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जल कुकड़ी


(घर घर की कहानी-सुशील शर्मा) 

 

शहर की जिस तंग गली में रश्मि का घर था, वहाँ की हवा में भी अजीब सी कुढ़न महसूस होती थी। रश्मि, नाम का अर्थ भले ही किरण हो, पर उसका अस्तित्व अपने ही घर के आँगन में एक काली छाया की तरह था। चेहरे पर भले ही रूप-रंग की चमक हो, पर भीतर का मन ईर्ष्या और कुढ़न की कालिख से पुता हुआ था। 

रश्मि की शादी सुमित से हुई थी। सुमित एक मेहनती और सुलझा हुआ इंसान था, जो अपने परिवार को जोड़कर रखना चाहता था। पर रश्मि के लिए परिवार एक ऐसी वस्तु थी, जिसका इस्तेमाल वह अपनी सुख-सुविधाओं के लिए करती थी। शादी के कुछ ही समय बाद सुमित को समझ आ गया था कि जिस लड़की से उसने शादी की है, वह केवल एक सुंदर पुतला है, जिसकी आत्मा में प्रेम और करुणा का कोई अंश नहीं। 

ससुराल में रश्मि का व्यवहार एक जल-कुकड़ी की तरह था। जल-कुकड़ी, जो अपने स्वार्थ के लिए दूसरों का घोंसला उजाड़ देती है। सास-ससुर का सम्मान करना तो दूर, वह हर बात पर उन्हें ताने देती, उनके निर्णयों में कमी निकालती। सुमित की छोटी बहन मीरा, जो बहुत ही सीधी-सादी थी, उसके लिए रश्मि एक दुश्मन से कम नहीं थी। रश्मि चाहती थी कि घर में सब कुछ उसके हिसाब से चले, और जो उसके हिसाब से न चले, वह उसका दुश्मन। 

उसकी सास, कमला देवी, अक्सर अपनी बेटियों से कहतीं, “रश्मि की जीभ में मानो बिच्छू है। जब भी बोलती है, डसती ही है।”

रश्मि का मायका भी इस स्वभाव से अछूता नहीं था। उसकी दो भाभियाँ थीं, जो बहुत ही संस्कारी और सुलझी हुई थीं। पर रश्मि उन्हें कभी चैन से नहीं रहने देती। हर छोटी-बड़ी बात पर उनकी कमियाँ निकालती, अपने भाई के कान भरती। भाभियों के बच्चे अच्छे नंबर लाते तो वह जल-भुनकर राख हो जाती। उसके लिए उसकी माँ और बहन ही सब कुछ थीं, क्योंकि वे उसकी बातों पर हाँ में हाँ मिलाती थीं। 

रश्मि की यह ईर्ष्या केवल घर तक सीमित नहीं थी। वह हर उस औरत से जलती थी, जो उससे ज़्यादा ख़ूबसूरत थी, जिसके बच्चे अच्छे नंबर लाते थे, या जिसके पति उसे ज़्यादा प्यार करते थे। वह घंटों अपनी सहेलियों के साथ बैठकर दूसरों की बुराई करती, उनके जीवन के हर पहलू में नुक़्स निकालती। 

धीरे-धीरे यह जलन और कुढ़न उसके स्वभाव का हिस्सा बन गई। उसकी सारी ऊर्जा दूसरों को नीचा दिखाने और उनकी बुराई करने में ख़र्च होती थी। इस नकारात्मकता का असर उसके अपने जीवन पर भी पड़ने लगा। वह अक्सर बीमार रहने लगी। डॉक्टरों ने बताया कि यह सब तनाव और नकारात्मकता की वजह से है। “तुम्हारे शरीर में हड्डियाँ कमज़ोर हो रही हैं, “डॉक्टर ने उसे बताया। “यह सब तुम्हारे मन के भीतर की कड़वाहट का परिणाम है।”

पर रश्मि कहाँ मानने वाली थी! उसने इसे भी दूसरों की साज़िश समझा। ”यह डॉक्टर भी मेरे ससुराल वालों से मिला हुआ है,” वह बड़बड़ाती। 

समय बीतता गया। रश्मि के दो बच्चे हुए, एक बेटा और एक बेटी। रश्मि ने अपनी सारी ऊर्जा अपने बच्चों पर लगा दी, पर यह ऊर्जा सकारात्मक नहीं, बल्कि नकारात्मक थी। वह बच्चों पर दबाव डालती, उन्हें हर बात पर डाँटती-फटकारती। वह चाहती थी कि उसके बच्चे हर क्षेत्र में अव्वल रहें, ताकि वह दूसरों के सामने अपनी शेख़ी बघार सके। पर बच्चों का मन तो स्वतंत्र होता है, वह दबाव में नहीं खिलता। रश्मि के बच्चे पढ़ाई में कमज़ोर होते गए। उनके भीतर आत्मविश्वास की कमी होने लगी। वे जानते थे कि उनकी माँ का प्रेम भी स्वार्थ से भरा है। 

