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धुएँ के उस पार


(भोपाल गैस त्रासदी पर कविता) 
 
उस रात
आकाश नहीं था
मानो किसी ने
नीली चादर के नीचे
काला बुझा-सा बादल
उलटा कर रख दिया हो
 
हवा जो कभी
मंद सुगंध ले कर चलती थी
उस रात
न जाने किस पाताल से
अपना स्वरूप बदल कर
विष बनकर उतरी थी
और गलियों-गलियों
घर-घर
दस्तक देती चली जाती थी
 
लोग भाग रहे थे
पर दिशा खो चुकी थी
पैर ज़मीन पर नहीं
मृत्यु की देह पर पड़ रहे थे
कोई माँ
अपने बच्चे को ढँकते-ढँकते
ख़ुद राख हो रही थी
कोई पिता
अपनी अंतिम साँस में
परिवार का नाम पुकारता
धुँध में घुल रहा था
 
वो बच्चे
जिन्हें आज भी
नींद में चीख़ें सुनाई देती हैं
जिनकी आँखों में
वो रात
अब भी ठहर कर बैठी है
जैसे समय ने
उन्हें कभी छोड़ा ही नहीं
 
शहर के हर मोड़ पर
आज भी
एक अदृश्य साया है
जिसे लोग
उस रात की गंध कहते हैं
जो बलपूर्वक याद करा देती है
कि विष
सिर्फ़ शरीरों को नहीं
आने वाली पीढ़ियों को भी
निगल लेता है
 
और कहीं दूर
किसी अँधेरे कोने में
एक नाम
अब भी कम्पन भरता है
एक चेहरा
सत्ता की हवा में उड़कर
अपराधमुक्त हो गया
पर शहर
अब भी उसी क्षण में अटका हुआ है
जहाँ
न्याय की लौ
कभी जली ही नहीं
 
भोपाल आज भी
अपनी साँस में
एक हल्का सा कँपकँपाहट लिए
जी रहा है
मानो हर धड़कन
उस रात का स्मरण हो
और हर बच्चा
अपनी मासूम आँखों में
एक ख़ामोश प्रश्न लिए
बड़ा हो रहा हो
क्या वो ज़हर आज भी 
घुल रहा है उसके अंतस में। 

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