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रिश्तों के रेशमी धागे


(रक्षाबंधन पर कहानी)

 

शहर के ऊँचे-ऊँचे अपार्टमेंट्स में से एक के पंद्रहवें माले पर रहने वालीं शालिनी जी, सेवानिवृत्त प्रोफ़ेसर, अपनी बालकनी में बैठीं थीं। हाथ में गर्म कॉफ़ी का मग था और नज़रें सामने की बिल्डिंगों के बीच कहीं खोई थीं। आज राखी का दिन था। उनके फ़्लैट में कोई हलचल नहीं थी, न मिठाई की सुगंध, न ही राखी की थाली की खनक। बस एक गहरी, चुभती हुई ख़ामोशी थी। 

शालिनी जी को अपने गाँव की हवेली याद आ गई, जहाँ उनका बचपन बीता था। उस हवेली में राखी का त्योहार एक उत्सव होता था। उनके बड़े भाई, राघवेंद्र, जो उस समय एक होनहार छात्र थे, शहर में रहकर पढ़ाई करते थे। पर राखी से एक दिन पहले, चाहे कैसी भी परिस्थिति हो, वह घर लौट आते थे। उनकी वापसी की ख़बर पूरे घर में ख़ुशी की लहर दौड़ा देती थी। 

राखी की सुबह, शालिनी, जो उस समय दस साल की चुलबुली लड़की थीं, सबसे पहले उठकर नहातीं, नए कपड़े पहनतीं और राखी की थाली सजातीं। उनकी थाली में बेसन के लड्डू, चंदन, रोली, चावल और एक चमकदार राखी होती थी। राघवेंद्र भाई साहब, जो अक्सर पढ़ाई में खोए रहते थे, राखी के दिन बच्चों की तरह व्यवहार करते थे। शालिनी उन्हें प्यार से माथे पर तिलक लगाती, उनकी कलाई पर राखी बाँधती और उनके मुँह में मिठाई का टुकड़ा डालती। राघवेंद्र भी मुस्कुराकर एक छोटा सा उपहार उनकी हथेली पर रख देते। यह सिर्फ़ एक उपहार नहीं था, यह उनकी मेहनत, उनके स्नेह और उनकी ज़िम्मेदारियों का प्रतीक था। 

पर समय के साथ सब कुछ बदल गया। राघवेंद्र भाईसाहब ने गाँव से शहर आकर एक बड़ा बिज़नेस खड़ा कर लिया। उनकी पत्नी, जिनका नाम सरिता था, एक पढ़ी-लिखी और आधुनिक महिला थीं। उनके दो बच्चे थे, रवि और नेहा, जो विदेश में पढ़ाई कर रहे थे। राघवेंद्र जी भी अब अपनी व्यस्त ज़िन्दगी में इतने खो गए थे कि गाँव और पुराने रिश्तों को भूल गए थे। 

इस साल भी राखी से दो दिन पहले शालिनी ने राघवेंद्र को फोन किया। ”भैया, राखी पर आप आ रहे हैं ना?” उनकी आवाज़ में एक मासूम उम्मीद थी। 

राघवेंद्र ने गहरी साँस ली, ”शालिनी, तुम जानती हो कि मेरा कितना काम होता है। इस बार तो बच्चों के लिए भी समय निकालना मुश्किल है। तुम एक काम करो, इस बार राखी कूरियर से भेज दो।”

शालिनी का दिल टूट गया। वह जानती थीं कि भाई साहब की यह व्यस्तता सिर्फ़ एक बहाना है, असली वजह तो दूरियाँ और बदलती हुई सोच थी। “भैया, राखी का धागा कूरियर से नहीं भेजा जाता,” उनकी आवाज़ में एक गहरी पीड़ा थी। “वह तो हाथों से बाँधा जाता है, दिल से दिल को जोड़ा जाता है।”

राघवेंद्र ने कुछ नहीं कहा और फोन काट दिया। 

राखी का दिन आ गया। शालिनी ने अपने फ़्लैट में एक छोटी सी पूजा की। उनके पास एक पुरानी तस्वीर थी, जिसमें वह और राघवेंद्र भाईसाहब एक-दूसरे के बग़ल में खड़े मुस्कुरा रहे थे। उन्होंने उस तस्वीर के सामने एक दीया जलाया और आँखों में आँसू लिए उस तस्वीर को देखने लगीं। 

