मानव मन का सर्वश्रेष्ठ उल्लास है होली
आलेख | सामाजिक आलेख डॉ. सुशील कुमार शर्मा1 Apr 2021 (अंक: 178, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
होली का नाम आते ही मन रंगों के बिछावन पर लोटने लगता है। रंग बिरंगे चेहरे भाभियों और देवरों का मज़ाक मन में कुलाँचे मार ने लगता है। मानव मन के उत्कृष्ट उल्लास का नाम होली का त्यौहार है। होली हमारे देश का एक विशिष्ट सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक त्यौहार है।
होली बहुत प्राचीन उत्सव है। जैमिनी के पूर्वमीमांसा सूत्र, जो लगभग 400-200 ईसा पूर्व का है, के अनुसार होली का प्रारंभिक शब्द रूप होलाका था। जैमिनी का कथन है कि इसे सभी आर्यों द्वारा संपादित किया जाना चाहिए। काठक गृह्य सूत्र के एक सूत्र की टीकाकार देवपाल ने इस प्रकार व्याख्या की है:
होला कर्मविशेष: सौभाग्याय स्त्रीणां प्रातरनुष्ठीयते।तत्र होलाके राका देवता
(होला एक कर्म विशेष है जो स्त्रियों के सौभाग्य के लिए संपादित होता है। इसमें राका (पूर्णचन्द्र) देवता हैं।)
होलाका संपूर्ण भारत में प्रचलित 20 क्रीड़ाओं में एक है। वात्स्यायन इसके अनुसार लोग शृंग (गाय की सींग) से एक-दूसरे पर रंग डालते हैं और सुगंधित चूर्ण (अबीर-गुलाल) डालते हैं। लिंगपुराण में उल्लेख है कि फाल्गुन-पूर्णिमा को फाल्गुनिका कहा जाता है, यह बाल क्रीड़ाओं से पूर्ण है और लोगों को विभूति (ऐश्वर्य) देने वाली है।
वाराह पुराण में इसे पटवास-विलासिनी (चूर्ण से युक्त क्रीड़ाओं वाली) कहा है। हिरण्यकश्यप का पुत्र प्रह्लाद विष्णु का भक्त था। उसने अपने पिता के बार-बार समझाने के बाद भी विष्णु की भक्ति नहीं छोड़ी। हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को मारने के अनेक उपाय किए किन्तु वह सफल नहीं हुआ। अन्त में, उसने अपनी बहन होलिका से कहा कि वह प्रह्लाद को लेकर अग्नि में बैठे। क्योंकि होलिका एक चादर ओढ़ लेती थी जिससे अग्नि उसे नहीं जला पाती थी। होलिका जब प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर अग्नि में बैठी तो वह चादर प्रह्लाद के ऊपर आ गई और होलिका जलकर भस्म हो गई। तब से होलिका-दहन का प्रचलन हुआ।
होली मुक्त स्वच्छंद हास-परिहास का पर्व है। यह सम्पूर्ण भारत का मंगलोत्सव है। फागुन शुक्ल पूर्णिमा को आर्य लोग जौ की बालियों की आहुति यज्ञ में देकर अग्निहोत्र का आरंभ करते हैं, कर्मकांड में इसे ‘यवग्रयण’ यज्ञ का नाम दिया गया है। बसंत में सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण में आ जाता है। इसलिए होली के पर्व को ‘गवंतराम्भ’ भी कहा गया है। होली का आगमन इस बात का सूचक है कि अब चारों तरफ़ वसंत ऋतु का सुवास फैलनेवाला है। रवीन्द्र नाथ टैगोर ने कहा है, ”सहस्त्र मधु मादक स्पर्शी से आलिंगित कर रही सूरज की इन रश्मियों ने फागुन के इस बसंत प्रातः को सुगन्धित स्वर्ण में आह्लादित कर दिया है। यह देश हँसते-हँसाते मुस्कुराते चेहरों का देश है।” ज़िंदगी जब सारी ख़ुशियों को स्वयं में समेटकर प्रस्तुति का बहाना माँगती है तब प्रकृति मनुष्य को होली जैसा त्योहार देती है। महाकवि वाणभट्ट ने कादंबरी में राजा तारापीड़ के फाग खेलने का अनूठा वर्णन किया है। भवभूति के मालतीमाधव नाटक में पुरवासी मदनोत्सव मनाते हैं।