मन की अनभूतियों की कवितायें—मेरी तुम
समीक्षा | पुस्तक समीक्षा डॉ. सुशील कुमार शर्मा15 Jul 2023 (अंक: 233, द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)
समीक्षित पुस्तक: मेरी तुम
लेखक: विजय ‘बेशर्म’
प्रकाशक: शुभांजलि प्रकाशन कानपुर
मूल्य: ₹150/-
विजय नामदेव की पुस्तक ‘मेरी तुम’ जब मुझे समीक्षार्थ मिली तो उसके शीर्षक ‘मेरी तुम’ पढ़ कर कुछ अजीब-सा लगा। मुझे लगा के इसमें प्रेम विशेषकर युवा प्रेमी-प्रेमिका के मन के भाव होंगे और अटपटा इसलिए भी लगा की विजय मेरे छात्र रहे हैं। छात्र की प्रेम कविताओं की गुरु समीक्षा करे इसमें मुझे थोड़ा संकोच लग रहा था किन्तु जब मैंने पुस्तक को पढ़ा तो मैं आश्चर्यचकित हो गया की इस पुस्तक के शीर्षक अंदर के कंटेंट से ज़्यादा सम्बन्ध नहीं है। इस पुस्तक की कविताओं में इतनी व्यापकता है कि यह शीर्षक ‘मेरी तुम’ इन कविताओं के लिए बहुत बौना है। कोई युवा कवि आज के माहौल में अपने पहला संग्रह प्रेम कविताओं का लेकर आए तो दोहरी प्रतिक्रियाएँ एक साथ हो सकती हैं। एक तो यह कि क्या यह कवि आज के जलते हुए परिवेश से अपरिचित है और दूसरी यह कि क्या यह कवि परिचित होने के बावजूद प्रेम की खोज को ही अपनी राह बनाना चाहता है।
काव्य सृजन प्रक्रिया दो प्रमुख आधारों पर टिकी होती है, जो कवि व्यक्तित्व को निखारती है। काव्य सृजन में रचनाकार के काव्यगत उद्देश्य और रचनात्मक रूप में उनका अभिव्यक्तिकरण महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। रचनाकार अपने अनुभवों द्वारा जीवन उद्देश्यों को काव्य रूप देकर संप्रेषणीय आधार प्रदान करता है और यह संप्रेषण काव्यगत सृजनात्मक विचारशीलता से सिद्ध होता है। यह धर्म कविता व मनुष्य के समानान्तर अनादिकाल से आज तक विद्यमान रहा है। इसीलिए जब कभी मनुष्य के स्वाधीन होने का प्रश्न उठा, कविता ने उसे रास्ता दिखाया। मनुष्य ने अपने जीवन में स्वातंत्र्य के मूल अर्थात् लोकतंत्र को पहचाना या नहीं, किन्तु कविता की बहुआयामी दृष्टि ने जीवन की वास्तविकता को सदैव प्रस्तुत किया। विजय नामदेव की कविताओं में कविता की प्रतिस्थापना ने लोकधर्म को सदैव केन्द्र में रखा है। उनकी कविता ज़िन्दगी की ये पंक्तियाँ लोकधर्म का अनुसरण करती हैं:
“करम/पूजा/प्रेरणा
ज़िन्दगी आदर्श हो
तो सार्थक /वरना
लिबास कब तक निखरेगा।”
विजय नामदेव की रचनाएँ, व्यक्ति के अंतर्मन के द्वंद्व को पाठक के सामने प्रस्तुत करती हैं। कविताएँ समय और व्यक्ति के द्वंद्व को उकेरती हुई अपने से संवाद और संघर्ष करती हैं। अधिकतर रचनाएँ एक आदमी की आशा, निराशा, चुनौतियाँ, संवेदनाएँ, उसका अलगाव जैसी तमाम अभिव्यक्तियों को पाठक तक पहुँचाती हैं:
“कितनी दूर
जंगल से
पैदल नंगे पैर
सहते हुए
चल कर आती हो वो
सिर पर लकड़ी का
गठ्ठर लिए
किस के लिए?” (कविता ‘नंगे पैर’ से)
विजय नामदेव के इस कविता संग्रह की अधिकांश कविताओं की पृष्ठभूमि में पार्श्वसंगीत की तरह मनुष्यता की पीड़ा और उसके अवसाद की अनुगूँज अनवरत सुनाई देती रहती है। कवि के अनुसार इस अदम्य पीड़ा से दो-चार करना कविता ही सिखाती है:
“पैरों के छाले
शब्दों के प्रवाह को
अवरुद्ध कर देते हैं
सारी साधें, सारे सपने
सारे जज़्बात
रह जाते हैं सिमट कर।” (कविता ‘पैरों के छाले’ से)
विजय अपने काव्य-कर्म तथा काव्य-लक्ष्य को लेकर अत्यंत सजग और सतर्क नज़र आते हैं। इसलिए उन्होंने अपनी कई कविताओं में कविता के उद्देश्य को उद्घाटित किया है। छंद मुक्त कविताएँ हैं, जो ग़ैर बराबरी पर आधारित व्यवस्था को चुनौती ही नहीं देती, बल्कि पाठकों को सामाजिक सरोकार तक लिए हुए भी अपने कार्यभार को चिह्नित करती हैं:
“अवरोधों के चलते /कविता
कन्या भ्रूण की भाँति /प्राण
त्याग रही है
सरकारी अस्पताल के
जनरल वार्ड में पड़े हैं
शब्द बीमार होकर।” (कविता ‘इन्तजार’ से)
इन कविताओं की सार्थकता उनके सीधे-सच्चेपन में है। न ये कृत्रिम नहीं हैं और न ही सजावटी। इतनी पकी भी नहीं है कि उनमें से कच्चेपन की एकदम ताज़ा ख़ुश्बू ग़ायब हो। प्यार की मासूमियत और ललक यहाँ बराबर हिलोरे लेती है।
“मद भरी काली आँखें
काला काजल /चेहरा किताबी /
मैं था नादाँ
लुट गया
न चाह कर भी” (कविता ‘ख्वाब शशि के’ से)
विजय की कविताओं में मनुष्य की उद्दाम लालसाओं का शिकार यह ग्रामीण जीवन कैसे हो गया है इसका बहुत सटीक चित्रण किया गया है। इन कविताओं में कवि के मन की अन्तर्व्यथा उजागर हुई है, जहाँ जीवन सिर्फ़ ख़ुद के अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है:
“भागते हैं लोग यहाँ
सड़कों के दरम्यां
कमाने /कमाकर खाने
कुछ कर दिखाने
यह सोच कर कि
जीना है /हर हाल में
ज़िन्दगी के /सुर ताल में।” (कविता ‘भागते लोग’ से)
विजय मानवीय संवेदना में आई गिरावट का बारीक़ी से मुआयना करते हुए मुक़म्मल ग़ज़ल कहते हैं। किसी भी रचनाकार को पढ़कर मुझे उत्साह मिलता है। जिसकी रचनाओं में समाज को बदलने की जिजीविषा होती है:
“सुख खाते सुविधाएँ पीते, झूठी शान में तन कर जीते
कुठियाँ भरी पड़ीं हैं लेकिन देखो हम रीते के रीते।”
संकलित कविताओं में एक ओर शोषित श्रेणी के लिए संघर्ष का लोकधर्म है, तो दूसरी ओर समय के साथ उपस्थित विध्वंसकारी शक्तियों का सामना करते हुए कविता के क्षेत्र में लोकतंत्र की प्रतिस्थापना का आग्रह दृष्टिगोचर होता है।
कवि ने गाँवों की अन्तर्व्यथा को, उसकी ग़रीबी को, उसके ख़ुश्क चेहरे को देखने का तथा उसकी पीड़ा को व्यक्त करने का कार्य ‘मुझ को मेरे गाँव ले चलो ’, ‘मुझे बुलाता मेरा गाँव’ आदि कविताओं में किया है।
कवि की दुनिया सामान्य लोगों की दुनिया से अलहदा होती है। जहाँ सामान्य आदमी अपनी सीमित दुनिया में सिमटा-सकुचा होता है, वहीं कवि की दुनिया अत्यंत विस्तार लिये होती है। इस विस्तार में प्राणी ही नहीं प्राणी तर भी पारिवारिक हो जाते हैं।
“अमराई में कोयल कूके
मन में खेतों की हों हुँकेँ
बूढ़ी आँखेंं हमसे पूछें
क्यों बेटा तुम हमसे रूठे।”
कविताओं की भाषा में विविधता है। परम्परागत प्रतीकों के स्थान पर कवि ने अपने लक्ष्य की पहचान करने वाले उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। नये सौंदर्य का बोध कराने वाली भाषा चलताऊ भाषा से बिल्कुल अलग है। आक्रोश के क्षणों में बिम्बवान स्वाभाविक पीड़ा को उजागर करती हैं। काव्य भाषा जितनी मानक और प्रतिष्ठित होगी उतनी ही साहित्य और समाज के लिए लाभकारी होगी। सबसे बड़ी विशेषता यही है कि उसमें युग की नई चेतना नये रूप में अभिव्यक्त हुई है वह भी नई काव्य भाषा में। जिसमें चेतना और भावना के विद्रोह के साथ भाषा का विद्रोह भी मिलता है।
विजय नामदेव की काव्य संग्रह की सबसे बड़ी कमज़ोरी मुझे इसका शीर्षक लगा जिसने इतनी सुन्दर कविताओं को एक सीमा में समेट दिया है। चूँकि पुस्तक का शीर्षक बदला नहीं जा सकता इसलिए विजय को मैं संदेह का लाभ दे रहा हूँ। यह काव्य संकलन विजय की प्रतिभा के साथ न्याय करता है एवं समाज में कविता के मानक प्रतिमान स्थापित करने में सक्षम है। गुरु के नाते मेरा आशीर्वाद है कि वो साहित्य को सामाजिक सरोकारों से जोड़ें और सरस्वती की साधना में अविचल सनिद्ध रहें।
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