रश्मि की सामाजिक क्रूरता का एक उदाहरण था, उसकी पड़ोसन ममता। ममता एक विधवा थी, जो अपने दो छोटे बच्चों को पालने के लिए दिन-रात मेहनत करती थी। रश्मि को सरिता की ईमानदारी और मेहनत से भी जलन होती थी। वह अक्सर घर के बाहर खड़ी होकर सरिता के चरित्र पर सवाल उठाती, उसकी ग़रीबी का मज़ाक़ उड़ाती। एक बार सरिता का बेटा बीमार पड़ गया। उसे अस्पताल ले जाने के लिए पैसे नहीं थे। रश्मि ने यह सब देखा, पर मदद करना तो दूर, उसने अपनी सहेलियों से कहा, “देखो, इस औरत का कर्म ही ऐसा है। भगवान ने इसे सज़ा दी है।”

रश्मि की ये बातें समाज में फैलने लगीं। लोग उससे दूर रहने लगे। जहाँ पहले उसके चेहरे की सुंदरता लोगों को आकर्षित करती थी, वहीं अब उसकी कड़वी बातें और उसका क्रूर स्वभाव लोगों को उससे दूर धकेल रहा था। 

रश्मि का जीवन एक दलदल में बदल गया था। उसका शरीर हड्डियों के रोग से जर्जर हो चुका था। उसका स्वभाव उसे मानसिक रूप से भी खोखला कर चुका था। उसके बच्चे भी उससे दूर रहने लगे थे। एक दिन उसके बेटे ने उससे कहा, “माँ, आप दूसरों की बुराई करने से क्यों नहीं रुकतीं? आपकी बातों से मुझे शर्म आती है।”

रश्मि की आँखें भर आईं। उसने अपनी बेटी को देखा, जो कोने में चुपचाप बैठी रो रही थी। वह अपनी माँ के कड़वे स्वभाव से थक चुकी थी। 

एक रात, रश्मि लेटी हुई थी। दर्द से उसका शरीर ऐंठ रहा था। तभी उसे अपने अतीत की सारी बातें याद आईं। वह हर चेहरा उसकी आँखों के सामने घूम रहा था, जिसे उसने दुख पहुँचाया था। उसे याद आया कि कैसे उसने अपनी सास को परेशान किया था, कैसे भाभियों के बच्चों को नीचा दिखाया था, और कैसे सरिता का मज़ाक़ उड़ाया था। 

आज उसके पास कोई नहीं था। उसका पति सुमित अपनी ज़िन्दगी में व्यस्त हो गया था, उसके बच्चे उससे दूर थे। उसकी माँ और बहन भी अब उसकी बातों से ऊब चुके थे। 

सुबह जब सूरज की पहली किरण उसके घर में दाख़िल हुई, तो रश्मि ने महसूस किया कि उसका जीवन एक अँधेरे कमरे में बदल चुका है, जहाँ ईर्ष्या, जलन और कुढ़न के सिवा कुछ नहीं था। उसे अपनी ग़लतियों का एहसास हुआ। उसने आईने में ख़ुद को देखा। वह ख़ूबसूरत रश्मि नहीं थी, बल्कि एक कमज़ोर, बूढ़ी और अकेली औरत थी, जिसकी आँखों में अब सिर्फ़ पछतावा था। 

उसने अपने बच्चों को बुलाया। “मुझे माफ़ कर दो, बच्चों। मैं एक बुरी माँ हूँ।”

उसके बच्चों ने उसे गले लगा लिया। वे जानते थे कि उनकी माँ ने आख़िरकार अपनी ग़लतियों को मान लिया है। 

पर यह अंत नहीं था। यह एक शुरूआत थी। रश्मि ने अपनी बुराइयों को स्वीकार करना शुरू किया। वह हर उस इंसान से माफ़ी माँगने लगी जिसे उसने दुख पहुँचाया था। पर क्या सब कुछ ठीक हो गया? 

नहीं!

रश्मि के बच्चों का बचपन उन नकारात्मकता के साये में बीत चुका था। उनका आत्मविश्वास पूरी तरह से डगमगा चुका था। वे अच्छी शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाए, और न ही जीवन में आगे बढ़ पाए। रश्मि का पछतावा उसके जीवन का सबसे बड़ा दुख बन गया था। वह जानती थी कि उसके किए गए कर्मों का फल उसके बच्चों को भुगतना पड़ रहा है। वह अपनी ग़लतियों की सजा भोग रही थी। 

जल-कुकड़ी का जीवन यही होता है। वह दूसरों को नीचा दिखाने के चक्कर में ख़ुद ही दलदल में फँस जाती है, और अंत में उसे अपने ही कर्मों का बोझ ढोना पड़ता है। रश्मि की कहानी एक ऐसी सच्चाई है, जो हमें सिखाती है कि सुंदरता केवल बाहरी नहीं होती, असली सुंदरता तो भीतर होती है। और भीतर की कुरूपता अंत में सब कुछ नष्ट कर देती है। 

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