यहाँ एक स्थल पर नायक माधव सुलोचनामालती के गुलाबी कपोलों पर लगे कुमकुम के फैल जाने से बने सौंदर्य पर मुग्ध हो जाता है। राजशेखर ने अपनी काव्य-मीमांसा में मदनोत्सव पर झूला झूलने का भी उल्लेख किया है।
यद्यपि आज के समय की तथाकथित भौतिकवादी सोच एवं पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव, स्वार्थ एवं संकीर्णता भरे वातावरण से होली की परम्परा में बदलाव आया है। परिस्थितियों के थपेड़ों ने होली की ख़ुशी और मस्ती को प्रभावित भी किया है, लेकिन आज भी बृजभूमि ने होली की प्राचीन परम्पराओं को सँजोये रखा है। यह परम्परा इतनी जीवन्त है कि इसके आकर्षण में देश-विदेश के लाखों पर्यटक ब्रज वृन्दावन की दिव्य होली के दर्शन करने और उसके रंगों में भीगने का आनन्द लेने प्रतिवर्ष यहाँ आते हैं। होली नई फ़सलों का त्योहार है, प्रकृति के रंगो में सराबोर होने का त्योहार है।
राधा-कृष्ण के जीवनकाल से ही अनुराग के इस त्योहार को ब्रज के गाँव-गाँव, घर-घर में लोग राग-रंग, मौज-मस्ती, हास-परिहास, गीत-संगीत के साथ परंपरा से आज तक मनाते आ रहे हैं। ब्रज में ऐसा कोई हाथ नहीं होता जो गुलाल से न भरा हो, पिचकारियों के सुगंध भरे रंग से सराबोर न हो।
मति मारौ श्याम पिचकारी, अब देऊँगी गारी।
भीजेगी लाल नई अंगिया, चूंदर बिगरैगी न्यारी।
देखेंगी सास रिसायेगी मोपै, संग की ऐसी है दारी।
हँसेगी दै-दै तारी।
ब्रज की होली की रसधारा से जुड़ा एक तीर्थ है बरसाना। फागुन शुक्ला नवमी के दिन नंदगाँव के हुरिहारे कृष्ण और उनके सखा बनकर राधा के गाँव बरसाने जाते हैं। बरसाने की ललनाएँ राधा और उसकी सखियों के धर्म का पालन कर नंदगाँव के छैल छकनिया हुरिहारिरों पर रंग की बौछार करती हैं –
फाग खेलन बरसाने आए हैं नटवर नंद किशोर
घेर लई सब गली रंगीली।
छाय रही छवि घटा रंगीली।
ढप-ढोल मृदंग बजाए है।
बंशी की घनघोर।
बुंदेली फागों के एकछत्र सम्राट हैं लोककवि ईसुरी। ईसुरी ने अपनी प्रेमिका 'रजउ' को अपने कृतित्व में अमर कर दिया। ईसुरी ने फागों की एक विशिष्ट शैली 'चौघड़िया फाग' को जन्म दिया। हम अपनी फाग चर्चा चौघड़िया फागों से ही आरम्भ करते हैं। ईसुरी ने अपनी प्राकृत प्रतिभा से ग्रामीण मानव मन के उच्छ्वासों को सुर-ताल के साथ समन्वित कर उपेक्षित और अनचीन्ही लोक भावनाओं को इन फागों में पिरोया है।
हमख़ाँ बिसरत नहीं बिसारी, हेरन-हँसन तुमारी।
जुबन विशाल चाल मतवारी, पतरी कमर इकारी।
भौंह कमान बान से तानें, नज़र तिरीछी मारी।
'ईसुर' कान हमारी कोदी, तनक हरे लो प्यारी।
