिन जिसकी सम्भावना हमेशा मौजूद थी। 

बचे हुए कुछ लोग शहर से भाग गए, लेकिन उनके मन में एक गहरी टीस थी। उन्हें एहसास हुआ कि उन्होंने अपने लालच में अपने ही घर को ज़हर से भर दिया था। कुछ साल बाद, वह शहर एक भूतिया शहर बन गया। जहाँ कभी फ़ैक्ट्रियों का शोर था, वहाँ अब बस सन्नाटा पसरा था, और हवा में अब भी रसायन की गंध तैर रही थी। 

एक युवा वैज्ञानिक, जिसकी दादी त्रासदी में मर गई थी, ने इस शहर को फिर से जीवन देने का संकल्प लिया। उसने अपने शोध से यह साबित किया कि कैसे औद्योगिक नैतिकता का अभाव पूरे समुदाय को नष्ट कर सकता है। उसने उस शहर को एक ‘पर्यावरण शिक्षा केंद्र’ में बदलने का प्रयास किया, जहाँ लोग उन ग़लतियों से सीख सकें जो उस गाँव ने की थीं। यह शहर अब एक जीवित स्मारक था-उस पर्यावरणीय नैतिकता का, जिसे कभी भुला दिया गया था। 

4. जल देवता का क्रोध

एक गाँव एक बड़ी और पवित्र नदी के किनारे बसा था। गाँव के लोग नदी को ‘जल देवता’ मानते थे और उसका सम्मान करते थे। लेकिन जैसे-जैसे गाँव बड़ा होता गया, लोगों ने नदी में कूड़ा फेंकना शुरू कर दिया, उद्योगों ने अपने रसायन इसमें बहा दिए। नदी का पानी काला और दुर्गंधयुक्त हो गया। पुरोहितों ने चेतावनी दी कि जल देवता क्रोधित हो रहे हैं, पर किसी ने उनकी बात नहीं मानी। 

एक रात, आसमान में काले बादल छा गए और मूसलाधार बारिश हुई। नदी, जो अब प्रदूषित मलबे से भरी थी, उफन पड़ी। बाढ़ आ गई, जिसने पूरे गाँव को जलमग्न कर दिया। घर बह गए, खेत नष्ट हो गए, और कई जानें चली गईं। यह एक ऐसी आपदा थी जो सीधे तौर पर पर्यावरणीय अनाचार का परिणाम थी। 

बाढ़ के बाद, गाँव के बचे हुए लोग नदी के किनारे एकत्र हुए। उन्होंने देखा कि उनकी नदी, जो कभी जीवनदायिनी थी, अब एक विनाशकारी शक्ति बन गई थी। एक बुज़ुर्ग महिला, जिसने अपने पूरे परिवार को खो दिया था, ने कहा, “हमने जल देवता का अपमान किया। हमने उसे प्रदूषित किया, और अब उसने हमें शुद्ध करने के लिए अपनी शक्ति दिखाई है।”

इस त्रासदी ने गाँव वालों को एक बड़ा सबक़ सिखाया। उन्होंने शपथ ली कि वे नदी को फिर से शुद्ध करेंगे। उन्होंने स्वच्छता अभियान चलाए, उद्योगों को प्रदूषित पानी छोड़ने से रोका, और नदी के किनारे पेड़ लगाए। धीरे-धीरे, नदी का पानी फिर से साफ़ होने लगा, और गाँव वालों ने फिर से जल देवता का सम्मान करना शुरू किया। वे समझ गए कि प्रकृति का सम्मान ही उनके सुख और सुरक्षा का आधार है। 

5. प्लास्टिक का जंगल

एक तटीय क़स्बा था, जहाँ के लोग मछली पकड़कर और पर्यटन से अपना जीवनयापन करते थे। समुद्र उनके लिए सब कुछ था। लेकिन समय के साथ, प्लास्टिक का उपयोग बेतहाशा बढ़ गया, और लोग प्लास्टिक कचरा सीधे समुद्र में फेंकने लगे। मछुआरे भी अपने पुराने जाल और प्लास्टिक की बोतलें समुद्र में छोड़ देते थे। उन्हें लगता था कि समुद्र इतना विशाल है कि सब कुछ समा जाएगा। पर्यावरणीय चेतना की कमी ने उन्हें लापरवाह बना दिया था। 

कुछ सालों में, समुद्र में प्लास्टिक के बड़े-बड़े द्वीप बनने लगे। मछलियाँ और समुद्री जीव प्लास्टिक खाने लगे, जिससे उनकी मौत होने लगी। एक दिन, एक भयंकर तूफ़ान आया। लेकिन इस बार, तूफ़ान ने केवल पानी ही नहीं, बल्कि प्लास्टिक के ढेर भी शहर में फेंक दिए। समुद्र तट एक प्लास्टिक के जंगल में बदल गया। शहर की सुंदरता नष्ट हो गई, और पर्यटक आने बंद हो गए। मछुआरों को अब कोई मछली नहीं मिलती थी। 

शहर के मेयर ने एक आपात बैठक बुलाई। उन्होंने कहा, “यह आपदा तूफ़ान से नहीं आई है, बल्कि हमारी अपनी लापरवाही से आई है। हमने समुद्र को कचरे का डिब्बा समझा, और अब समुद्र ने हमें वही वापस कर दिया है।”

शहर के लोगों ने मिलकर एक विशाल सफ़ाई अभियान शुरू किया। उन्होंने समुद्र से प्लास्टिक निकालने का संकल्प लिया और प्लास्टिक के उपयोग को कम करने के लिए सख़्त नियम बनाए। उन्होंने बच्चों को पर्यावरण शिक्षा देना शुरू किया, ताकि भविष्य में ऐसी ग़लती न हो। धीरे-धीरे, वह क़स्बा फिर से साफ़ होने लगा, और लोगों ने सीखा कि समुद्र का सम्मान करना ही उनकी समृद्धि का आधार है। उन्होंने समझा कि प्रकृति को जो दिया जाता है, वही लौटकर आता है। 

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