तभी उनके फ़्लैट का दरवाज़ा खटखटाया। उन्होंने दरवाज़ा खोला, तो सामने रवि और नेहा खड़े थे। रवि के हाथ में एक सुंदर सी राखी की थाली थी और नेहा के चेहरे पर एक मीठी सी मुस्कान थी। 

“बुआ, हम आ गए,” नेहा ने कहा। “पिताजी ने बताया कि आप बहुत दुखी हैं।”

शालिनी हैरान रह गईं, ”तुम दोनों . . . तुम कैसे आए?” 

रवि ने कहा, “बुआ, हम जानते हैं कि पिताजी व्यस्त हैं। पर हम भी तो आपके कोई हैं।”

शालिनी ने दोनों को गले लगा लिया। उनकी आँखों से ख़ुशी के आँसू बहने लगे। 

“बुआ, पिताजी ने हमें बताया कि राखी का त्योहार कितना महत्त्वपूर्ण होता है,” नेहा ने कहा। “हम विदेश में हैं, पर हम अपनी संस्कृति को भूल नहीं सकते।”

रवि ने कहा, “बुआ, आप पापा की बहिन हो तो हमारी भी तो बुआ हो। आप हमें राखी बाँधेंगी ना?” 

शालिनी ने मुस्कुराते हुए हाँ में सिर हिलाया। उन्होंने रवि के माथे पर तिलक लगाया, उसकी कलाई पर राखी बाँधी और नेहा के माथे पर भी एक तिलक लगाया। 

“यह राखी सिर्फ़ एक धागा नहीं है,” शालिनी ने कहा। “यह हमारे परिवार की संस्कृति है, हमारी विरासत है।”

तभी राघवेंद्र का फोन आया, “शालिनी, तुम दोनों से मिलकर ख़ुश हुई ना?” 

शालिनी की आवाज़ भर्रा गई, “भैया, आप . . . आप कैसे?” 

राघवेंद्र ने कहा, “शालिनी, तुम सही कहती हो। राखी का धागा कूरियर से नहीं भेजा जाता। वह तो दिलों को जोड़ता है।”

शालिनी ने कहा, “भैया, आप भी आ जाओ। हम सब आपका इंतज़ार कर रहे हैं।”

राघवेंद्र ने गहरी साँस ली, “शालिनी, मैं आ रहा हूँ। बस कुछ देर में।”

शालिनी ने ख़ुशी से रवि और नेहा को गले लगा लिया। वह जानती थी कि राघवेंद्र का आना सिर्फ़ एक ख़ुशी की बात नहीं थी, बल्कि यह उनके परिवार का फिर से जुड़ना था। 

शाम को राघवेंद्र आए। उन्होंने शालिनी को गले लगाया, “शालिनी, मुझे माफ़ कर दो। मैं अपनी व्यस्तता में तुम्हें भूल गया था।”

शालिनी ने कहा, “भैया, आप आ गए, यही मेरे लिए सबसे बड़ी राखी है।”

राखी का त्योहार ख़त्म हो गया, पर उसकी यादें सबके दिलों में हमेशा के लिए बस गईं। राघवेंद्र ने अपने बच्चों के साथ मिलकर राखी का महत्त्व समझा। उन्हें महसूस हुआ कि असली दौलत पैसा नहीं, बल्कि प्यार और रिश्ते हैं। 

शालिनी ने भी अपने भाई और उसके बच्चों के साथ मिलकर राखी का असली मतलब समझा। उसने महसूस किया कि राखी सिर्फ़ एक धागा नहीं, बल्कि एक अटूट बँधन है, जो हर भाई-बहन के दिल में हमेशा ज़िन्दा रहता है। 

यह कहानी हमें सिखाती है कि आधुनिकता और व्यस्तता के बावजूद, हमें अपनी संस्कृति और अपने रिश्तों को नहीं भूलना चाहिए। राखी का त्योहार एक ऐसा ही अवसर है, जो हमें हमारे परिवार और हमारी जड़ों से जोड़े रखता है। यह हमें सिखाता है कि भाई-बहन का रिश्ता सिर्फ़ ख़ून का नहीं, बल्कि प्यार और विश्वास का होता है। 

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