दक्षिण भारत में होलिका के पाँचवे दिन रंग-पंचमी के रूप में यह उत्सव मनाया जाता है। पूरे भारत में यह उत्सव विभिन्न तरीक़े से मनाया जाता है। उत्तर भारत में वृंदावन, मथुरा, बरसाना आदि की होली बहुत प्रसिद्ध है। बरसाना में राधा-रानी मंदिर के प्रांगण में लट्ठमार होली होती है जिसमें स्त्रियाँ लाठियों से पुरुषों पर प्रहार करती हैं एवं होली गीत गाती हैं। वृंदावन का रसिया गायन, वहाँ का होली नृत्य; जो कृष्ण और राधा की होली खेलने को दर्शाता है; बहुत प्रसिद्ध है। बिहार प्रांत में उत्तर प्रदेश की भाँति ही होली होती है। भोजपुरी भाषा में इस उत्सव में गाए गए फाग वहाँ की विशेषता है। अवध, मगध, मध्य-प्रदेश, राजस्थान, मैसूर, गढ़वाल, कुमायूं, ब्रज सभी क्षेत्रों में होली की अत्यंत उल्लास और उमंग देखने को मिलती है। बंगाल एवं बांग्लादेश में होलिका-दहन नहीं होता, वहाँ इसे दोल-यात्रा या वसंतोत्सव के रूप में मनाया जाता है। इसमें कृष्ण प्रतिमा का झूला प्रचलित है।
मूलतः होली का त्योहार प्रकृति का पर्व है। इस पर्व को भक्ति और भावना से इसीलिए जोड़ा जाता है कि ताकि प्रकृति के इस रूप से आदमी जुड़े और उसके अमूल्य धरोहरों को समझे जिनसे ही आदमी का जीवन है।
मनुष्य का जीवन अनेक कष्टों और विपदाओं से भरा हुआ है। वह दिन-रात अपने जीवन की पीड़ा का समाधान ढूँढ़ने में जुटा रहता है। इसी आशा और निराशा के क्षणों में उसका मन व्याकुल बना रहता है। ऐसे ही क्षणों में होली जैसे पर्व उसके जीवन में आशा का संचार करते हैं।
भारत के बढ़ते जलसंकट के मद्देनज़र हमें पानी बचाने के लिये एक साथ मिलकर काम करना चाहिये और होली जैसे अवसर पर पानी की बर्बादी रोकनी चाहिये। होली खेलने वालों ने अगर प्राकृतिक रंग या गुलाल से होली खेली तो कुल 36 लाख 95 हज़ार 518 लीटर पानी की बचत होगी। धरती पर लगभग 6 अरब की आबादी में से एक अरब लोगों के पास पीने को भी पानी नहीं है। जब मनुष्य इतनी बड़ी आपदा से जूझ रहा हो ऐसे में हमें अपने त्योहारों को मनाते वक़्त संवेदनशीलता दिखानी चाहिये। सभी को प्यार के रंग में रँग देने वाले होली के त्योहार पर हर व्यक्ति अपने और दूसरों के जीवन में ख़ुशियों के रंग भर देना चाहता है। कोई अबीर, गुलाल से तो कोई पक्के रंग और पानी से होली खेलता है, लेकिन आज भी कुछ लोग हैं जो प्रकृति से प्राप्त फूल-पत्तियों व जड़ी-बूटियों से रंग बना कर होली खेलते हैं। उनके अनुसार इन रंगों में सात्विकता होती है और ये किसी भी तरह से हानिकारक नहीं होते। होली के अवसर पर छेड़खानी, मारपीट, मादक पदार्थों का सेवन, उच्छृंखलता आदि के ज़रिए शालीनता की हदों को पार कर दिया जाता है। आवश्यकता है कि होली के वास्तविक उद्देश्य को आत्मसात किया जाए और उसी के आधार पर इसे मनाया जाए। होली का पर्व भेदभाव को भूलने का संदेश देता है, साथ ही यह मानवीय संबंधों में समरसता का विकास करता है।
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