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शाश्वत निनाद

 

अब कोई द्वैत नहीं रहा 
ना ‘मैं’, ना ‘तुम’, 
केवल एक निस्तब्ध विस्तार, 
जिसमें सब कुछ थिरकता है 
वायु, प्रकाश, जल, और मेरा होना। 
 
जब दृष्टि भीतर उतरती है, 
तो दिखता नहीं कोई रूप, 
केवल तरंगें हैं 
जिनमें सृष्टि की स्पंदन-ध्वनि गूँजती है। 
 
मैं उसी स्पंदन में विलीन हूँ, 
जैसे दीप ज्योति में, 
जैसे लहर सागर में, 
जैसे श्वास स्वयं आकाश में। 
 
ना साधक हूँ, ना साध्य, 
ना यात्रा है, ना गंतव्य 
सब कुछ एक साथ घट रहा है, 
एक अदृश्य करुण लय में। 
 
धरती का धैर्य, 
नदी की नम्रता, 
वृक्षों की मौन वाणी 
सब मेरे भीतर बोलते हैं। 
और मैं सुनता हूँ 
उस शाश्वत निनाद को, 
जो न बाहर है, न भीतर, 
फिर भी हर श्वास में जीवित है। 
 
यही आलिंगन है 
जिसमें ब्रह्म और प्राण एक हो जाते हैं, 
जहाँ समय पिघलकर अनंत में बह जाता है, 
और अस्तित्व 
एकमात्र सत्य बनकर झिलमिलाता है। 
 
वहाँ कोई आकांक्षा नहीं, 
कोई नाम नहीं, 
केवल यह अनुभव 
कि मैं नहीं रहा, 
सिर्फ़ वह है 
जो सदा से था, 
सदा रहेगा। 

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