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स्वर्णरेखा

 

सुनो
प्रकृति की समग्र देह पर खिंची वह स्वर्णरेखा
केवल भूमध्य नहीं, 
एक विराट सौंदर्य का नाभिक है, 
जहाँ सूर्य प्रतिदिन उतारता है अपना ताम्र मुकुट
और तप में बदल जाता है तुम्हारे जल तत्त्व का संगीत। 
 
तुम, 
सृष्टि की नाभि हो, 
जहाँ ताप और शीत, उत्तर और दक्षिण, 
दिन और रात्रि
एक-दूसरे में विलीन होकर नृत्य करते हैं। 
 
जब तुम्हारे कटिबंध पर
सूर्य की दृष्टि स्थिर होती है, 
तो विरह ग्रीष्म बन जाता है 
जल वाष्पित होता है, 
और हवा में भर जाती है
एक अनकही प्रतीक्षा की गंध। 
 
तुम्हारी दृष्टि जब उतरती है
हिमाच्छादित वक्षों की ओर, 
हृदय झंकृत हो उठता है 
जैसे प्रणय की पहली ध्वनि
सृष्टि के कंठ से निकली हो। 
 
वह रस, वह सिंचन, 
जो बहता है तुम्हारे भीतर, 
वही रस पलता है हर बीज में, 
हर प्रेम में, हर कविता में। 
 
फिर एक समय आता है 
जब दक्षिणायन छा जाता है, 
और सूर्य तुम्हारे अँचल में उतर आता है। 
प्रकाश अब तपा नहीं, 
सहला रहा है। 
रात्रि अब भय नहीं, 
आराधना हो गई है। 
 
तुम 
सृष्टि की ऋतुमाला हो। 
हर ऋतु तुम्हारे किसी भाव की अभिव्यक्ति है 
कभी मादक, कभी मौन, 
कभी तप्त, कभी स्निग्ध। 
 
अब, 
वर्ष के चक्र का आधा भाग पूर्ण हो चुका है। 
पृथ्वी ने तुम्हारे चरणों की परिक्रमा कर ली है, 
अब वह लौटना चाहती है 
धवल पक्ष की ओर, 
जहाँ शीत है, शान्ति है, 
और तुम्हारे मृगनयन नेत्रों में
समग्र ब्रह्मांड का स्थैर्य झलकता है। 
 
ओ स्वर्णिम कटिबंध वाली देवी! 
देखो 
भास्कर तुम्हारी प्रतीक्षा में है, 
उसकी किरणें तुम्हारे अंगों से
दीक्षा लेना चाहती हैं। 
 
तुम्हारे ध्रुवों पर
हिम के कमल खिल चुके हैं, 
तुम्हारा भाल अब पूर्णचंद्र है। 
सृष्टि तुम्हारे ध्यान में है, 
और समय तुम्हारे चरणों में प्रणत। 
 
तुम कोई रेखा नहीं 
तुम पृथ्वी का नाड़ी-संगीत हो, 
तुम्हारे भीतर ही
ऋतुएँ साँस लेती हैं, 
जीवन फूटता है, 
और सृष्टि
अपने अस्तित्व का अर्थ समझती है। 
 
प्रसीद, देवी, 
कि तुम्हारे इस कटिबंध से
अब भी बहती है वह अमृत धारा, 
जो कवि के हृदय तक पहुँचती है
और कहती है 
“यह शरीर नहीं, यह ब्रह्म का विस्तार है, 
यह देह नहीं, यह ध्यान का उद्गम है।” 

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